भारत की स्वतंत्रता के बाद ग्वालियर के महाराजा जीवाजीराव सिंधिया राजनीति से कमोबेश दूर ही रहे। उन्होंने कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा। लेकिन भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू कुछ कारणों से इस राजपरिवार को राजनीति में लेकर आए थे।

तत्कालीन कांग्रेस सरकार महाराजा और उनकी पत्नी के हिंदू महासभा के प्रति झुकाव से चिंतित थी। कांग्रेस के लिए हिंदू महासभा एक चुनौती के रूप में उभर रही थी। पहले ही आम चुनाव (1951-52) में महासभा दो सीट जीतने में कामयाब रही थी। इसके अवाला उसे मध्य प्रदेश विधानसभा की 11 सीटों पर भी जीत मिली थी।

गांधी हत्या और ग्वालियर

हिंदू महासभा का नाम महात्मा गांधी की हत्या से भी जुड़ रहा था। महात्मा गांधी के पड़पोते तुषार गांधी के अनुसार, नाथूराम गोडसे (गांधी का हत्यारा) घटना को अंजाम देने से दो दिन पहले दत्तात्रेय एस परचुरे के साथ रिवाल्वर खरीदने के लिए ग्वालियर गया था। गोडसे और उसके साथी ने ग्वालियर के एक बंदूक विक्रेता जगदीश प्रसाद गोयल से जो इतालवी पिस्तौल खरीदी थी, वह ग्वालियर रेजिमेंट का एक कर्नल इथियोपिया से भारत लाया था। बंदूक लाने वाले अफसर को महाराजा का एसीडी बनाया गया था।

तुषार गांधी सवाल उठाते हैं कि आखिर एसीडी की लाई बंदूक पहले बंदूर विक्रेता और बाद में गोडसे के हाथ में कैसे चली गई?  

कांग्रेस को संदेह था कि ग्वालियर के महाराजा और उनकी पत्नी द्वारा हिंदू महासभा को संरक्षण दिया जा रहा है। कांग्रेस के इस संदेह को दूर करने के लिए महाराजा की पत्नी विजयाराजे नेहरू से मिलीं। नेहरू ने कहा कि अगर सब ठीक है तो कांग्रेस के टिकट पर जीवाजीराव को चुनाव लड़ने को कहिए।

विजयाराजे जानती थी कि उनके पति की राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं। उन्होंने ये बात नेहरू को बताई। नेहरू ने विजयाराजे को लाल बहादुर शास्त्री और गोविंद बल्लभ पंत से मिलने को कहा। उन दोनों ने दबाव बनाया कि अगर जीवाजीराव चुनाव नहीं लड़ सकते तो आप कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़िए और इस तरह विजयाराजे सिंधिया राजनीति में आईं।

गुना से लड़ा चुनाव

विजयाराजे सिंधिया 1957 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस की टिकट पर गुना संसदीय सीट से लड़ीं। उन्होंने हिंदू महासभा के उम्मीदवार वीजी देशपांडे को हराया। उन्हें कुल 118578 वो मिले थे, जो कुल मतदान का 66.95 प्रतिशत था।

वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक टिप्पणीकार रशीद किदवई ने मंजुल प्रकाशन से छपी अपनी किताब ‘सिंधिया राजघराना: सत्ता, राजनीति और षडयंत्रों की महागाथा’ में इस चुनाव के बारे में लिखा है, “जीवाजीराव चुनाव प्रचार अभियान से अमूमन दूर ही रहे। उन्होंने सरदार आंग्रे को विजया राजे के चुनाव प्रबंधक के तौर पर कार्य करने के निर्देश दिए थे। हिंदू महासाभा के स्वघोषित सदस्य आंग्रे भी कांग्रेस में शामिल हो गए। विजयाराजे ने स्वयं बहुत ज़्यादा प्रचार नहीं किया। उनकी जगह आंग्रे ने ही तमाम बैठकें कर ‘महल’ के लिए वोट मांगे।”

ध्यान रहे कि यही वह समय था, जब राज्य पुनर्गठन क़ानून, 1956 को लागू किया जा चुका था। इससे पूर्ववर्ती ग्वालियर साम्राज्य की मध्य भारत के तौर पर बनी राष्ट्रीय पहचान ख़त्म हो चुकी थी और मध्य प्रदेश नाम से एक नया राज्य अस्तित्व में आ चुका था। बाद में विजयाराजे कांग्रेस छोड़ जनसंघ में चली गईं और भाजपा की संस्थापक सदस्य बनीं।

संसद सदस्य के तौर पर विजयाराजे बहुत सक्रिय नहीं थीं। लोकसभा में उनकी उपस्थिति 50 प्रतिशत से भी कम थी। इसकी एक वजह तो जीवाजीराव का गिरता हुआ स्वास्थ्य था। फिर वे ग्वालियर में उनके द्वारा शुरू किए गए सिंधिया कन्या विद्यालय (एसकेवी) को लेकर काफी समर्पित थीं। राजे का नाम रामजन्मभूमि आंदोलन और बाबरी विध्वंस से भी जुड़ा।