जयप्रकाश नारायण (जेपी) की पहल और कोशिशों के बाद 1977 के चुनाव से ऐन पहले जनता पार्टी बनी थी। खराब सेहत के बावजूद जेपी ने धुआंधार प्रचार कर जनता पार्टी के पक्ष में और इंदिरा गांधी के खिलाफ माहौल बनाने में भी बड़ी भूमिका अदा की। उनकी अगुआई में चली कोशिशों का नतीजा रहा कि 24 मार्च, 1977 को मोरारजी देसाई के नेतृत्व में देश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी।
खराब सेहत की परवाह किए बिना लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई में जेपी अपना शरीर झोंक चुके थे। मार्च के अंत तक जयप्रकाश नारायण की सेहत एक बार फिर ज्यादा बिगड़ने लगी। डॉक्टर्स की सलाह पर 30 अप्रैल को उन्हें इलाज के लिए सिएटल (अमेरिका) ले जाया गया। करीब 20 दिन बाद वह लौटे। इस बीच, जनता पार्टी की अंदरूनी खींचतान और अव्यवस्था काफी बढ़ गई थी और पार्टी के नेताओं द्वारा जेपी को दिए जाने वाला महत्व कम हो गया था।
जेपी को रिसीव करने तक नहीं पहुंचे बड़े नेता
जेपी को पार्टी से जुड़ी सारी बड़ी बातें नहीं बताई जाने लगीं। उनके लौटने पर कोई बड़ा नेता उनका स्वागत करने एयरपोर्ट तक नहीं पहुंचा। इससे उन्हें काफी झटका लगा। फिर भी, वह पार्टी को बचाए रखने में लगे रहे। लेकिन, जनता पार्टी की लोकप्रियता धीरे-धीरे कम होने लगी और इंदिरा गांधी के लिए रास्ता साफ होने लगा।
इसी बीच, बिहार में पटना के पास बेलछी नरसंहार हो गया। जमीदारों ने 11 दलितो व तीन अन्य लोगों की हत्या कर दी। इसके बाद जुलाई (1977) में इंदिरा गांधी वहां दौरे पर गईं। ट्रेन, जीप, ट्रैक्टर और अंतत: हाथी की सवारी कर, कमर-तक पानी में चल कर उन्होंने लोगों का हाल-चाल जाना तो लोग समझने लगे कि गरीबों, वंचितों की असली मसीहा यही हैं।
इंदिरा की बढ़ती लोकप्रियता देख चरण सिंंह ने इंदिरा और उनके चार पूर्व केंद्रीय मंत्रियों की गिरफ्तारी करवा दी। लेकिन, सरकार की तैयारी पूरी नहीं थी और मजिस्ट्रेट ने सारे आरोप खारिज करते हुए उन्हें बिना शर्त रिहा करने का आदेश आ गया। इंदिरा, मानो, शहीद कहलाने के लिए ऐसे ही मौके की तलाश कर रही थीं।
जेपी ने देसाई, चरण सिंह और जगजीवन राम को लिखा पत्र
इंदिरा ने मौके को पूरी तरह भुनाया और अपने पक्ष में सुहानुभूति लहर चलवा ली। आपातकाल के दिनों में उनकी घोर आलोचना करने वाले ‘गार्डियन’ जैसे विदेशी मीडिया संस्थान भी इंदिरा की गिरफ्तारी को गलत मान रहे थे। जनता सरकार बाकी जो अच्छे काम कर रही थी, उसका भी फायदा नहीं मिल पा रहा था। पार्टी की अंदरूनी लड़ाई जबरदस्त नुकसान पहुंचा रही थी।
जेपी यह सब देख-समझ रहे थे और अंदर ही अंदर चिंंता में डूबते जा रहे थे। पार्टी में उनकी अहमियत लगातार कम होती जा रही थी। कोई उनकी सलाह तक नहीं ले रहा था। जब चरण सिंंह और मोरारजी देसाई के मतभेद खतरनाक स्तर पर पहुंच गए थे, तब भी जेपी को मध्यस्थता के लिए नहीं कहा गया।
नौबत यहां तक पहुंच गई थी कि चरण सिंंह ने जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और संसदीय बोर्ड से इस्तीफा देकर अपनी ही सरकार को कायर कहना शुरू कर दिया। जून, 1978 में चरण सिंंह, राज नारायण और चार अन्य राज्य मंत्रियों ने सरकार से इस्तीफा दे दिया। संकट और गहरा गया। मधु लिमये पटना भागे और जेपी को सारी बातें सुनाईं। जेपी ने देसाई, चरण सिंंह और जगजीवन राम को अलग-अलग चिट्ठी लिखी। उन्होंने आगाह किया कि अगर पार्टी टूट गई तो दमनकारी ताकतें फिर से सत्ता पर काबिज हो जाएंगी और लोकतंत्र का नुकसान होगा। साथ ही, देसाई और चरण सिंह से संकट का समाधान करने के लिए कहा।
‘बाहरी के दखल की जरूरत नहीं’
मोराराजी देसाई ने कहा कि संकट पार्टी का अंदरूनी मामला है और इसमें किसी बाहरी के दखल की जरूरत नहीं है। बिमल प्रसाद और सुजाता प्रसाद द्वारा लिखी गई जेपी की जीवनी The Dream of Revolution – A Biography of Jayaprakash Narayan (पेंग्विन से प्रकाशित) में बताया गया है कि देसाई की इस बात ने जेपी का दिल तोड़ दिया था।
उधर, 1977 के अंत में इंदिरा गांधी ने 70 हजार वोट से चिंकमंगलूर उपचुनाव जीत लिया और सदन में वापसी की। 15 दिन के भीतर ही उन्हें विशेषाधिकर हनन और संसद की अवमानना का दोषी ठहरा कर संसद की सदस्यता खत्म करते हुए गिरफ्तार कर लिया गया। इस कार्रवाई से सरकार के खिलाफ भयंकर आक्रोश उपजा। जनता पार्टी की अंदरूनी लड़ाई भी कम नहीं हो रही थी। यह निपटाने की जेपी की कोशिशें कारगर नहीं हो रही थीं।
जेपी की अपील का नहीं हो रहा था असर
चरण सिंह ने 23 दिसंबर को बिहार में एक बड़ी रैली की। यह शक्ति प्रदर्शन उनके लिए फायदेमंद रहा। उन्हें कैबिनेट में दोबारा वित्त मंत्री व उप प्रधानमंत्री के रूप में शामिल कर लिया गया। 24 जनवरी, 1979 को जगजीवन राम भी उप प्रधानमंत्री बना दिए गए।
जेपी को लग रहा था कि अब लड़ाई थम जाएगी, लेकिन यह शांति बहुत कम दिन ही रह सकी। जेपी यह झगड़ा दूर करने की कोशिश में जुटे रहे। साथ ही, संपूर्ण क्रांति का अपना अभियान भी आगे बढ़ाते रहे। इस बीच, उनकी बीमारी भी लगातार बढ़ती जा रही थी। पर अंदरूनी लड़ाई खत्म करने की अपील और कोशिशों का पार्टी नेताओं पर कोई असर नहीं हो रहा था।
जेपी ने देसाई को पद छोड़ने के लिए कहा
अंत में जेपी ने बहुत कड़ा रुख अख्तियार कर लिया। उन्होंने चंद्रशेखर को चिट्ठी लिख कर कहा- देश को अराजकता और तानाशाही से बचाने के लिए मेरी राय में अब देसाई को पार्टी नेतृत्व का पद छोड़ कर जगजीवन राम के लिए रास्ता बनाना चाहिए।
ऐसा ही पत्र मोरारजी देसाई को भी भेजा गया, लेकिन उन तक पहुंचने से पहले चिट्ठी पटना रेडियो स्टेशन पहुंच गई। सब कुछ सार्वजनिक हो गया। देसाई के गुस्से का ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने कड़ा जवाब लिखते हुए पद से हटने से इनकार कर दिया।
11 जुलाई, 1979 को नेता प्रतिपक्ष वाई.बी. चव्हान ने सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव रख दिया। 14 जुलाई को जनता पार्टी के संसदीय दल ने देसाई से कहा कि वह नेता सदन के पद से इस्तीफा दे दें। लेकिन, वह नहीं माने।
जॉर्ज फर्नांडिस ने अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान जोरदार तरीके से सरकार का बचाव किया और 14 जुलाई को उद्योग मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। अब देसाई पर इस्तीफे का दबाव बढ़ता ही जा रहा था। 27 जुलाई को देसाई ने पार्टी प्रमुख के पद से इस्तीफा दिया और जगजीवन राम ने उनकी जगह ली। इन सब बातों से इंदिरा गांधी खुश हो रही थीं। उन्हें अपनी वापसी करीब लगने लगी थी।
गिर गई मोरारजी देसाई की सरकार
28 जुलाई को मोरारजी देसाई की सरकार लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव हार गई। इंदिरा (कांग्रेस) ने चरण सिंंह के नेतृत्व वाली गठबंधन (जनता दल सेकुलर और कांग्रेस उर्स) सरकार को बाहर से समर्थन दिया। इंदिरा इस समर्थन की कीमत यह चाहती थीं कि उनके और संजय गांधी के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए गठित विशेष अदालतें भंग कर दी जाएं। सिंंह और इंदिरा में बनी नहीं। 30 अगस्त को इंदिरा ने समर्थन वापस ले लिया और चरण सिंंह ने इस्तीफा दे दिया। राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने दो दिन बाद लोकसभा भंग कर दी। जनवरी, 1980 में दोबारा चुनाव कराए गए। इसमें इंदिरा गांधी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में लौट गई।
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