नवैद अंजुम
मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर, 1797 को आगरा के काला महल इलाके में हुआ था। उनका मूल नाम मिर्ज़ा असदउल्लाह बेग ख़ान। ग़ालिब उपनाम था, जिसका मतलब विजेता होता है।
लोहारू के नवाब की भतीजी उमराव बेगम से शादी के बाद 13 साल की उम्र में ग़ालिब दिल्ली जा बसे और आखिरी सांस तक दिल्ली में रहे। तब दिल्ली मुगलों की राजधानी हुआ करती थी। अकबर शाह द्वितीय (1806-1837) मुगल साम्राज्य के शासक हुआ करते थे।
जिंदगी भर किराए के घर में रहे ग़ालिब
ग़ालिब 50 साल से ज्यादा समय तक दिल्ली में रहे लेकिन घर नहीं खरीदा। वह किराए के घर में रहे। जब भी मन लगता, घर बदल दिया करते थे। हालांकि वह कभी पुरानी दिल्ली के गली कासिम जान या उसके आसपास के इलाकों से बाहर नहीं रहे।
ग़ालिब ने दिल्ली की जिस हवेली में आखिरी सांस ली, वह भी उन्हें एक हकीम ने भेंट की थी। वह हकीम ग़ालिब का बहुत बड़ा प्रशंसक था। हवेली एक मस्जिद के बगल में थी। अपने इस निवास स्थान को लेकर ग़ालिब ने लिखा था:
मस्जिद के ज़ेर-ए-साया इक घर बना लिया है
ये बंदा-ए-कमीना हम-साया-ए-ख़ुदा है
आसान भाषा इसका मतलब हुआ- मस्जिद की छाया में मैंने अपना घर बनाया है/एक बदमाश ख़ुदा का पड़ोसी है।
यह हवेली आज चांदनी चौक के बल्लीमारान में गली कासिम जान में है। लोग उसे ‘ग़ालिब की हवेली’ के नाम से जानते हैं। 300 साल पुरानी हवेली को आर्कियोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया (ASI) के तहत एक विरासत स्थल में बदल दिया गया है। हवेली मुगल काल के आखिरी महान कवि की कहानी बताता है। हवेली में एक संग्रहालय है जो कवि के जीवन और कार्य की एक झलक देता है।
वहां की प्रदर्शनी में गीतकार गुलज़ार द्वारा दान की गई एक हाथी दांत की मूर्ति, किताबें, दोहे, पत्र, कपड़े, तस्वीरें और हुक्का का आनंद लेते कवि की एक आदमकद प्रतिकृति शामिल है। हवेली का निर्माण मुगल स्थापत्य शैली में किया गया है।
नहीं खरीदी कभी किताब
ग़ालिब का पूरा जीवन पढ़ने और लिखने में बीता। हालांकि जैसे उन्होंने कभी घर में निवेश नहीं किया, वैसे ही कभी किताबें भी नहीं खरीदीं। दिल्ली में अला माशाल्लाह नाम का एक व्यक्ति एक चलती-फिरती लाइब्रेरी चलाता था। माशाल्लाह दुकानों से किताबें किराए पर लेता था और उन्हें घर-घर तक पहुंचाता था। ग़ालिब इसी लाइब्रेरी के अनेक ग्राहकों में से एक थे।
दिलचस्प यह है कि ग़ालिब ने कभी दिल्ली से बहुत दूर की यात्रा नहीं की। एक घटना अपवाद है, जब वह अपनी पेंशन के लिए 40 साल की उम्र में ब्रिटिश अधिकारियों के पास याचिका दायर करने के लिए कोलकाता गए थे। वह दो साल तक कोलकाता में रहे। इस यात्रा के दौरान वह कुछ महीनों तक लखनऊ और बनारस में भी रहे।
शराब के शौकीन ग़ालिब
ग़ालिब को महंगी शराब – वाइन, शैंपेन और ओल्ड टॉम व्हिस्की या रम का शौक था। ओल्ड टॉम व्हिस्की देश कुछ चुनिंदा छावनियों में ही मिलती थी। ग़ालिब ने इसके लिए अंग्रेजों के साथ अपने संबंध का फायदा उठाया। दिल्ली के नजदीक मेरठ की छावनी थी। ग़ालिब ने अंग्रेज अधिकारियों से सांठगांठ कर मेरठ से ओल्ड टॉम की नियमित आपूर्ति का जुगाड़ कर लिया।
जब ग़ालिब के प्रशंसक और अनुयायी उनसे कहते कहते कि शराब पीने वालों की प्रार्थना स्वीकार नहीं होती, तो वह पूछते- “जिसके पास शराब हो, उसे किसी चीज़ के लिए दुआ करने की जरूरी है?”
ग़ालिब का घर संभालने के लिए कर्मचारियों का एक छोटा सा समूह था। स्टाफ में दो लोग प्रमुख थे- कल्लू और वफादार। कल्लू ही ग़ालिब के लिए शराब का प्याला तैयार किया करते थे। इसके लिए एक प्रोसेस को फॉलो किया जाता था।
सैफ महमूद ने अपनी किताब Beloved Delhi: A Mughal City and Her Greatest Poets (2018) में लिखा है, “स्प्रिट को गुलाब जल के साथ मिलाकर मिट्टी के एक कटोरे में डाला जाता था। उस कटोरे को आबखोरा कहा जाता था। इसके बाद आबखोरा को ढक कर मिट्टी में दबा दिया जाता था। ग़ालिब के पीने का समय होने से कुछ घंटों पहले आबखोरा को पानी के कुंड में रखा जाता था।”
जब जुआ खेलने के चक्कर में जेल गए ग़ालिब
ग़ालिब को शराब के अलावा शतरंज खेलना, जुआ खेलना और आम खाने का भी शौक था। उनकी जुए की आदत के कारण 1841 में उनके घर पर छापा मारा गया। 1847 में उन्हें छह महीने की हिरासत में लिया गया; हालांकि, उन्होंने जेल में अपनी सज़ा की लगभग आधी अवधि ही काटी।