भारत विभाजन के बाद जब पाकिस्तान का उदय हुआ तो दोनों देशों की सीमा बांटने के लिए आखिरी वायसराय माउंटबेटन ने सीमा आयोग (बाउंड्री कमीशन) का गठन किया। ब्रिटिश एडवोकेट सर सिरिल जॉन रेडक्लिफ (Sir Cyril John Radcliffe) को इस आयोग का अध्यक्ष बनाया गया। जुलाई 1947 में रेडक्लिफ भारत पहुंचे। उन्हें 5 हफ्ते के अंदर दोनों देशों की सीमा तय करनी थी। पेंच बंगाल और पंजाब प्रांत को लेकर फंसा था।
कई दौर की बैठकों और तमाम गुणा-भाग के बाद आखिरकार रेडक्लिफ ने बंगाल और पंजाब के बंटवारे का एक खाका तैयार किया और भारत की आजादी के ठीक दो दिन बाद, यानी 17 अगस्त 1947 को इसकी घोषणा कर दी। उनके ऐलान के बाद दोनों सूबों के लोग बेहद ख़फा हो गए। सबसे ज्यादा नाराज पंडित जवाहरलाल नेहरू हुए, क्योंकि इन सूबों का बंटवारा उनके मन-मुताबिक नहीं हुआ था।
पंडित नेहरू क्यों हो गए थे नाराज?
राष्ट्रीय अभिलेखागार (नेशनल आर्काइव) के दस्तावेजों के मुताबिक रेडक्लिफ की घोषणा से ठीक एक दिन पहले यानी 16 अगस्त 1947 को एक बैठक बुलाई गई। इसमें माउंटबेटेन के अलावा भारत की तरफ से प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल, रक्षा मंत्री सरदार बलदेव सिंह, गृह सचिव वीपी मेनन मौजूद थे। जबकि पाकिस्तान की ओर से पीएम लियाकत अली खान, आंतरिक मामलों के मंत्री फजल-उर-रहमान और कैबिनेट सचिव मोहम्मद अली शामिल हुए। दोनों पक्षों को उसी दिन बंटवारे का प्रारूप सौंपा गया था।
इस मीटिंग के मिनट्स के मुताबिक पंडित नेहरू बंटवारे से संतुष्ट नहीं थे और उन्होंने इसका तीखा विरोध किया। वह चाहते थे कि बंगाल का चटगांव वाला हिस्सा (जो अब बांग्लादेश में है) भारत के पास रहे। नेहरू ने बैठक में कहा कि उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि सीमा आयोग चटगांव के पहाड़ी इलाकों को भी बांट देगा। नेहरू ने जोर देकर कहा कि ‘उन्होंने और कांग्रेस के अन्य नेताओं ने चटगांव के लोगों को आश्वासन दिया है कि उसके बंटवारे का कोई सवाल ही नहीं उठता है, क्योंकि वहां की 97 फीसदी आबादी हिंदू और बौद्ध है। इसलिये सर रेडक्लिफ को उसे हाथ लगाने का कोई मतलब नहीं बनता है’।
पंजाब पर क्या आपत्ति थी?
बंगाल की ही तरह पंजाब के बंटवारे से भी पंडित नेहरू बेहद नाराज हुए थे। उनका तर्क था कि पंजाब के बंटवारे से सिखों में खराब संदेश जाएगा और उनपर नकारात्मक असर पड़ सकता है। वहीं, रक्षा मंत्री सरदार बलदेव सिंह को आशंका थी कि पंजाब के बंटवारे का अप्रत्याशित परिणाम हो सकता है। उधर, पाकिस्तान के पीएम लियाकत अली का तर्क था कि ऐसा ही असर मुसलमानों पर भी पड़ सकता है। उन्होंने जोर देकर कहा कि बंटवारे के बाद पश्चिमी पंजाब में हर हाल में सिखों के अधिकारों की रक्षा की जाएगी और उन्हें हर तरीके से धार्मिक स्वतंत्रता की अनुमति होगी।
नेहरू की आपत्ति पर क्या था पाकिस्तान का तर्क?
नेशनल आर्काइव के दस्तावेजों में माउंटबेटेन की इस मसले पर जिन्ना और लियाकत अली से हुई बातचीत का भी विस्तृत ब्यौरा है। इसके मुताबिक लियाकत अली का कहना था कि यदि चटगांव के पहाड़ी इलाके को बाकी हिस्सों से अलग कर दिया जाएगा तो वहां के लोगों को सर्वाइव करना मुश्किल होगा। अलबत्ता लियाकत अली इस बात के लिए तैयार थे कि यदि भारत दार्जिलिंग और जलपाईगुड़ी उन्हें दे दे तो चटगांव के पहाड़ी इलाके को छोड़ देंगे। उधर, जिन्ना का कहना था कि वे पश्चिमी पंजाब के लोगों की हर मांग मानने और हर तरीके की गारंटी देने को तैयार हैं।
अंबेडकर ने क्या सलाह दी थी?
नेशनल आर्काइव के दस्तावेजों से पता लगता है कि बंगाल के बंटवारे पर नेहरू की आपत्ति के बाद कानून मंत्री डॉ. भीमराव अंबेडकर और उद्योग मंत्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी मसले को संयुक्त राष्ट्र (UN) में ले जाना चाहते थे और नेहरू को भी यही सलाह दी थी। उधर, गृहमंत्री सरदार पटेल का मानना था कि पंजाब के बंटवारे का एक ही हल है और वो है दोनों तरफ के लोगों का हस्तांतरण।