तीन नए आपराधिक कानूनों के पारित होने के समय सदन के पटल पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने दावे से कहा कि ‘तारीख पर तारीख’ जल्द ही अतीत की बात हो जाएगी। इस उम्मीद की बुनियाद इस भरोसे पर है कि कानूनों पर अगर प्रभावी तरीके से अमल किया जाए तो वे न्याय प्राप्ति का लक्ष्य सुनिश्चित करने में सहायक साबित होंगे।
यह एक चीज है जो आपराधिक मुकदमे की प्रक्रिया से कहीं बहुत बड़ी है। न्याय प्रदान करना और कानूनों पर अमल बहुत सारे कारकों पर निर्भर करता है। तमाम कानूनों के होते हुए भी अपराधियों को सजा दिलाने में नाकामी कानून के विफल होने के बराबर है। इस दावे को साबित करने के लिए बाल यौन शोषण के मामले काफी प्रासंगिक हो सकते हैं।
संसद के पटल पर रखे गए आंकड़ों के अनुसार 31 जनवरी, 2023 तक देशभर की अदालतों में पॉक्सो के 2,43,237 मामले लंबित थे और 2022 में सिर्फ 28,850 (राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के हवाले से) मामलों का ही निपटारा हो पाया। अगर इनमें कोई नया मामला नहीं जोड़ा जाए तो भी लंबित मामलों के निपटारे में कम से कम नौ साल का समय लगेगा।
यही नहीं, साल 2022 में पॉक्सो के 2,68,038 मामलों में से सिर्फ 8,909 मामलों में ही जुर्म साबित हुआ और सजा सुनाई जा सकी। यानी सिर्फ तीन फीसदी मामलों में ही अपराधियों को उनके किए की सजा मिली। अब इन तीन फीसदी मामलों में भी दावे से नहीं कहा जा सकता कि न्यायिक प्रक्रिया अपने मुकाम तक पहुंच चुकी है क्योंकि ऊपरी अदालतों में लंबित अपीलों के बाबत कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। य़ानी पीड़ितों की अंतहीन प्रतीक्षा जारी है।
यह भयावह स्थिति तब है जब फिलहाल समयबद्ध तरीके से मुकदमों के निपटारे, फास्ट ट्रैक (त्वरित) अदालतें गठित करने और उनके लिए बुनियादी ढांचे तथा भरपूर बजटीय आबंटन जैसी चीजों के लिए सुगठित नीतिगत खाका और कानून मौजूद है। इन आंकड़ों की हरेक संख्या पीड़ित बच्चे और उसके परिवार की व्यवस्था के प्रति आस्था, समाज की विफलता और उनकी प्रतीक्षा की कहानी है। ये संख्याएं भी समंदर की उन चंद बूदों की तरह हैं जहां मामलों की शिकायत दर्ज की गई। ज्यादातर मामलों में तो शिकायत ही दर्ज नहीं होती।
अध्ययन बताते हैं कि भारत में हर चार में से एक बच्चा यौन उत्पीड़न का शिकार हुआ या उसका यौन शोषण किया गया। इसका अर्थ यह हुआ कि बहुत बड़ी तादाद ऐसे लोगों की है जिनका तंत्र से भरोसा उठ चुका है। लिहाजा वे अपने खिलाफ अपराधों की शिकायत दर्ज कराना भी मुनासिब नहीं समझते और इस प्रकार न्याय के विचार एवं इसकी प्राप्ति से ही कोसों दूर हैं।
अगस्त 2006 में निठारी में गुमशुदा बच्चों की आवाज उठाने वाले पहले चंद लोगों में शुमार और बाद में महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराधों की रोकथाम पर गठित वर्मा समिति की सहायता करने और अंत में लापता बच्चों के मामलों में अनिवार्य रूप से एफआईआर दर्ज करने की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट में पैरवी करने वाला शख्स होने के नाते मेरा अनुभव है कि पुलिस और अदालतों द्वारा कानूनों की सतही एवं अधकचरी व्याख्या के नतीजे में देश में बहुसंख्या में पीड़ित महिलाएं और बच्चे न्याय से वंचित हैं।
हर नागरिक को आसानी से न्याय सुलभ हो, इसके लिए बहुत कुछ करना होगा, जो अभी हो नहीं रहा है। होना तो यह चाहिए कि अपराध की सूचना मिलते ही पुलिस कार्रवाई करे। जज को इसकी बाध्यता नहीं होनी चाहिए कि वह सिर्फ वही देखे जो सामने दिख रहा है बल्कि उसे यह भी देखना है कि न्याय और न्यायसंगतता किस ओर है।
सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2013 में लापता बच्चों के मामलों में यह माना कि कुछ हालात में यह मान लेना चाहिए कि अपराध घटित हुआ है और उसने मेरी इस दलील से सहमति जताई कि बच्चों की गुमशुदगी के हर मामले को अपहरण या दुर्व्यापार (ट्रैफिकिंग) का मामला माना जाए जब तक कि कुछ अन्यथा साबित नहीं हो। इससे पहले, जैसा कि निठारी में हुआ, पुलिस बच्चों की गुमशुदगी के मामले न तो दर्ज करती थी और न इनकी जांच करती थी।
न्याय के हक में कानून की व्याख्या में एक तब्दीली से इंसाफ के नए रास्ते खुले। इसकी वजह से हजारों बाल दुर्व्यापारी (ट्रैफिकर) गिरफ्तार हुए और हर साल एक लाख से ज्यादा बच्चों को ट्रैफिकिंग का शिकार होने या लापता होने से बचाया जा सका। कानून के शासन तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए अपराध की पूर्वधारणा का यह सिद्धांत पिछले एक दशक में न्याय़शास्त्र की नींव के रूप में उभरा है। इसके बावजूद निठारी के बच्चों को इंसाफ मिला? न्यायिक फैसले से ऐसा लगता है कि किसी ने उनका कत्ल नहीं किया। निठारी मामले में न्याय के लिए 17 साल तक की प्रतीक्षा पीड़ादायक तो थी, लेकिन फिर भी एक उम्मीद कायम थी। अब इस मामले में सभी अभियुक्तों के बरी होने से पीड़ितों के माता-पिता और उनके लिए इंसाफ की लड़ाई लड़ने वाले सभी लोग, जिसमें मैं भी शामिल हूं, भौंचक्के हैं।
न्याय का नकार समाज में एक शून्य छोड़ जाता है जो हमसे सवाल करता है कि आखिर हम हैं कौन! न्यायिक निवारण, दंड की कठोरता से ज्यादा उसकी निश्चितता में निहित है। न्याय के पहिये के घूमने का परिणाम पीड़ितों (एवं परिवारों) के लिए एक बुरे अध्याय की समाप्ति, अपराध करने वालों में सुधार और समाज के लिए निवारक के रूप में दिखना चाहिए।
ऐसे में निठारी के इन बच्चों के मामले तथा अदालतों में लंबित लाखों मामले जितने जवाब देते हैं, उससे ज्यादा सवाल खड़े करते हैं। समय हमारी सबसे बड़ी संपदा है तो सबसे बड़ा बोझ भी। एफआईआर दर्ज करने में, पुनर्वास में, मुआवजे में, पीड़ित की सुरक्षा में या पीड़ित के गवाहों को सुरक्षित जगह भेजने, उनकी चिकित्सा या मानसिक स्वास्थ्य सहायता या ऊपरी अदालतों में लंबित अपीलों को निपटाने में लगने वाला समय- ये सभी न्याय प्रदान करने की प्रक्रिया का हिस्सा हैं। इसमें किसी भी तरह की कोताही पीड़िता की पीड़ा को स्थायी बनाने वाली चूक मानी जाएगी।
न्याय में लगातार देरी एवं न्याय का नकार एक तरह से पीड़ित का दोबारा उत्पीड़न और उसके अधिकारों का हनन है। इससे सवाल उठता है कि सरकार अपनी जिम्मेदारी के तौर पर जो अधिकार प्रदान करता है वह नागरिकों पर एक कृपा है और वे महज न्याय के लाभार्थी हैं या न्याय हर नागरिक का वह जन्मसिद्ध अधिकार है जिसके साथ कोई समझौता नहीं हो सकता? यदि यह जन्मसिद्ध अधिकार है तो फिर इसमें किसी भी तरह की कोताही या नकार सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है और सामूहिक नाकामी है, जिसमें सरकार भी शामिल है। लिहाजा अब यह धारणा बदलनी चाहिए कि नागरिकों को न्याय देना अनुच्छेद 39 के तहत सरकार की जिम्मेदारी है और नागरिक महज सरकार की कृपा से न्याय के लाभार्थी हैं।
संविधान का अनुच्छेद 39 नीति निर्देशक तत्वों से संबंधित है और राज्य के दायित्वों एवं कर्तव्यों को परिभाषित करता है। यानी एक आम नागरिक की सुरक्षा और न्याय तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है। और इसके लिए जरूरी है कि संवैधानिक संशोधन के जरिए न्याय को मौलिक अधिकार के रूप में परिभाषित किया जाए। इसके बिना न्याय आम नागरिकों की पहुंच से दूर ही रहेगा।
जरूरत इस बात की है न्याय को मौलिक अधिकार (जो अन्य अंतर्निहित अधिकारों का हिस्सा नहीं हो) बनाया जाए। साथ ही एक संवैधानिक संशोधन के जरिए इस अधिकार को सुस्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाए। न्याय जो मौलिक अधिकार के तौर पर सिर्फ न्यायिक फैसलों की व्याख्या भर न हो, न्याय जो संविधान की प्रस्तावना में सन्निहित मूल्यों तक सीमित न हो, या अनुच्छेद 39 के तहत राज्य का दायित्व भर न हो, बल्कि यह बुनियादी मौलिक अधिकार के रूप में हो। यह न्यायपूर्ण समाज की हमारी उस धारणा पर आधारित हो जो अन्य मौलिक अधिकारों, कर्तव्यों, कानूनों की गंगोत्री है और जिससे इन पर अमल सुनिश्चित होता है।
इसका परिणाम यह होगा कि पीड़ित फिर से समाज की मुख्य धारा में जुड़ जाएंगे और मुकदमों की प्रक्रिया अपराध एवं दंड तक ही सीमित नहीं रहेगी। साथ ही, उन मामलों में जिसमें अपराधियों को सजा नहीं मिल पाई है, वे दफन नहीं हो जाएंगे। यदि एक अपराध हुआ है तो आरोपी भले ही बरी हो जाएं, मामला बंद नहीं होगा। जरूरत पड़ने पर नए सिरे से जांच की जा सकती है क्योंकि राज्य को हर हाल में यह सुनिश्चित करना है कि अपराधी बचकर निकलने न पाए और बरी होने का अर्थ मामला बंद होना नहीं है।
आजादी के तुरंत बाद लिखा गया और 1950 में अंगीकृत किया गया संविधान एक नवस्वतंत्र गणराज्य की तत्कालीन स्थितियों और आवश्यकताओं से संचालित था। इसने उस यात्रा और उसकी दिशा की बुनियाद रखी जिस पर चलकर हम इक्कीसवीं सदी में पहुंचे हैं। लेकिन आज हम ‘विश्व गुरु’ बनने की राह पर हैं तो अगले 75 वर्षों को भारत के उदय काल के तौर पर देखने का समय आ गया है।
‘सन 2100 का भारत’ बाइसवीं सदी में हमें एक ऐसे वैश्विक नेता के रूप में प्रतिष्ठापित करेगा जो न्याय को केंद्र में रखते हुए सभी नागरिकों के लिए समता, स्वतंत्रता, विकास और सुरक्षा सुनिश्चित करेगा। यह उस उम्मीद को जमीनी हकीकत में बदलने के प्रयासों की दिशा में अत्यावश्यक कदम होगा जो इन आपराधिक कानूनों को लाते समय सरकार ने जताई थी। अब, हम, भारत के लोगों को इस सपने को पूरा करना होगा।
(यहां व्यक्त विचार पूरी तरह लेखक के निजी विचार हैं।)