यह बात समझ से परे है कि शांति के मार्गदर्शक, महात्मा बुद्ध की इस पवित्र भारतभूमि पर हम छोटी-छोटी बातों में उलझाकर क्यों देश को शांति की धारा से इतर कहीं और मोड़ देने को आतुर हो जाते हैं? हमारा संविधान हमें स्वेच्छा से योग्य उम्मीदवार को इस उम्मीद से चुनने का अधिकार देता है कि वह देश—समाज का, एक-एक जीव का हित करेगा। समाज की बड़ी जिम्मेदारी का निर्वाह स्वयं विष पीकर दूसरों के लिए अमृत बांट कर करेगा। शायद भगत सिंह, बिस्मिल, बटुकेश्वर दत्त और न जाने असंख्य ऐसे देशभक्तों का हंसते हुए जान कुर्बान कर देना भी उनका यही भाव दर्शाता है।
महानायक नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने अपनी आईसीएस की डिग्री को परे धकेलकर देशसेवा के लिए देश की जनता को गुमनामी के अंधेरे से निकालने का स्वप्न देखा और साकार किया। पंडित जवाहरलाल नेहरू अपने पिता की जमी-जमाई वकालत और अपनी स्वयं की वकालत को छोड़कर क्रांतिकारियों की प्रथम पंक्ति में शामिल हो गए। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने बिना किसी लोभ के वकालत को ठुकरा दिया। महात्मा गांधी की तो बात ही क्या, जिन्होंने अपना सर्वस्व त्यागकर देश की आजादी के लिए खुद को झोंक दिया। धन्य थे वे महामानव। और अब?
दोनों ओर से तोड़ी जा रही भाषा की मर्यादा
संसद में खड़े होकर अमर्यादित भाषा का उपयोग किसी निर्वाचित सांसद के लिए करना, सूर्पनखा के विशेषण से भरी संसद में महिला को नवाजना, गोली मारो… को’, ‘पचास करोड़ की गर्ल फ्रेंड’ कहना, कांग्रेस की विधवा, हाइब्रिड बछड़ा, बटन इतनी जोर से दबाना कि जिससे लगे कि कांग्रेस को फांसी की सजा दी जा रही है, कांग्रेस के मूर्खों के सरदार, पढ़े-लिखे नेता को ‘पप्पू’ कह कर नकार देना, राहु-केतु आदि आदि से संबोधित करना!
कौन कहेगा कि यह मर्यादित और सभ्य समाज में सामान्य रूप से बोली जाने वाली भाषा है? इतनी अमर्यादित भाषा को अब तक मान्यता इसलिए मिलती रही है, क्योंकि सामान्य पढ़े—लिखे समाज के व्यक्ति चिढ़कर इसलिए चुप रहे, क्योंकि इसका उपयोग सत्तारूढ़ दल के ताकतवर नेताओं द्वारा किया जा रहा था। लेकिन, विपक्षी दल भी इसमें कहां पीछे हैंं?
राहुल गांधी को भी नहीं बोलना चाहिए था ‘पनौती’
ताजा उदाहरण राहुल गांधी का है। जब क्रिकेट विश्वकप में मिली हार का हवाला देकर प्रधानमंत्री को ‘पनौती’ बताया गया तो इसे क्या कहा जाएगा? यह देश के शीर्ष नेतृत्व के प्रति निश्चित रूप से अनुचित शब्द है। भाजपा ने इसकी शिकायत की है और राहुल गांधी को चुनाव आयोग द्वारा नोटिस जारी कर दिया गया है। देखना है कि राहुल गांधी माफी मांगते हैं या सफाई पेश करते हैं।
…पर सवाल यह है कि
लेकिन, एक सवाल तो यह भी उठता है कि जिसे सत्ताधारी भाजपा ‘पप्पू’ कह कर खारिज करती रही है, उसी राहुल गांधी की बात को भाजपा क्या गंभीरता से लेने लगी? उनके ‘पनौती’ कहने से क्या भाजपा प्रधानमंत्री को ‘पनौती’ समझने लगी जो चुनाव आयोग तक शिकायत लेकर पहुंच गई? क्या यह कहीं भाजपा के अंदरूनी कलह का परिणाम तो नहीं कि प्रधानमंत्री की छवि को बिगाड़ने की साजिश की जा रही हो? क्या प्रधानमंत्री की छवि वास्तविक नहीं है, प्रचार तंत्र के जरिए गढ़ी गई है?
हवा-हवाई बातें
बहरहाल, इस संदर्भ में थोड़ा पीछे चलते हैं। वर्ष 2013 में भाजपा के गोवा सम्मेलन के बाद तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने जब 2014 के लिए भाजपा के प्रधानमंत्री पद के चेहरे के रूप में नरेंद्र मोदी के नाम को अंतिम रूप दिया, तो प्रचार तंत्र और कॉरपोरेट घरानों ने अपनी नीति के अनुसार गुजरात मॉडल को तथाकथित विकास का मुद्दा बनाया, बेरोजगारी को मुद्दा बनाया, काले धन को स्विस बैंक से निकालकर प्रत्येक व्यक्ति के खाते में पंद्रह लाख रुपया नकद देने का लोभ दिया, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की बात को प्रचारित किया गया, जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को हटाने को मुद्दा बनाया गया। यह आम जनता को मोहित करने के लिए कम नहीं था। यह प्रचार इस तरह के विज्ञापनों के माध्यम से किया गया कि पूरे देश ने लोभ से ग्रसित होकर एक तरह से एकतरफा मतदान किया और भाजपा सत्ता में आई और पूर्व निर्धारित घोषणा के अनुसार प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी को शपथ दिलाई गई।
चुनावी वादे नहीं, जुमले
जब भाजपा की सरकार बन गई, तब देश ने पूछना शुरू किया कि उससे जो वादा किया गया था कि स्विस बैंक से कला धन निकालकर आम लोगों के खाते में जमा करा दिया जाएगा, प्रतिवर्ष दो करोड़ बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध कराया जाएगा, उसका क्या हुआ? तो देश के गृहमंत्री ने उसे चुनावी जुमला’ कहा और कहा कि इस तरह के वादे चुनाव में किए जाते हैं।
राष्ट्रवाद का मुद्दा चल गया
वर्ष 2019 में फिर लोकसभा चुनाव का वक्त आया। फिर 14 फरवरी, 2019 को जैश-ए-मोहम्मद के आतंकी हमले में पुलवामा में हमारे 40 जांबाज शहीद हो गए। भारत ने 12 दिन बाद ही बालाकोट में एयर स्ट्राइक किया। इसे भारत के ‘बदले’ के रूप में प्रचारित किया गया। भाजपा और खुद प्रधानमंत्री ने इस हमले को चुनाव में भुनाया और राष्ट्रवाद के नाम पर मतदाताओं ने फिर भाजपा को वोट किया। अब देखने वाली बात होगी कि भाजपा के पास 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए क्या मुद्दा होगा?

(यहां व्यक्त विचार पूरी तरह लेखक के हैं, जो वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)