क्या न्यायपालिका का रुख बदल रहा है? उसका ध्यान सुधारने के बजाय सजा देने पर चला गया है? ये सवाल कुछ हालिया घटनाओं और आंकड़ों से सिर उठा रहे हैं।
मानहानि का कितना मान?
मानहानि के मामले में निचली अदालत में दो साल की सजा पाने के बाद कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपील दायर कर दी है और 13 अप्रैल को अगली सुनवाई का इंतजार कर रहे हैं। इस बीच, इस बात पर बहस भी चल रही है कि दो साल की सजा कठोरतम तो नहीं है? कई कानूनी दिग्गज मान रहे हैं कि ऐसे मामलों में दो साल कैद की सजा जरूरत से ज्यादा मानी जाएगी, खास कर जब इसका असर और भी व्यापक (बतौर सांसद अयोग्यता और वर्षों चुनाव लड़ने पर पाबंदी) है।
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मदन बी. लोकुर का मानना है कि इस मामले में आनुपातिकता (Proportionality) के सिद्धांत की अनदेखी की गई है। बता दें कि राहुल गांधी को जो सजा सुनाई गई है, उससे ज्यादा सजा का प्रावधान ही नहीं है। हमारी न्यायपालिका का भी इस बात पर जोर रहा है कि न्याय व्यवस्था में सजा का मकसद सुधार हो न कि दंडित करना।
manupatrafast.com ने 2018 में देश के दस हाई कोर्ट में आपराधिक मानहानि (criminal defamation) के मामलों में सुनाए गए फैसलों का एक विश्लेषण किया था। इसके मुताबिक आईपीसी की धारा 499 के तहत केवल 14.29 फीसदी आरोपियों को ही दोषी पाया गया। 57.14 प्रतिशत फैसलों में मामला खारिज कर दिया गया।
राहुल गांधी का मामला तो राजनीतिक है। लेकिन, विशुद्ध गैरराजनीतिक मामलों में भी कई बार ऐसा साफ लगता है कि न्यायपालिका का सुधारात्मक पहलू कमजोर पड़ रहा है। यूएपीए कानून का ही उदाहरण लीजिए।
UAPA का कितना काम?
जुलाई 2022 में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने सदन में बताया था कि 2016 से 2020 के बीच यूएपीए के तहत 5027 केस दर्ज किए गए। इन सालों में केवल 212 लोगों को दोषी ठहराया जा सका।
इस कानून के प्रावधान इतने सख्त हैं कि अगर आप पर यूएपीए की धारा लग गई तो आप निर्दोष हैं, यह साबित करने की जिम्मेदारी पूरी तरह आप पर ही है। यह कहीं न कहीं, इस अवधारणा को ही कमजोर कर देता है कि जब तक दोष साबित न हो जाए, तब तक आप निर्दोष हैं। और, इस कानून का इस्तेमाल किस पैमाने पर हो रहा है, यह नीचे दिए आंकड़ों से समझा जा सकता है।

सुधार वाले कई प्रावधान
महात्मा गांधी ने कहा था कि आंख के बदले आंख की नीति पूरी दुनिया को अंधा बना देगी। उन्होंने अहिंसा और क्षमा की भावना की वकालत की थी और कहा था कि इन्हीं के दम पर भारत ने आजादी पाई है। ऐसी ही भावना भारत की न्याय व्यवस्था में भी शामिल की जानी चाहिए।
भारतीय कानून व्यवस्था में ऐसे कई प्रावधान देखने को मिलते हैं जिनसे इस बात को बल मिलता लगता है कि हमारी न्याय व्यवस्था में सजा से ज्यादा सुधार पर बल दिया गया है। पैरोल, प्रोबेशन, पार्डन (माफी) आदि ऐसे ही प्रावधान हैं।
समय-समय पर अदालती फैसलों के जरिए भी न्यायपालिका ने इस बात के मजबूत संकेत दिए हैं कि सजा से ज्यादा जोर सुधार पर रहना चाहिए और रहेगा। कुछ उदाहरण यहां देख सकते हैं। 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने गुलाब सिंह बनाम युवराज सिंह व अन्य के मामले में दिए गए फैसले में यह टिप्पणी की:

बुधि बनाम राजस्थान सरकार के मामले में राजस्थान हाईकोर्ट ने 2005 में मुजरिम को पैरोल दिए जाने का फैसला सुनाया था। कोर्ट ने आदेश में मार्टिन लूथर किंग का उद्धरण लिखा था- I have a dream to be free at last, to be free at last, to be free at last. जस्टिस आर.एस. चौहान ने इन पंक्तियों के साथ लिखा था- जेल की दीवारों के बीच, बेड़ियों में जकड़े सजायाफ्ता कैदी का भी अंतिम सपना आजाद होने का ही रहता है।

सुप्रीम कोर्ट का सुधारने पर जोर
सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में कहा था हमारा क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम सुधार पर जोर देता है। सजा देने का मकसद भी सुधार लाना है। हम कैदियों को दंड देना नहीं चाहते। उन्हें सुधार कर समाज में वापस भेजा जाना चाहिए और नीतियां भी इस बात को ध्यान में रख कर ही बननी चाहिए। ऐसे और भी कई उदाहरण हैं।
सजा-ए-मौत पाने वालों की बढ़ती संख्या
लेकिन आंकड़ों पर नजर डालें तो थोड़ा विरोधाभास नजर आता है। 2022 में निचली अदालतों में 165 दोषियों को सजा-ए-मौत सुनाई गई। एक साल में इतनी बड़ी संख्या में फांसी की सजा साल 2000 के बाद पहली बार सुनाई गई। 2022 में जिन मामलों में सजा-ए-मौत सुनाई गई, उनमें से आधे (51.28 प्रतिशत) यौन अपराधों से जुड़े थे।
दिसंबर 2022 तक देश में सजा-ए-मौत पाए कैदियों की संख्या 539 थी। यह पिछले सात सालों में सबसे ज्यादा है।

2022 में हाईकोर्ट ने सजा-ए-मौत के 68 मामले निपटाए, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने 11 में अंतिम फैसला दिया। हाईकोर्ट ने जो 68 मामले निपटाए, वे 101 कैदियों से जुड़े हैं। इनमें से तीन की सजा-ए-मौत पर मुहर लगी, 48 की फांसी की सजा उम्रकैद में बदल दी गई, 43 को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया और छह के केस वापस ट्रायल कोर्ट को भेज दिए गए। बॉम्बे हाईकोर्ट में एक ऐसा भी मामला आया जहां जज ने ट्रायल कोर्ट द्वारा डकैती और हत्या के मामले में दी गई उम्रकैद की सजा को फांसी में बदल दिया।
सुप्रीम कोर्ट में 15 कैदियों से जुड़े 11 केस का निपटारा हुआ। इनमें से पांच कैदी सभी आरोपों से बरी हो गए। 8 की सजा-ए-मौत को उम्रकैद में बदल दिया गया और दो को मिली फांसी की सजा बहाल रखी गई।
विचाराधीन कैदी बेल लेने में भी फेल
NCRB के आंकड़े बताते हैं कि 2021 में 77 फीसदी कैदी मुजरिम नहीं, बल्कि मुल्जिम (विचाराधीन कैदी) थे। यह आंकड़ा 2020 की तुलना में 15 फीसदी ज्यादा था। मेरे साथ एक इंटरव्यू में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस दीपक गुप्ता ने बेल देने में उदारता बरतने की जरूरत बताई थी। उन्होंने न्यायिक सुधार से जुड़े कुछ और उपाय भी सुझाए थे। देखें वीडियो:
क्या हो सुधार
मैंने कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मदन लोकुर से न्यायपालिका से जुड़े कई मुद्दों पर उनकी राय जानी थी। इनमें एक मुद्दा न्यायिक सुधार से भी जुड़ा था। देखिए, उनका इंटरव्यू