भारत में सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर लम्बे वक्त तक समाज के विभिन्न वर्ग के मनोरंजन का एक मुख्य जरिया रहा। केबल टीवी आया, इंटरनेट आया, मल्टीप्लेक्स आया लेकिन सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल का चलता रहा।
कमाई कुछ कम हुई, कहीं-कहीं कुछ सिनेमा हॉल बंद भी हुए। लेकिन उसके युग के अंत की घोषणा नहीं हुई। 2016 तक यशराज फिल्म्स के एसोसिएट वाइस प्रेसिडेंट रोहन मल्होत्रा बीबीसी को बताते हैं कि फिल्मों की कुल कमाई में सिंगल स्क्रीन थिएटर का हिस्सा 10 से 15 फीसदी है।
फिर दुनिया में कोरोना महामारी ने दस्तक दी। भारत भी उसका शिकार हुआ। लंबे लॉकडाउन ने कई क्षेत्रों की तरह इसे भी प्रभावित किया। कम पूंजी के साथ अपने अस्तित्व को बचाने के लिए पहले से ही जूझ रहा सिंगल स्क्रीन सिनेमा का कारोबार बिखर गया। एक झटके में थिएटर, टॉकीज जैसे नाम इतिहास बन गए।
फोटग्राफर हेमंत चतुर्वेदी की एक रिसर्च के मुताबिक, साल 1990 में भारत में 24,000 सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर थे, 2022 में सिर्फ 6000 बचे हैं। दिल्ली में करीब 80 सिंगल स्क्रीन थिएटर हुआ करते थे, अब सिर्फ तीन बचे हैं, जो किसी भी दिन बंद हो सकते हैं।
एक ऐसा देश जहां लोग दशकों तक मनोरंजन के लिए सिनेमाघरों पर निर्भर रहे, ये आंकड़े एक युग के अंत की पुष्टि करता है। भारत में फिल्म देखना एक निष्क्रिय गतिविधि नहीं थी। फिल्म के दौरान हूटिंग, सीटी बजाना, ताली बजाना और सिक्का उछालना आम बात थी।
फिल्म हिट तभी मानी जाती थी जब दर्शक थिएटर की क्षमता से ज्यादा हो जाते थे, सीट न मिलने पर खड़े-खड़े फिल्म देखते थे, गलियारों में डांस किया करते थे। साल 1907 में कोलकाता में भारत के पहले सिंगल-स्क्रीन थिएटर की शुरुआत हुई थी। अब उसका आखिरी वक्त चल रहा है। जब सिंगल-स्क्रीन थिएटर अपने उरूज पर था, तब बड़े नेताओं के मनोरंजन का एक मात्र अड्डा हुआ करता था।
दिल्ली का रीगल सिनेमा हॉल
हाल में दिल्ली उच्च न्यायालय ने रीगल सिनेमा की संरचनात्मक अखंडता को सुरक्षित रखने के लिए मरम्मत का आदेश दिया। 31 मार्च 2017 को दिल्ली का ऐतिहासिक रीगल सिनेमा बंद गया था। साइन ऑफ के रूप में वहां राज कपूर की फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ दिखाया गया था। 1932 में रीगल की शुरुआत हुई थी। पृथ्वीराज कपूर वहां अपना शो भी किया करते थे।
जब राज कपूर एक अभिनेता और निर्देशक के रूप में बड़े हुए तो यह सुनिश्चित किया कि उनकी सभी फिल्में रीगल में दिखाई जाएं। इस सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल में लुई माउंटबेटन, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजेंद्र प्रसाद और जाकिर हुसैन भी आया करते थे। नेहरू का तो यह पसंदीदा थिएटर था।
द हिंदू में प्रकाशित पत्रकार ज़िया उस सलाम के लेख से पता चलता है कि इंदिरा गांधी को पहाड़गंज का शीला सिनेमा पसंद था। वहीं डॉ राजेंद्र प्रसाद डिलाइट थिएटर में जाया करते थे।
टिकट नहीं मुहर
ज़िया उस सलाम के लेख में ही एक और किस्सा मिलता है। वह लिखते हैं, ”दिल्ली के सब्जी मंडी इलाके में रॉबिन सिनेमा नाम का एक सिंगल स्क्रीन सिनेमा हुआ करता था। यह मेन रोड से देखने पर इतना छोटा मालूम पड़ता था कि अगर कोई तेजी से निकले तो उसकी नजर भी न पड़े। इस सिनेमा हॉल में फिल्म देखने के लिए कोई टिकट नहीं कटता था। न ही एडवांस बुकिंग होती थी।
फिल्म शुरु होने से कुछ मिनट पहले टिकट खिड़की पर लोगों की लाइन लगती थी। वे फिल्म के लिए टिकट की राशि देते थे लेकिन उन्हें कोई टिकट नहीं मिलता था। इसके बजाए एक आदमी उनकी कलाई पर मुहर लगा देता था। यही सिनेमा हॉल में एंट्री का पास होता था। दर्शकों में अधिकांश लोग अप्रवासी श्रमिक हुआ करते थे।”