हालिया राजनीतिक घटनाओं में सत्ता-पक्ष की नियुक्तियों, हरियाणा के नए जिलों और विपक्ष की चुनौतियों ने देश की राजनीति में हलचल मचा दी है। नेताओं की रणनीतियों और विरोधी रुखों से यह साफ है कि आगामी चुनाव और फैसले नए राजनीतिक समीकरण बना रहे हैं।

सत्ता का साथ

उत्तर प्रदेश शिक्षा सेवा चयन आयोग के अध्यक्ष पद पर सेवानिवृत्त आइपीएस अधिकारी प्रशांत कुमार को नियुक्त कर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दोहरा संदेश देने की कोशिश की है। पहला यह कि वे जिन अधिकारियों से खुश होते हैं उन्हें सेवानिवृत्त होने के बाद भी किसी न किसी तरह उपकृत जरूर करते हैं, भले उनके इस एजंडे में केंद्र सरकार सहयोग न करे। दूसरा संदेश यह कि सरकार के कामकाज में कोर कमेटी में मंत्रणा की पार्टी की नीति की वे परवाह नहीं करते। प्रशांत कुमार को योगी डीजीपी पद पर सेवा विस्तार देना चाहते थे। पर केंद्र ने इसके लिए स्वीकृति नहीं दी। लिहाजा उन्हें 2023 में बने शिक्षा सेवा चयन आयोग का अध्यक्ष बना दिया। इस आयोग की अध्यक्ष कीर्ति पांडे थीं। उनका दो साल का कार्यकाल बचा था। लेकिन कीर्ति पांडे से सितंबर में त्यागपत्र ले लिया गया। नई नियुक्ति के लिए जो विज्ञापन जारी हुआ उसमें, प्रशांत कुमार की अर्हता नहीं बन रही थी। लिहाजा दोबारा विज्ञापन जारी हुआ। उनकी आइएएस पत्नी को भी सेवानिवृत्त होने के बाद योगी ने लाभ का पद दिया था। शिक्षा सेवा आयोग में अमूमन शैक्षिक क्षेत्र के लोग नियुक्त होते हैं। दो सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारियों-मनोज कुमार और अवनीश अवस्थी को भी योगी ने लाभ के पदों पर तैनात किया, जिन्हें सेवा विस्तार दिलाने में वे नाकाम रहे थे। साथ निभाने में योगी की बात निराली है।

जिले का जन्म

नायब सिंह सैनी ने भी अपना नाम हरियाणा के उन मुख्यमंत्रियों की सूची में शामिल करा ही लिया, जिन्होंने नए जिले बनाए। इस मंगलवार को उन्होंने हांसी को हरियाणा का 23वां जिला घोषित कर दिया। अभी तक हांसी हिसार जिले का हिस्सा था। पंजाब के पुनर्गठन के बाद जब 1966 में हरियाणा अलग राज्य बना था तो उसमें कुल सात जिले थे। सबसे ज्यादा छह जिले बनाए बंसीलाल ने। इस होड़ में भजन लाल, देवीलाल और भूपिंदर हुड्डा भी पीछे नहीं रहे।

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पानीपत को 1989 में जिला बनाया देवी लाल ने, लेकिन कुछ दिन बाद करनाल में मिला दिया। बाद में 1992 में फिर जिला बनाया गया। छह साल मुख्यमंत्री रहकर भी ओमप्रकाश चौटाला ने कोई नया जिला नहीं बनाया। नए जिले बनाने वाले मुख्यमंत्रियों के बारे में एक मान्यता भी है कि उन्हें अगले चुनाव में सरकार जोड़तोड़ से बनानी पड़ी, क्योंकि बहुमत नहीं मिला।

जवाब चाहिए तो प्रधानमंत्री बनाइए

विपक्ष ने लोकसभा सत्र के खत्म होते-होते मनरेगा का नाम बदलने वाले कानून को बड़ा मुद्दा बनाया। इस कानून को केंद्र सरकार ने पारित भी कर दिया। जबकि इससे पहले तक देश के चुनावी राज्यों में नई मतदाता सूची और प्रदूषण बड़ा मुद्दा था। इस पर विपक्ष लगातार सरकार से जवाब मांग रहा था। इस मामले में कांग्रेस के एक सांसद से संसद में पूछा गया कि राहुल गांधी केवल सत्ता-पक्ष पर सवाल उठाते हैं और उनकी बात का जवाब नहीं देते। सांसद ने कहा कि राहुल गांधी नेता प्रतिपक्ष हैं, और उनका काम सवाल पूछना है। उनके सवालों का जवाब सरकार को देना चाहिए। अगर सत्ता-पक्ष को राहुल गांधी से सवालों का जवाब चाहिए तो उन्हें प्रधानमंत्री बना दो, हर सवाल का जवाब मिलेगा।

थम गए कदम

शशि थरूर की गतिविधियों पर सबकी नजर है। उनके मुंह से निकले हर शब्द के अलग-अलग खेमों में अपने तरीके से मायने निकाले जाते हैं। एक पखवाड़े पहले तक लग रहा था कि शशि थरूर कभी भी कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थाम सकते हैं। पर अचानक उनके रुख में बदलाव दिखा है। पहले उन्होंने वीर सावरकर पुरस्कार लेने से इंकार किया। कहा कि पुरस्कार देने वाली संस्था ने उनसे सहमति नहीं ली। यह पुरस्कार भाजपा के बड़े नेताओं के हाथों दिया जाना था। उधर संस्था के पदाधिकारी सफाई दे रहे हैं कि थरूर ने सहमति दी थी। मनरेगा की जगह ‘जी राम जी’ विधेयक लाने के केंद्र सरकार के कदम का भी उन्होंने खुलकर विरोध किया।

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सोशल मीडिया पर भी लिखा और संसद में भी आपत्ति जताई। कहा कि ‘राम का नाम बदनाम ना करो।’ परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में निजी कंपनियों को मंजूरी देने वाले विधेयक का भी संसद में थरूर ने विरोध किया। हकीकत यह है कि केरल में स्थानीय निकाय चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन शानदार रहा है। बस तिरुवनंतपुरम में ही भाजपा ने बेहतर किया है, जहां से थरूर चौथी बार सांसद हैं। लगता है कि थरूर ने आकलन किया होगा कि केरल में अगली सरकार कांग्रेस की ना बन जाए। केरल में वाम और कांग्रेस की अगुआई वाली सरकारों की अदला-बदली चलती रहती है। थरूर को अहसास हो रहा है कि केरल में बदलाव हो सकता है, इसलिए अभी उनका दल बदलना सही नहीं है।

उपेक्षा का दर्द

लगता है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह का भाजपा से मोह भंग हो रहा है। अन्यथा वे क्यों कहते कि भाजपा का नजरिया कठोर है। साथ ही कहा कि भाजपा से कहीं ज्यादा लचीला नजरिया तो कांग्रेस का था, जहां निर्णय परामर्श से लिए जाते हैं। कैप्टन अमरिंदर सिंह दो बार पंजाब के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उन्होंने खुद को मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के कारण 2021 में कांग्रेस छोड़कर अपनी अलग पार्टी ‘पंजाब लोक कांग्रेस’ बनाई थी, जिसका अगले ही साल 2022 में भाजपा में विलय कर लिया गया था।

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विधानसभा का पिछला चुनाव वे हार गए थे। फिलहाल भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं, लेकिन पार्टी में अपनी अनदेखी से दुखी बताए जा रहे हैं। तभी तो उन्होंने फरमाया है कि देश के दूसरे इलाकों में बढ़ रही भाजपा की रफ्तार पंजाब में थमी हुई है, क्योंकि पंजाब का मिजाज अलग है। हकीकत यह है कि अगले साल होने वाले राज्य विधानसभा चुनाव को देखते हुए भाजपा अपनी रणनीति पर नए सिरे से विचार कर रही है और शिरोमणि अकाली दल से फिर हाथ मिला सकती है। अगर ऐसा हुआ, तब अमरिंदर क्या करेंगे?