वर्तमान में गणेश उत्सव महाराष्ट्र में सबसे धूमधाम से मनाया जाने वाला त्योहार है। इसे एक सामूहिक लोक पर्व के रूप में ख्याति दिलाने का श्रेय लोकमान्य बाल गंंगाधर तिलक के नाम है। तिलक ने जब गणेश उत्सव को लोकप्रिय बनाया, उससे पहले वह मुहर्रम के जुलूस में शामिल हुआ करते थे। इस जुलूस को भी वही ख्याति और लोकसमर्थन हासिल था, जो आज गणपति पूजन के लिए देखने को मिलता है।
उस समय मुहर्रम बॉम्बे प्रेसीडेंसी का सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम हुआ करता था। सभी जाति-धर्म के लोग मुहर्रम के जुलूस में शामिल हुआ करते थे। मराठी पत्रकार धवल कुलकर्णी पुणे के इतिहास प्रेमी संदीप गोडबोले के हवाले से लिखते हैं कि तब मुहर्रम का ताजिया (हजरत इमाम हुसैन के मकबरे की प्रतिकृति) खासगीवाले और कुंजिर जैसे प्रमुख और कुलीन परिवारों की हवेली में रखा जाता था। इतना ही नहीं। बाजीराव-द्वितीय के बनवाए शुक्रवार वाडा में भी ताजिया स्थापित करने की प्रथा थी।
मुहर्रम की लोकप्रियता का उल्लेख करते हुए स्कॉलर शंकर रामचन्द्र राजवाड़े लिखते हैं, “लोखंडे तालीम (एक अखाड़ा) के प्रसिद्ध पहलवान भीकोबदादा अगाशे अपने शिष्यों के साथ पुणे में घोडेपीर दरगाह के ताजिया जुलूस से पहले लेज़िम (एक तरह का शारीरिक व्यायाम) का प्रदर्शन करते थे। घोडेपीर का जुलूस इतना लोकप्रिय था कि उस पर बरसने वाली रेवड़ियों को इकट्ठा करने के लिए एक बैलगाड़ी उसके साथ घूमती थी।
मुहर्रम की लोकप्रियता और स्वीकार्यता का आलम यह था कि ‘लोकमान्य’ यानी लोगों का नेता कहने जाने वाले प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और केसरी अखबार के संपादक बाल गंगाधर तिलक भी मुहर्रम जुलूस में शामिल होते थे। 1892 की एक तस्वीर में तिलक को पुणे के बुधवार चौक पर मुहर्रम जुलूस में भाग लेते देखा जा सकता है। इस तस्वीर का अब ऐतिहासिक दस्तावेज की तरह उपयोग होता है।
हालांकि 1893 के हिंदू-मुस्लिम दंगे के बाद सब कुछ बदल गया। सांप्रदायिक तनाव के बाद हिंदुओं ने मुहर्रम मनाने से इनकार कर दिया। 1894 में पुणे में ताजियों की संख्या पिछले वर्ष की लगभग 300-400 की तुलना में घटकर मात्र 50-75 रह गई थी। इसी वर्ष से बाल गंगाधर तिलक ने उस गणेश पूजा को लोक उत्सव के रूप में बढ़ावा देना शुरू किया, जो तब उच्च जातियों के परिवारों के बीच मनाया जाने वाला त्योहार था। जल्द ही गणेश उत्सव ने लोकप्रियता में मुहर्रम का स्थान ले लिया। संयोग से मुहर्रम की तरह गणेश उत्सव भी जुलूस के साथ संपन्न होता है।
दंगा क्यों हुआ?
दंगा अगस्त 1893 में हुआ था। मुंबई के पायधोनी में एक हनुमान मंदिर में संगीत बजाए जाने के बाद हिंदू-मुस्लिम आपस में भिड़ गए थे। यह शहर का पहला बड़ा सांप्रदायिक दंगा था, जो उत्तरी महाराष्ट्र के रावेर और येओला तक फैल चुका था। दस्तावेज बताते हैं कि करीब 75 लोग मारे गए थे। बाद में सेना की मदद से दंगे पर काबू पाया जा सका था।
केसरी और मराठा अखबारों के संपादक के रूप में बाल गंगाधर तिलक ने इस बात पर जोर दिया कि सांप्रदायिक संघर्ष के दौरान अंग्रेजों को निष्पक्ष रहना चाहिए। उन्होंने हिंदुओं द्वारा किए हमले को आत्मरक्षा में की गई कार्रवाई बताया। तिलक ने उस दंगे के लिए गवर्नर लॉर्ड हैरिस को दोषी ठहराया था।
तिलक के जीवनीकार सदानंद मोरे बताते हैं कि ऐसा लग सकता है कि तिलक मुसलमानों का विरोध कर रहे थे। लेकिन उनकी असली लड़ाई अंग्रेजों से थी। वह अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को चुनौती दे रहे थे।