न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) के लिए कानून बनाने, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने सहित कई मांगों के साथ किसान दिल्ली आ रहे हैं।

पंजाब-हरियाणा और यूपी के किसानों को रोकने के लिए दिल्ली की सीमाओं को छावनी में बदल दिया गया है। केंद्र सरकार ने अपनी तरफ से कई तरह के बंदोबस्त किए हैं। लेकिन किसान तमाम बाधाओं का पार करते हुए आगे बढ़ रहे हैं।

ये सब ‘किसान मसीहा’ चौधरी चरण सिंह और ‘हरित क्रांति के जनक’ एम एस स्वामीनाथन को भारत रत्न से सम्मानित किए जाने की घोषणा के महज कुछ दिन बाद हो रहा है।

किसानों के लिए क्या चाहते थे चौधरी चरण सिंह?

किसान नेता और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का मानना था कि कृषि विभाग में ऐसे अधिकारी हैं जो जौ के पौधे और गेहूं के पौधे के बीच अंतर नहीं कर सकते हैं। सिंचाई विभाग में ऐसे अधिकारी हैं जो नहीं जानते कि किसी फसल को कब और कितना पानी दिया जाता है।”

चरण सिंह ने मार्च 1947 में ‘Why 60% of Services Should Be Reserved for Sons of Cultivators’ शीर्षक से एक दस्तावेज़ तैयार किया था। चरण सिंह चाहते थे कि 60 प्रतिशत सरकारी नौकरी और सरकारी शिक्षण संस्थानों की सीटों को किसान परिवारों के लिए आरक्षित कर दिया जाए। चरण सिंह ऐसा इसलिए चाहते थे ताकि किसानों पर आश्रित बच्चों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सके।

सबसे पहले कब की थी किसानों के लिए कोटे की मांग?

द इंडियन एक्सप्रेस पर प्रकाशित अपनी एक रिपोर्ट में हरीश दामोदरन बताते हैं कि चरण सिंह ने किसानों के लिए कोटा की मांग सबसे पहले अप्रैल 1939 में उत्तर प्रदेश (तत्कालीन संयुक्त प्रांत) कांग्रेस विधायक दल की कार्यकारी समिति के समक्ष की थी। तब उन्होंने 50% का प्रस्ताव रखा था। सिंह के इस प्रस्ताव का विरोध हुआ था। लेकिन विरोध का कारण कोटा की मांग नहीं बल्कि सिर्फ ‘किसानों के बच्चों’ के लिए कोटा की मांग थी।

सिंह ने अपने प्रस्ताव में भूमिहीन मजदूरों को शामिल नहीं किया था, जो 1951 की जनगणना में कुल कृषि कार्यबल का 28.1% थे। प्रस्ताव का विरोध होने पर सिंह ने कहा था कि मुझे जोत वाले किसानों के साथ कृषि मजदूरों को शामिल करने में कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन उस स्थिति में मैं 60 प्रतिशत के बजाय 75 प्रतिशत कोटा की मांग रखूंगा।

सिंह स्पष्ट थे कि उनका प्रस्ताव जातिगत आरक्षण को लेकर नहीं है, बल्कि जमीन जोतने वालों को प्रतिनिधित्व देने को लेकर है, चाहे वे किसी भी समुदाय के हों।

चरण सिंह की मांग की धमक आज भी सुनाई देती है। आए दिन जाट, मराठा, पाटीदार और कापू जैसी जमींदार किसान जातियां खुद को आरक्षण का हकदार बताते हुए ओबीसी दर्जे की मांग करती हैं।

सिंह एक जाट थे, लेकिन उन्होंने कभी खुद को उस समुदाय के व्यक्ति के रूप में पेश नहीं किया। उन्होंने कृषकों के पूरे वर्ग, विशेष रूप से मुस्लिम, अहीर (यादव), जाट, गुज्जर और राजपूत समुदाय के मध्यम वर्गीय किसानों के हक की बात की। अपनी इस नीति से उन्होंने सिर्फ जाट ही नहीं, बल्कि इन सभी जातियों के किसानों को अपना प्रिय बना लिया।

मंडल आयोग का समर्थन लेकिन जाति आधारित आरक्षण के खिलाफ!

चरण सिंह मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सरकार में केंद्रीय गृह मंत्री थे, जिसने जनवरी 1979 में बीपी मंडल के नेतृत्व में पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया था। इस आयोग ने दिसंबर 1980 में अपनी रिपोर्ट पेश की थी, जिसके आधार पर वीपी सिंह की सरकार ने ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) समुदायों के लिए 27% आरक्षण (सरकार नौकरी और उच्च शिक्षा में) की घोषणा की थी।

मंडल आयोग के गठन का समर्थन करने के बावजूद चरण सिंह ने जोर देकर कहा था कि किसानों के लिए आरक्षण का जाति से कोई लेना-देना नहीं है। वह चाहते थे कि दलितों और आदिवासियों को छोड़कर किसी भी उम्मीदवार से उसकी जाति के बारे में पूछताछ नहीं की जानी चाहिए।

सिंह का मानना था कि भारतीय समाज दो भागों में बंटा हुआ है- शहर में रहने वाले लोगों और गांव में रहने वाले किसानों। शहरी लोगों को लेकर उनका कहना था कि “वह गरीब किसानों पर अपना प्रभुत्व जमाते हैं और…कृषकों की परेशानियों के प्रति बहुत कम सहानुभूति रखते हैं। शहर में पला-बढ़ा गैर-कृषक गांव के अपने गरीब देशवासी को उसी तिरस्कारपूर्ण लहजे में ‘देहाती’ और ‘गंवार’ कहता है, जैसे यूरोप का कोई मूलनिवासी भारतीयों को अपमानित करने के लिए कहता है।”

किसान नेता ने यह उस परिपेक्ष में कहा था जब भारत में खेती से टोटल वर्कफोर्स के 70 प्रतिशत लोगों को रोजगार मिलता था। 1950-51 में खेती से कुल जीडीपी का 54% आता था।

एक सर्वे के बाद कोटे की मांग में आई तेजी

चरण सिंह 1961 के एक सर्वेक्षण से आश्चर्यचकित रह गए जिसमें भारतीय प्रशासनिक सेवा के केवल 11.5% अधिकारी कृषि पारिवारिक पृष्ठभूमि वाले थे और 45.8% के पिता सरकारी कर्मचारी थे। इसलिए उन्होंने न केवल किसानों के बच्चों के लिए 60% आरक्षण का प्रस्ताव रखा, बल्कि उन लोगों को सरकारी नौकरियों के लिए अयोग्य घोषित करने को कहा, जिनके माता-पिता पहले ही सरकार नौकरी से लाभान्वित हो चुके थे।