सिख साम्राज्य के संस्थापक रणजीत सिंह का जन्म 13 नवंबर 1780 को गुजरांवाला में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। पहले पंजाब में कई शक्तिशाली सरदारों का शासन था। पूरा क्षेत्र हिस्सों में विभाजित था। सरदार अक्सर आपस में लड़ते रहते थे। 1799 में लाहौर पर विजय प्राप्त करने के बाद रणजीत सिंह ने सदरादों के शासन को उखाड़ फेंका और एकीकृत सिख साम्राज्य की स्थापना की।

उन्हें पंजाब का शेर-ए-पंजाब की उपाधि दी गई क्योंकि उन्होंने लाहौर में अफगान आक्रमणकारियों को रोका। उनकी मृत्यु तक लाहौर साम्राज्य की राजधानी बनी रही। उनकी मृत्यु भी 27 जून, 1839 को लाहौर में ही हुई थी।

रणजीत सिंह के सेनापति हरि सिंह नलवा ने खैबर दर्रे के मुहाने पर जमरूद का किला बनवाया, यही मार्ग विदेशी शासकों ने भारत पर आक्रमण करने के लिए अपनाया था। अपनी मृत्यु के समय, वह भारत में बचे एकमात्र स्वतंत्र शासक थे, बाकी सभी किसी न किसी तरह से ईस्ट इंडिया कंपनी के नियंत्रण में आ गए थे।

एशिया की सबसे शक्तिशाली स्वदेशी सेना

रणजीत सिंह ने उस समय एशिया की सबसे शक्तिशाली स्वदेशी सेना खड़ी की थी। उनकी सेना में पश्चिमी आधुनिकता और पारंपरिक खालसा सेना के मजबूती, दोनों थी। उन्होंने अपने सैनिकों को प्रशिक्षित करने के लिए बड़ी संख्या में यूरोपीय, विशेषकर फ्रांसीसी अधिकारियों को भी नियुक्त किया था। उन्होंने अपनी सेना को आधुनिक बनाने के लिए फ्रांसीसी जनरल जीन फ्रैंक्विस एलार्ड को नियुक्त किया।

पंजाब विश्वविद्यालय में इतिहास की प्रोफेसर एमेरिटा डॉ. इंदु बंगा ने बताती हैं कि रणजीत सिंह की सेना ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा खड़ी की गई सेना के बराबर थी। बंगा कहती हैं, रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद हुए एंग्लो-सिख युद्धों में से दूसरे चिलियानवाला की लड़ाई के दौरान अंग्रेजों को भारत में अपने पूरे इतिहास में सबसे अधिक अधिकारियों का नुकसान सहना पड़ा था।

पेशावर से लद्दाख तक फैली थी साम्राज्य की सीमाएं

रणजीत सिंह का साम्राज्य कई राज्यों तक फैला हुआ था। उनके साम्राज्य में लाहौर और मुल्तान के पूर्व मुगल प्रांतों के अलावा काबुल का कुछ हिस्सा और पूरा पेशावर शामिल था। उनके राज्य की सीमाएँ लद्दाख तक जाती थीं। जम्मू के एक सेनापति ज़ोरावर सिंह ने रणजीत सिंह के नाम पर लद्दाख पर विजय प्राप्त की थी। उनके शासनकाल के दौरान, पंजाब छह नदियों की भूमि थी, छठी सिंधु नदी थी।

हरिमंदिर साहिब गुरुद्वारा को स्वर्ण मंदिर बनाने वाले

महाराजा रणजीत सिंह अपने न्यायपूर्ण और धर्मनिरपेक्ष शासन के लिए जाने जाते थे। उनके दरबार में हिंदू और मुस्लिम दोनों को ऊंचे पद दिए गए थे। सिखों को रणजीत सिंह पर गर्व है क्योंकि उन्होंने अमृतसर के हरिमंदिर साहिब को सोने से मढ़वाकर स्वर्ण मंदिर में बदल दिया। मंदिर के गर्भगृह के ठीक दरवाजे पर एक पट्टिका है जिसमें बताया गया है कि कैसे 1830 ई. में महाराजा ने 10 वर्षों तक सेवा की थी। उन्हें महाराष्ट्र के नांदेड़ में गुरु गोबिंद सिंह के अंतिम विश्राम स्थल पर हजूर साहिब गुरुद्वारे के वित्तपोषण का श्रेय भी दिया जाता है।

महाराजा का निजी जीवन

रणजीत सिंह ने पहली बार कोई लड़ाई तब लड़ी जब वह केवल 10 वर्ष के थे। 17 वर्ष की आयु में उन्होंने अफगानिस्तान के राजा ज़मान शाह दुर्रानी के भारत पर आक्रमण को विफल कर दिया।

सिंह को बचपन में ही चेचक हो गया गया था, जिससे उनकी एक आंख चली गई। 1801 में केवल 20 वर्ष की आयु में उन्हें महाराजा का ताज पहनाया गया। रणजीत सिंह के आठ बेटे थे, लेकिन उन्होंने केवल खड़क सिंह और दलीप सिंह को ही अपना जैविक पुत्र (Biological Son) माना।

इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सिंह ने बहुत कम उम्र में शराब पीना शुरू कर दिया था क्योंकि उस समय शराब पीना गर्व की बात मानी जाती थी। उनकी 20 पत्नियां थीं।

महाराजा रणजीत सिंह को कोह-ए-नूर हीरे के कब्जे के लिए याद किया जाता है, जिसे उन्होंने ओडिशा के जगन्नाथ मंदिर में छोड़ दिया था और यह उन्हें अफगानिस्तान के शुजा शाह दुर्रानी ने दिया था।

2003 में महाराजा रणजीत सिंह के सम्मान में भारत की संसद में उनकी 22 फीट ऊंची कांस्य प्रतिमा स्थापित की गई थी। न केवल भारत में बल्कि सेंट ट्रोपेज़ नामक एक फ्रांसीसी शहर में, जिसका पंजाब के साथ सैन्य संबंध था, 2016 में रणजीत सिंह की एक कांस्य प्रतिमा स्थापित की गई थी।