चुनावी बॉन्ड से किसने, किसको, कितना चंदा दिया? इस सवाल का जवाब अगर आज कोई नागरिक जानना चाहे तो नहीं जान सकता, क्योंकि चुनावी बॉन्ड से जुड़े नियम में यह व्यवस्था है कि चंदा देने वाले का नाम गुप्त रहेगा। आगे भी यह गोपनीयता बनी रहेगी या लोग इलेक्टोरल बॉन्ड से चंदा देने वालों के बारे में जान सकेंगे, यह सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर निर्भर करेगा। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर सुनवाई चल रही है। इस बीच, पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में इस विषय पर एक लेख लिखा है। इसमें उन्होंने कहा है कि पहले तो चुनाव आयोग भी इलेक्टोरल बॉन्ड के विरोध में बोलता रहा था, लेकिन फिर रहस्यमय कारणों से आयोग ने इस मसले पर चुप्पी साध ली।
इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ी गोपनीयता पर लवासा की राय
पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने इलेक्टोरल बॉन्ड सिस्टम के तहत चंदा देने वालों की पहचान न उजागर की नीति पर सवाल उठाया है। उन्होंने लिखा है कि राजनीतिक फंडिंग के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड के इस्तेमाल को लेकर कोई सवाल नहीं है। लेकिन जानकारी को सार्वजनिक नहीं करने पर पारदर्शिता के सिद्धांत और सूचना के अधिकार (RTI) अधिनियम के विपरीत होने पर सवाल उठाया गया है। … राजनीतिक दलों ने खुद को आरटीआई अधिनियम के दायरे में लाए जाने का लगातार विरोध किया है, जो उनकी इरादे के बारे में बहुत कुछ बताता है। भारत के चुनाव आयोग ने भी लगातार चुनावी बांड के खिलाफ तर्क दिया था, लेकिन बाद में रहस्यमीय कारणों से साध ली चुप्पी।
लावासा इस मामले में पहले हुई सुनवाई को याद करते हुए लिखते हैं, “पिछली सुनवाइयों में भी सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड को लेकर कड़े सवाल पूछे थे। कोर्ट ने यह जानना चाहा था कि इस अपारदर्शिता का आखिर क्या करा है। साथ ही अदालत ने चंदा दाताओं के इरादे पर सवाल उठाने वाले याचिकाकर्ताओं के बिंदुओं पर भी ध्यान दिया था। हालांकि न्यायालय ने चुनावी बांड पर रोक लगाने या उसे अमान्य करने से परहेज किया, जिससे सभी को आश्चर्य हुआ। इस बार सुप्रीम कोर्ट क्या करता है, ये देखना होगा। क्या कोर्ट यह देखेगा कि बिना पारदर्शिता के टैक्स में छूट देने उचित सार्वजनिक नीति है या नहीं? क्या ऐसे कर-मुक्त धन को प्राप्तकर्ता बिना खर्च किए हमेशा के लिए अपने पास रख सकता है? इस तर्क में दम है कि चुनावी बांड एक अधिकृत माध्यम है जो नकदी के विकल्प के रूप में काम करता है। लेकिन गोपनीयता का तर्क इसे भ्रमित करने वाला बना देता है।”
लावासा कुछ गंभीर सवाल भी उठाते हैं, “यह गुप्त “बंधन” एक उल्टा सवाल भी पैदा करता है: ऐसा क्यों है कि भारत में लोग गुप्त रूप से लोकतंत्र के लिए योगदान देना पसंद करते हैं? आख़िरकार, लोकतंत्र भी जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण संरक्षण या बेघरों और अशक्तों की देखभाल करने जैसा ही एक सार्थक मुद्दा है और एक ईमानदार नागरिक को इस तरह के मुद्दे से जुड़कर खुशी होगी। क्या ऐसे योगदानों को टैक्स फ्री करने के पीछे यही सिद्धांत नहीं है? हम एक समाज के रूप में ऐसे क्यों हैं कि जो लोग इसे वित्तपोषित करते हैं वे अपना योगदान छिपाना चाहते हैं और हमारी राजनीतिक व्यवस्था इसका समर्थन क्यों करती है?”
सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर पर चुनाव आयोग का रिमाइंडर
चुनावी बॉन्ड से जुड़ी जानकारी जनता के साथ साझा करना तो दूर, चुनाव आयोग को भी देने में पार्टियां तत्पर नहीं लगतीं। शायद तभी चुनाव आयोग को इसके लिए रिमाइंडर जारी करना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट ने 3 नवंबर को चुनाव आयोग से कहा है कि वह दो हफ्ते के भीतर पार्टियों द्वारा इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए जुटाए चंदे का ताजा ब्योरा पेश करे। इस आदेश की तामील के लिए चुनाव आयोग ने 14 नवंबर को सभी पार्टियों को रिमाइंडर भेज कर कहा कि वह सीलबंद लिफाफे में 15 नंवबर की शाम पांच बजे तक इस बारे में जानकारी चुनाव आयोग को भेज दे। इसमें 30 सितंबर, 2023 तक मिले चंदे का ब्योरा भेजना है।
अप्रैल, 2019 में भी चुनाव आयोग को सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा ही आदेश दिया था, लेकिन आयोग ने केवल 2019 लोकसभा चुनाव से जुड़ा ब्योरा ही पेश किया था। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने नाखुशी जताते हुए कहा था कि चुनाव आयोग के पास अपडेटेड डाटा होना चाहिए।
चंदा के बदले मिलने वाले फायदों को छिपाने के लिए पहचान गुप्त रखना चाहते हैं दानकर्ता?
एक अन्य पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी (SY Quraishi) का इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर सवाल है कि “आखिरकार चंदा देने वाले अपनी पहचान गुप्त क्यों रखना चाहते हैं, ताकि डोनेशन के बदले मिलने वाले लाइसेंस, कॉन्ट्रैक्ट और लोन को छिपा सके, ताकि लोन लेकर वे लेकर लंदन या एंटीगुआ या कहीं और भाग सकें? क्या डोनेशन के बदले मिलने वाले इन्हीं उपकारों की वजह से वह इसे गुप्त रखना चाहते हैं? विस्तार से पढ़ने के लिए फोटो पर क्लिक करें।

क्या है चुनावी बॉन्ड, किसे मिल रहा ज्यादा फायदा?
चुनावी बॉन्ड स्कीम मोदी सरकार लेकर आयी थी। इसकी घोषणा साल 2017 के केंद्रीय बजट में की गई थी। यह 2 जनवरी, 2018 से लागू है। इसे लागू करते हुए सरकार ने दावा किया था कि इससे चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता आएगी। विस्तार से पढ़ने के लिए फोटो पर क्लिक करें।
