बलिया के चंद्रशेखर 10 नवम्बर, 1990 से 21 जून, 1991 भारत के प्रधानमंत्री रहे। वह अपने छात्र जीवन से ही राजनीति की ओर आकर्षित थे। चंद्रशेखर ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय (1950-51) से राजनीति विज्ञान में मास्टर की डिग्री ली थी। इस दौरान वह समाजवादी आंदोलनों और छात्र राजनीति में भी सक्रिय रहे।

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विश्वविद्यालय में गोलवलकर का किया विरोध

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर का भाषण होने वाला था। विश्वविद्यालय में वामपंथी से लेकर समाजवादी तक गोलवलकर का विरोध कर रहे थे। चंद्रशेखर की राय थी कि जैसे बाकी सब पार्टियों के नेता आते हैं, वैसे ही गोलवलकर को भी आने देना चाहिए। लेकिन अपने वामपंथी मित्रों के जोर देने पर वह विरोध करने के लिए सहमत हो गए। तय हुआ कि गोलवलकर को नहीं बोलने देना है।  

सभा शुरू होने से पहले ही बवाल शुरू हो गया। इलाहाबाद मंडल के बाहर के भी स्वयंसेवक लाठी डंडा लेकर विश्वविद्यालय पहुंच गए। पुलिस भी आ गई। सभी को बाहर किया जाने लगा। उधर हंगामे के बीच गोलवलकर की सभा शुरू हो चुकी थी। तभी चंद्रशेखर के साथी रामाधार पाण्डेय ने उन्हें ईंट का टुकड़ा दिखाया। दरअसल यूनियन की बिल्डिंग बन रही थी इसलिए वहां बहुत रोड़े पड़े हुए थे। उस पर नजर पड़ते ही रोड़ा चलना शुरू हो गया। किसी के मुंह पर चोट लगी, तो किसी के कान पर। इस तरह गोलवलकर की सभा दो मिनट में भंग हो गई।

संघ की लाठी से टूटी उंगली

सभा खत्म होते ही संघ के लोग लाठी लेकर टूट पड़े। चंद्रशेखर अपनी आत्मकथा ‘जीवन जैसा जिया’ में लिखते हैं, ”हम लोग तो बिना लाठी डंडे के थे। हमारे साथी थे वशिष्ठ नारायण राय। वह हैवीवेट कुश्ती के चैम्पियन थे। मैंने किसी की एक लाठी छीन ली थी। मेरे हाथ में लाठी देखी तो वशिष्ठ ने वह लाठी मुझसे ले ली। मैं जानता नहीं था कि वे लाठी भी चलाते हैं। उन्होंने मुझे हिदायत दी कि तुम हमारी पीठ से पीठ जोड़कर पीछे की ओर देखते रहो। अगर पीछे से कोई चोट करना चाहे तो मुझे इशारा कर देना। वशिष्ठ लाठी घुमाते हुए निकले तो भगदड़ मच गई। वे जिधर से निकलते थे, भीड़ भाग खड़ी होती थी।”

इस बीच संघ के एक मुख्य नेता भी वशिष्ठ की जद में आ गए। वह एक लाठी पड़ते ही गिर पड़े। दूसरी लाठी पड़ती उससे पहले चंद्रशेखर ने लाठी रोक ली और समझाने की कोशिश की। चंद्रशेखर की इस हरकत से वशिष्ठ बहुत नाराज हुए। उन्होंने दोबारा ऐसा न करने की हिदायत दी।

वशिष्ठ की लाठी रुकी ही थी तभी संघ के एक व्यक्ति ने उन पर लाठी से हमला कर दिया। लाठी वशिष्ठ से सिर पर लगने वाली थी लेकिन चंद्रशेखर ने अपना हाथ बीच में लगा दिया। लाठी के हमले से चंद्रशेखर की उंगली टूट गई और वह उंगली आजीवन टेढ़ी रही।