सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) के पूर्व जज जस्टिस मदन बी. लोकुर (Justice Madan B Lokur) ने केंद्र सरकार द्वारा दिल्ली के लिए लाए गए अध्यादेश को संवैधानिक फ्रॉड करार दिया है। इंडियन एक्सप्रेस के लेख में जस्टिस लोकुर ने इसकी वजहें गिनाते हुए कहा है कि केंद्र सरकार का अध्यादेश संविधान सम्मत भी नहीं है। जस्टिस मदन बी. लोकुर लिखते हैं कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (संशोधन) अध्यादेश, 2023 में जैसे प्रावधान हैं, उससे दिल्ली में प्रशासन का पूरा स्वरूप ही बदल जाएगा। यदि इस अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जाती है तो उच्चतम न्यायालय इसकी संवैधानिक वैधता तय करेगा। लेकिन इस बात में कोई शक नहीं है कि दिल्ली में साल 1991 से एडमिनिस्ट्रेशन की जो प्रणाली है, उसे यह अध्यादेश पूरी तरह पलट देगा।
आखिर अध्यादेश लाने की जल्दी क्यों?
जस्टिस लोकुर सवाल उठाते हैं कि आखिर केंद्र सरकार को इस तरह का अध्यादेश लाने की इतनी जल्दी क्या थी? ऐसी क्या वजह थी जो केंद्र सरकार को संविधान में दिए गए अभूतपूर्व अधिकार का इस्तेमाल करना पड़ा? सुप्रीम कोर्ट ने इस अध्यादेश से हफ्ते भर पहले ही केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच दिल्ली में तैनात अफसरों की ट्रांसफर पोस्टिंग का विवाद सुलझाया था। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने बहुमत से दिल्ली सरकार के पक्ष में फैसला दिया था। अब इस अध्यादेश का असर यह है कि दिल्ली सरकार से सर्विसेज के मामले में बिना किसी कारण, निर्णय लेने का अधिकार छीन लिा गया और एक झटके में दिल्ली के मुख्यमंत्री और कैबिनेट को रबर स्टैंप बना कर रख दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज लोकुर अपने लेख में डॉ. बीआर अंबेडकर द्वारा संविधान सभा में दिये भाषण का जिक्र करते हुए कहते हैं कि यदि डॉ. अंबेडकर के विचारों को पढ़ा जाए तो यह स्पष्ट है कि सरकार जो अध्यादेश लाई है, वह संवैधानिक नैतिकता से परे है।
क्या हैं जस्टिस लोकुर के तर्क?
जस्टिस लोकुर लिखते हैं कि ऑर्डिनेंस में जो प्रावधान हैं, उसके मुताबिक दिल्ली में मुख्यमंत्री की अगुवाई में नेशनल कैपिटल सिविल सर्विसेज अथॉरिटी का गठन होगा। इस अथॉरिटी के पास पब्लिक ऑर्डर, पुलिस, लैंड जैसे महत्वपूर्ण विभागों को छोड़कर अन्य विभागों में काम करने वाले ग्रुप ए अफसरों को लेकर सुझाव देने का अधिकार होगा। भले ही सीएम अथॉरिटी के अध्यक्ष हों, लेकिन अथॉरिटी के दो अन्य सदस्य (जो सीनियर ब्यूरोक्रेट होंगे) उन्हें पद से हटा सकते हैं।
इसका मतलब यह है कि मुख्यमंत्री इस अथॉरिटी के नाममात्र के अध्यक्ष होंगे और दिल्ली की जनता द्वारा निर्वाचित होने के बावजूद उनकी भूमिका शून्य होगी। इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दिल्ली के उपराज्यपाल, इस अथॉरिटी के किसी सुझाव को मानने के लिए भी बाध्य नहीं होंगे।
मंत्रियों की भूमिका हो जाएगी शून्य
मदन बी. लोकुर लिखते हैं कि अध्यादेश में एक और बहुत बेतुका प्रावधान है। वह यह है कि किसी भी विभाग के मंत्री पर एक तरीके से उस डिपार्टमेंट के सचिव का नियंत्रण होगा। सेक्रेटरी को यह अधिकार दिया गया है कि यदि मंत्रिपरिषद कोई निर्णय लागू करता है तो वह कानूनी प्रावधानों के अनुरूप है या नहीं, इसपर उपराज्यपाल को अपनी राय दे सकता है। एक तरीके से सेक्रेटरी, मंत्रियों का एग्जामिनर हो जाएगा। साफ शब्दों में कहें तो मंत्रियों की भूमिका भी शून्य होगी। ऐसे में दिल्ली पर शासन किस तरह होगा, यह समझ से परे है।
दिल्ली की जनता के साथ फ्रॉड है अध्यादेश
जस्टिस लोकुर लिखते हैं कि जिस तरीके की स्थितियां हैं और ऑर्डिनेंस में जैसे प्रावधान हैं, उससे एक बात तो साफ है कि केंद्र सरकार की मंशा सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिल्ली सरकार के पक्ष में दिए गए फैसले को पलटना है। यह अध्यादेश दिल्ली के लोगों के साथ एक तरीके से संवैधानिक धोखाधड़ी जैसा है।