अंग्रेजों ने भारत पर करीब 200 साल शासन किया। इस दौरान ब्रिटिश हुकूमत ने भारतीयों पर कई तरह से जुल्म ढाए। इतिहासकारों का दावा है कि अंग्रेजों की नीति ने 1880 से 1920 के बीच ब्रिटिश भारत में करीब 10 करोड़ (100 million) लोगों की जान ले ली।
हालांकि पिछले कुछ दशकों में ऐसी किताबें भी लिखी गई हैं, जिसमें यह बताने की कोशिश हुई है कि अंग्रेजी शासन ने भारत समेत अपने अन्य उपनिवेशों को समृद्ध और विकसित बनाया।
ऐसी किताबों में नियाल फर्ग्यूसन की ‘एम्पायर: हाउ ब्रिटेन मेड द मॉडर्न वर्ल्ड’ और ब्रूस गिली की ‘द लास्ट इंपीरियलिस्ट’ को शामिल किया जा सकता है। हालांकि ऐतिहासिक रिकॉर्ड में ब्रिटिश शासन के ऐसे क्रूर करामात दर्ज हैं, जिनके सामने उपनिवेशवाद की ये गुलाबी तस्वीर धुंधली पड़ जाती है।
अंग्रेजी शासन में भारत में बढ़ी गरीबी
इकोनॉमिक हिस्टोरियन रॉबर्ट सी एलन के शोध के अनुसार, 1810 में भारत के सबसे गरीब लोगों की आबादी 23 प्रतिशत थी, जो 20वीं सदी के मध्य में 50 प्रतिशत से अधिक हो गई। ब्रिटिश सरकार में लोगों का मेहनताना भी कम हुआ। 19वीं शताब्दी में भारतीयों की कमाई न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई थी। ठीक इसी समय भारत में अकाल का सिलसिला भी चल रहा था।
विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि 1880 से 1920 के बीच अंग्रेजी हुकूमत सबसे मजबूत थी। आश्चर्य की बात नहीं कि भारतीयों के लिए यही समय विशेष रूप से विनाशकारी रहा। 1880 के दशक की शुरुआत में औपनिवेशिक शासन ने बड़े पैमाने पर जनगणना कराया था। परिणाम से पता चला था कि जीवन प्रत्याशा 26.7 वर्ष है। 1910 में यह घटकर 21.9 वर्ष हो गई।
रिसर्च में मौत का आंकड़ा
अल जजीरा पर प्रकाशित लेख में रिसर्चर Dylan Sullivan और Jason Hickel ने भारत में अंग्रेजी शासन के उन 40 वर्षों (1880 से 1920) के बारे में बताया है, जिसमें ब्रिटिश शाही हुकूमत सबसे मजबूत थी। चार दशक में ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीतियों के कारण मारे गए लोगों की संख्या का अनुमान लगाने के लिए जनगणना डेटा का उपयोग किया गया है। भारत में मृत्यु दर पर पुख्ता डेटा केवल 1880 के दशक से मौजूद है।
इसी डेटा को ‘सामान्य’ मृत्यु दर का बेसलाइन मानकर विश्लेषण किया गया है, जिससे पता चलता है कि 1880 से 1920 की अवधि में लगभग 50 मिलियन (5 करोड़) अतिरिक्त मौतें हुईं। सरकार की नीतियों के कारण 40 साल में पांच करोड़ लोगों की जान चले जाना भयावह है। लेकिन इससे भी भयावह यह है कि वास्तव में मरने वालों की संख्या पांच करोड़ से ज्यादा है।
काम के बदले मिलने वाली मजदूरी के आंकड़ों से पता चलता है कि 1880 तक औपनिवेशिक भारत में जीवन स्तर निचले स्तर पर जा चुका था। Dylan Sullivan और Jason Hickel लिखते हैं कि उन्हें यह नहीं पता कि भारत पर अंग्रेजों के कब्जे से पहले यहां की आबादी में मृत्यु दर कितनी थी। वह उदाहरण के लिए मान लेते हैं कि 16वीं और 17वीं शताब्दी में मृत्यु दर इंग्लैंड के समान थी (प्रति 1,000 लोगों पर 27.18 मौतें) और फिर पाते हैं कि भारत में 1881 से 1920 के बीच 165 मिलियन (16.5 करोड़) अतिरिक्त मौतें हुईं।
हालांकि रिसर्चर खुद के तय किए बेसलाइन से ही मृत्यु दर का विश्लेषण करते हैं और पाते हैं कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद के चरम पर लगभग 100 मिलियन लोग समय से पहले मर गए। Dylan Sullivan और Jason Hickel इसे मानव इतिहास में सरकारी नीतियों के कारण पैदा हुए सबसे बड़े मृत्यु संकटों में से एक मानते हैं।
किन नीतियों के कारण ऐसा हुआ?
सवाल उठता है कि ब्रिटिश शासन के 40 साल में करोड़ों लोगों की जान किन नीतियों के कारण गई? जवाब है- कई नीतियों के कारण। पहले तो अंग्रेजों ने भारत का मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर बर्बाद किया। Dylan Sullivan और Jason Hickel दावा करते हैं कि अंग्रेजों का गुलाम होने से पहले भारत दुनिया के सबसे बड़े औद्योगिक उत्पादकों में से एक था, जो दुनिया के सभी कोनों में उच्च गुणवत्ता वाले वस्त्र निर्यात करता था।
भारत के कपड़ों के सामने इंग्लैंड में बने कपड़े टिक नहीं पाते थे। हालांकि, इस स्थिति में बड़ा परिवर्तन 1757 में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा बंगाल पर कब्जा करने के बाद हुआ। 1757 के प्लासी युद्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने बंगाल के अंतिम स्वतंत्र नवाब सिराजुद्दौला को हरा दिया था।
इतिहासकार मधुश्री मुखर्जी के अनुसार, बंगाल की कमान अपने हाथ में लेने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में सामान बेचने के लिए जो शुल्क देना पड़ता था वह खत्म हो गया। इस तरह घरेलू बाजार में अंग्रेजी माल की बाढ़ आ गई।
अब भारतीय अपना उत्पाद बाहर न बेच सकें, इसके लिए विशेष प्रणाली विकसित की गई। उसमें अधिक टैक्स आदि की व्यवस्था थी। ऐसे में स्थिति इतनी बिगड़ गई कि निर्यात करना तो दूर भारतीयों का अपने देश के भीतर कपड़ा बेचना मुश्किल हो गया।
अंग्रेजों ने व्यापार को लेकर अपने लिए अलग और भारतीयों के लिए अलग कानून रखा। इस तरह भारतीय निर्माता कुचल दिए गए और देश को गैर-औद्योगिक बना दिया गया।
ईस्ट इंडिया एंड चाइना एसोसिएशन के अध्यक्ष ने 1840 में ब्रिटिश संसद में दावा किया था: “यह कंपनी (ईस्ट इंडिया कंपनी) भारत को एक विनिर्माण देश से कच्चे उत्पाद का निर्यात करने वाले देश में परिवर्तित करने में सफल रही है।”
गैर-बराबरी पर आधारित नीति से अंग्रेजी निर्माताओं को जबरदस्त लाभ हुआ, जबकि भारत गरीबी में डूब गया और इसके लोग भूख और बीमारी से मरने लगे। हालांकि अंग्रेज यहां भी न रुके, उन्होंने भारतीयों पर तरह तरह का कर लगाना शुरू कर दिया। टैक्स के पैसों से अंग्रेज अपना खजाना भरते और फिर उन्हीं पैसों से भारतीय उत्पाद- नील, अनाज, कपास और अफीम आदि खरीद लेते। इस तरह उन्हें एक प्रकार से सामान मुफ्त में मिल जाता। भारत के उत्पादों को अंग्रेज या तो अपने देश ले जाते जहां उसका इस्तेमाल उनके लोग करते या विदेश मार्केट में बेच देते। इस सिस्टम से भारत से आज के खरबों डॉलर मूल्य का सामान छीन लिया गया।
पानी पर भी था अंग्रेजों का नियंत्रण
ब्रिटिश शासन ने भारतीयों को पानी तक के लिए मोहताज बना दिया। पानी पर उनका कंट्रोल था, वह जानबूझकर समय पर पानी नहीं छोड़ते थे। इससे सूखा या बाढ़ का खतरा रहता था। स्थानीय खाद्य सुरक्षा को नुकसान होता था और भारत को भोजन निर्यात करने के लिए मजबूर होना पड़ता।
इतिहासकारों ने स्थापित किया है कि 19वीं शताब्दी के अंत में कई महत्वपूर्ण नीति-प्रेरित अकालों के दौरान लाखों भारतीय भूख से मर गए, क्योंकि उनके संसाधनों को ब्रिटेन और उसके उपनिवेशों में भेज दिया गया था।
अंग्रेज अपनी नीतियों के परिणामों से पूरी तरह परिचित थे। उन्होंने लाखों लोगों को भूखा मरते देखा और फिर भी अपना रास्ता नहीं बदला। वे जानबूझकर लोगों को आवश्यक संसाधनों से वंचित करते रहे।