भारतीय कुश्ती महासंघ (WFI) के निवर्तमान अध्यक्ष और भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ जब कथित यौन उत्पीड़न के आरोपों को लेकर पहली बार विरोध शुरू हुआ, तो इसे हरियाणा के पहलवानों तक सीमित एक मुद्दे के रूप में देखा गया। प्रदर्शनकारियों में अधिकांश राज्य के जाट समुदाय से संबंधित पहलवान थे। तब यह भाजपा के लिए चिंता की बात नहीं थी। वह राज्य में गैर-जाट निर्वाचन क्षेत्र बनाने में कामयाब रही है। हरियाणा में अगले साल ही विधानसभा चुनाव हैं।

लेकिन बृज भूषण के खिलाफ पहलवानों द्वारा लगाए गए गंभीर आरोपों के विवरण सामने आने के बाद चीजें बदली हैं। राज्य और केंद्र की भाजपा सरकार पर कार्रवाई करने का दबाव बढ़ा है। आंदोलन की गूंज अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट बहुल क्षेत्रों और चुनावी राज्य राजस्थान में सुनाई देने लगी है। केंद्र ने अब पहलवानों को त्वरित पुलिस कार्रवाई के साथ-साथ बृजभूषण और उनके परिवार को WFI से बाहर करने का वादा कर अपने लिए समय लिया है।

UP में जाट फैक्टर को नजरअंदाज नहीं कर सकती BJP

भाजपा को यह अहसास है कि वह हरियाणा में जाट फैक्टर को नजरअंदाज कर सकती है, लेकिन यूपी में जाटों का समर्थन कम होने से उसे पहले ही नुकसान झेलना पड़ रहा है। यादव फैक्टर को काउंटर करने के लिए जाटों का इस्तेमाल कर भाजपा ने राज्य में बढ़त बनाई थी।

2022 के विधानसभा चुनावों में रालोद (राष्ट्रीय लोकदल) ने आठ सीटों पर जीत हासिल की थी। रालोद को जाटों की जनाधार वाली पार्टी कही जाती है। हाल ही में जाट गढ़ माने जाने वाले जिलों में नगर पंचायत और नगर पालिका अध्यक्षों के पदों के लिए हुए चुनावों में रालोद और उसकी सहयोगी समाजवादी पार्टी दोनों ने अच्छा प्रदर्शन किया।

वहीं, भाजपा ने उन क्षेत्रों में वैसा प्रदर्शन नहीं कर पाई, जैसा उसे उम्मीद थी। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी खुद एक जाट हैं। उनके जिले मुरादाबाद में भी भाजपा ने खास प्रदर्शन नहीं किया। भाजपा के अन्य जाट नेताओं जैसे संजीव बालियान (मुजफ्फरनगर) और सत्यपाल सिंह (बागपत) के जिलों में भी यह प्रवृत्ति बनी रही। पार्टी ने जाट बहुल जिलों में 56 नगरपालिका अध्यक्ष सीटों में से केवल 20 और 124 नगर पंचायत अध्यक्ष सीटों में से 34 सीटें जीतीं।

जाट समुदाय का प्रभाव

ऐसे समय में जब भाजपा 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले ज्यादा से ज्यादा सीटें बटोरने की कोशिश कर रही है, उसके लिए राज्य से आ रही यह खबर चिंताजनक है। जाट समुदाय का केंद्र यूपी के पश्चिमी जिलों में हैं। वह मुख्य रूप से गन्ने की खेती करते हैं, और राज्य के सबसे अमीर कृषक समुदाय हैं। एक दर्जन लोकसभा और लगभग 40 विधानसभा सीटों पर जाटों का महत्वपूर्ण प्रभाव है।

कुल मिलाकर राजनीतिक रूप से शक्तिशाली जाट समुदाय लगभग 40 लोकसभा सीटों और 160 विधानसभा सीटों के परिणामों को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। ये सीटें यूपी, हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली में फैली हैं।

2014 से पहले यादव और कुर्मी जैसे अन्य खेती करने समुदायों के उदय के साथ, जाटों का प्रभुत्व कम होता दिख रहा था। अलग-अलगों दलों पर निर्भर लड़खड़ाती रालोद ने जाटों को बहुत कम राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिया।

पश्चिम यूपी में 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद यह बदल गया। दंगे बड़े पैमाने पर जाट और मुस्लिम शामिल थे। 2014 के लोकसभा चुनावों में और फिर 2019 में रालोद नेता अजीत सिंह और जयंत चौधरी की पिता-पुत्र जोड़ी भाजपा उम्मीदवारों से हार गई।

2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 15 जाट उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, जिनमें से 14 जीते। रालोद के पुराने स्थापित जाट नेताओं का मुकाबला करने के लिए, भाजपा संजीव बालियान और सत्य पाल सिंह (एक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी) जैसे नए लोगों को लायी और सफल रही।

हालांकि 2022 के विधानसभा चुनावों के समय तक, जाटों का समर्थन अलग-अलग पार्टियों के लिए बंट गया। भाजपा के पास वर्तमान में 10 जाट विधायक हैं, रालोद के चार और सपा के तीन हैं।

जाट समुदाय का राजनीतिक इतिहास

ऐतिहासिक रूप से जाटों का उत्तर भारत की राजनीति में प्रभाव रहा है। 1950 और 60 के दशक में देवी लाल और रणबीर सिंह हुड्डा (हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा के पिता) पंजाब (अविभाजित) के प्रमुख जाट नेता थे। राजस्थान में नाथूराम मिर्धा थे और यूपी में चौधरी चरण सिंह (अजीत सिंह के पिता) थे।

1966 में हरियाणा के निर्माण के बाद नए राज्य में 25% से अधिक आबादी वाले जाटों के साथ बंसीलाल जैसे नेताओं का उदय हुआ। यूपी में मई 1987 में अपने निधन तक चरण सिंह समुदाय के सबसे बड़े नेता थे, जिनकी सभी जातियों के साथ-साथ मुसलमान भी समर्थक थे। वह दो बार यूपी के मुख्यमंत्री बने, एक बार जनसंघ सहित बहुदलीय गठबंधन के हिस्से के रूप में और एक बार इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाले कांग्रेस गुट के साथ गठबंधन में। उन्होंने उप प्रधान मंत्री के रूप में भी कार्य किया और 1979-80 में छह महीने से भी कम समय के लिए प्रधानमंत्री बने।

चरण सिंह के प्रभाव में किसान समुदाय, कांग्रेस और भाजपा (पहले जनसंघ) दोनों से दूर चला गया। हालांकि चरण सिंह के बाद यूपी में जाटों का कभी कोई सीएम नहीं रहा। चरण सिंह के बाद 1989 में वी.पी. सिंह के नेतृत्व वाली सरकार में जाटों को सबसे बड़ी सफलता मिली। उन्हें देवीलाल के नेतृत्व वाले जाट समुदाय का पूरा समर्थन प्राप्त था, जो बाद में प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह के डिप्टी बन गए। अजीत सिंह उनके मंत्रिमंडल का हिस्सा थे। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और भाजपा के बागी सत्यपाल मलिक जैसे वर्तमान जाट चेहरे भी वीपी सिंह के साथ थे।

हालांकि, बाद में देवीलाल और वीपी सिंह के बीच मतभेद पैदा हो गए और उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल से हटा दिया गया। वीपी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर ओबीसी को आरक्षण का रास्ता खोला। जाट केंद्रीय ओबीसी सूची में नहीं थे। वे जैसे-जैसे विरोध में उतरे, अन्य ओबीसी से उनकी दूरी बढ़ती गई। सामाजिक रूप से जाटों को यूपी, राजस्थान, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में ओबीसी के रूप में वर्गीकृत किया गया है, लेकिन केंद्रीय सूची में नहीं। राजस्थान के दो जिले भरतपुर और धौलपुर एक अपवाद हैं, यहाँ के जाट ओबीसी की केंद्रीय सूची में हैं।

हरियाणा में देवीलाल की विरासत इनेलो के रूप में अब भी मौजूद है। पार्टी अब परिवार के दो गुटों में बंट गई है। जहां इनेलो ने खुद पिछले विधानसभा चुनावों में बहुत खराब प्रदर्शन किया, वहीं दूसरे गुट जननायक जनता पार्टी ने चुनाव के बाद भाजपा के साथ गठबंधन किया और हरियाणा में सत्ता में है।

इस बीच यूपी में मंडल के बाद हिंदुत्व की राजनीति के आगमन ने राजनीतिक नक्शा बदल दिया और जाट हाशिए पर चले गए। उसके बाद लंबे समय तक राज्य में जाटों ने उस समय की सत्ताधारी पार्टी के साथ अपना बहुत कुछ झोंक दिया। चरण सिंह द्वारा बनाए गए राजनीतिक आधार का उपयोग सबसे पहले सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव और मुजफ्फरनगर दंगों के बाद भाजपा द्वारा किया गया था। जाटों पर आर्य समाज के पारंपरिक प्रभाव ने भी इस बदलाव में मदद की।