लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजे सामने आने के बाद सवाल उठ रहा है कि क्या बीजेपी और आरएसएस में दूरी बन रही है? आरएसएस के कई कार्यकर्ताओं ने बीजेपी की खामियों के बारे में खुलकर बात की है। आरएसएस से संबंधित पत्रिका ऑर्गनाइजर के एक लेख में लोकसभा चुनाव परिणामों को अति आत्मविश्वासी भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं को आईना दिखाने जैसा बताया गया है। वहीं, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने भी कहा कि इस चुनाव में दोनों तरफ से मर्यादा तोड़ी गई। ऐसे में आइये जानते हैं बीजेपी और आरएसएस में क्या लिंक है और कैसे दोनों एक-दूसरे के पर्यायवाची बने?
नलिन मेहता ने अपनी किताब ‘द न्यू बीजेपी’ में आरएसएस और भाजपा के संबंधों के बारे में विस्तार से लिखा है। वह लिखते हैं कि 1980 में भाजपा की स्थापना के ठीक दो हफ्ते बाद पार्टी के पहले महासचिव, एल के आडवाणी ने गुजरात इकाई के पहले सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा था कि भाजपा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ अपना संबंध कभी नहीं तोड़ेगी।
इससे नौ महीने पहले जनता पार्टी ने अपने सदस्यों को धर्म के आधार पर राज्य में विश्वास रखने वाले किसी भी संगठन की सदस्यता लेने पर प्रतिबंध लगा दिया था। जिसके बाद वह राजनीतिक रूप से पांच दलों का गठबंधन टूट गया क्योंकि जनता पार्टी के कई लोगों ने पूर्व-जनसंघ सदस्यों की ‘दोहरी’ आरएसएस सदस्यता पर सवाल उठाया था।
दोहरी सदस्यता पर सवाल
1980 के चुनाव में इंदिरा गांधी के सत्ता में वापस आने के बाद अपदस्थ जनता सरकार के पूर्व उप प्रधानमंत्री जगजीवन राम ने 28 फरवरी को घोषणा की कि वह आरएसएस की दोहरी सदस्यता के मुद्दे को ऐसे नहीं छोड़ेंगे और अंत तक ले जाएंगे। जिसके बाद पूर्व जनसंघ गुट और कई अन्य नेता जनता पार्टी से बाहर चले गए और 5 अप्रैल 1980 को भारतीय जनता पार्टी बनाई। पार्टी में जनता पार्टी के अट्ठाईस लोकसभा सांसदों में से पंद्रह, सभी चौदह राज्यसभा सांसद, पांच पूर्व कैबिनेट मंत्री, आठ पूर्व राज्य मंत्री और छह पूर्व सीएम थे।

ऐसे हुआ भाजपा का जन्म
जनता पार्टी के नेता चंद्र शेखर ने भाजपा के विरासत के दावे को चुनौती देते हुए तर्क दिया कि शेष हिस्सा वास्तव में ‘असली’ जनता है। वहीं, नवगठित भाजपा ने दावा किया कि वह ‘असली’ जनता पार्टी है। ECI ने भाजपा को ‘राष्ट्रीय दर्जा’ दे दिया और जनता पार्टी के चुनाव चिन्ह को कुछ महीनों के लिए फ्रीज कर दिया।
आडवाणी ने गुजरात में अपनी पार्टी के नए प्रतिनिधियों को बताया कि विभाजन के विवाद तक जनता पार्टी ने कभी भी वोटिंग से एक भी फैसला नहीं लिया था। यह सिर्फ जनसंघ के सदस्यों को बाहर करने के लिए किया गया था। उन्होंने कहा, “जनता पार्टी का यह कदम न केवल हमारे लिए बल्कि भारतीय राजनीति के लिए भी एक वरदान साबित हुआ।”
RSS और BJP के संबंध
आरएसएस के प्रति भाजपा का गहरा लगाव और दोनों के बीच संबंध पार्टी के शुरुआती दौर से ही एक बड़ा सवाल रहे हैं। 5-6 अप्रैल 1980 को नई दिल्ली में अपने उद्घाटन सम्मेलन में, भाजपा ने आरएसएस से लिंक की बात को दबाने की कोशिश की।
इस सम्मेलन में मंच पर जनसंघ के स्थापना समारोह में प्रदर्शित छत्रपति शिवाजी और महाराणा प्रताप की तस्वीर से अलग बैकग्राउंड में महात्मा गांधी की इमेज थी। इसके साथ ही जयप्रकाश नारायण, संघ के दिवंगत आदर्शवादी दीनदयाल उपाध्याय की तस्वीरें थी।
भाजपा के पहले अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने सम्मेलन में घोषणा की कि नई पार्टी जनता पार्टी के ‘1977 के चुनाव घोषणापत्र’ के आधार पर आगामी चुनाव लड़ेगी क्योंकि जनता पार्टी की नीतियों और कार्यक्रमों में कुछ भी गलत नहीं था।”
आडवाणी ने भी घोषणा की कि ‘गांधीवाद’ को नई पार्टी की विचारधारा के रूप में स्वीकार करने में कोई समझौता नहीं किया जाएगा। उन्होंने जोर देकर कहा कि इसके आर्थिक विचार गांधी के करीब हैं, कांग्रेस पार्टी से भी ज्यादा।

इन लोगों को मिला मंच पर स्थान
नलिन मेहता के मुताबिक, गैर-जनसंघ और गैर-आरएसएस सदस्यों को शामिल करने पर पार्टी का जोर ऐसे भी सामने आया कि जनता पार्टी के गैर-संघ के दिग्गज-जैसे प्रख्यात वकील शांति भूषण, कानूनी विशेषज्ञ राम जेठमलानी; और पूर्व कांग्रेसी सिकंदर बख्त-सभी को उद्घाटन मंच पर प्रमुख स्थान दिया गया।
दिलचस्प बात यह है कि जिस समिति को उस दिन भाजपा के नए संविधान का ड्राफ्ट तैयार करने का काम सौंपा गया था, उसके तीन में से दो सदस्य संघ से नहीं थे। पार्टी के विभाजन के समय जेठमलानी और दिल्ली के मुस्लिम बख्त ने ही पार्टी अध्यक्ष के लिए वाजपेयी का नाम प्रस्तावित किया था।
बीजेपी की विचारधारा
किताब में एक वृत्तांत में उल्लेख किया गया है कि शुरुआत में भाजपा खुद को सत्तर के दशक के आदर्शवादी और नैतिक रूप से उच्च विचारधारा वाले जेपी आंदोलन के स्टैंडर्ड बियरर के रूप में पेश करने के लिए अपने जनसंघ-आरएसएस के इतिहास को पीछे छोड़ती दिखाई दी। नई पार्टी ने यह दावा करना चाहा कि उसे जेपी आंदोलन से सीधे तौर पर उतरना है और इसलिए उन्हीं सिद्धांतों के लिए खड़ा होना है जो आंदोलन की विशेषता हैं।
लेखक अपनी किताब में लिखते हैं कि बीजेपी में आरएसएस और उसकी भूमिका पर इस भ्रम को दूर करने की जरूरत है। आरएसएस के साथ भाजपा के अटूट संबंधों पर आडवाणी के स्पष्ट बयान के एक महीने के भीतर, पार्टी ने एक बयान जारी किया था जिससे यह स्पष्ट हो गया कि वह अब जनसंघ-आरएसएस कनेक्शन को कम नहीं करना चाहती या कम करने में सक्षम नहीं है। यहां तक कि इसने मान्यताओं के प्रति अपनी प्रतिबद्धताओं को भी दोहराया।

बीजेपी खुले तौर पर “दोहरी सदस्यता” के पक्ष में सामने आई
साथ ही यह घोषित किया गया कि जो लोग सामाजिक या सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े हैं, जनता के उत्थान के लिए काम कर रहे हैं और राजनीतिक गतिविधियों में शामिल नहीं हैं दूसरी पार्टी की सदस्यता ले सकते हैं। इस तरह बीजेपी खुले तौर पर “दोहरी सदस्यता” के पक्ष में सामने आई।
भाजपा ने जनता पार्टी की बड़ी राजनीतिक विरासत के साथ ही आगे बढ़ने की कोशिश की। 28-30 दिसंबर 1980 को बॉम्बे में पार्टी के पहले राष्ट्रीय पूर्ण सत्र में वाजपेयी ने घोषणा की कि भाजपा ने ‘समता’ (समानता) को स्वीकार कर लिया है जिसे बी.आर. अम्बेडकर ने दिया था।
बीजेपी और धर्मनिरपेक्षता
1980 के दौरान भाजपा यह तर्क दे रही थी कि वह धर्मनिरपेक्षता की धारणा के लिए खड़ी है जो सहिष्णुता को अपनाती है लेकिन तुष्टिकरण को नहीं। भाजपा पुराने वफादारों को बरकरार रखते हुए भी अपने पारंपरिक वफादारों के अलावा नए समर्थकों को हासिल करने की उम्मीद में एक नया चेहरा पेश करने की कोशिश कर रही थी, लेकिन हर कोई आश्वस्त नहीं था।

भाजपा में आंतरिक कलह
बीजेपी की उपाध्यक्ष विजया राजे सिंधिया ने भी इस विचार का विरोध किया। उनका कहना था कि पार्टी इससे कांग्रेस की फोटोकॉपी लगेगी और अपना मूल रूप खो देगी। सिंधिया की मुख्य आपत्ति समाजवाद शब्द पर थी, इसलिए नहीं कि उन्हें समानता के विचार पर आपत्ति थी, बल्कि पश्चिमी मूल के शब्द पर आपत्ति थी। आख़िरकार एक समझौता किया गया और सिंधिया ने पार्टी की विचारधारा के रूप में ‘समाजवाद’ को अपनाने पर अपना असहमति नोट सार्वजनिक रूप से वापस ले लिया।
1980 में आंतरिक कलह के संकेत तब भी सामने आये जब उस पूर्ण सत्र में पूर्व आरएसएस प्रचारक और वरिष्ठ जनसंघ नेता नानाजी देशमुख अनुपस्थित रहे। जनसंघ की स्थापना के समय उनकी अनुपस्थिति को अखबारों ने कलह के रूप में पेश किया।
जब इस बारे में आडवाणी से पूछा गया तो उन्होंने स्पष्ट किया कि जब नई पार्टी का गठन हुआ था तो देशमुख ने खुद ही वाजपेयी से उन्हें संगठनात्मक मामलों में सक्रिय भागीदारी से बाहर करने के लिए कहा था।
बीजेपी और आरएसएसएस की विचारधारा
बीजेपी और आरएसएसएस जहां दो अलग संगठन हैं, संघ ने हमेशा ही बीजेपी और उसकी विचारधारा को शेप देने में मुख्य भूमिका निभाई है। भाजपा-आरएसएस का जुड़ाव स्वाभाविक है, वैचारिक है।
1980 से 2020 के बीच भाजपा का नेतृत्व कभी भी ऐसे पार्टी अध्यक्ष ने नहीं किया, जो अपने करियर के शुरुआती दौर में संघ या उसके सहयोगियों से जुड़ा न हो। प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत आरएसएस प्रचारक के रूप में की थी, वैसे ही जैसे प्रधानमंत्री अटल बिहारी ने की थी।
बीजेपी नेताओं का आरएसएस कनेक्शन
2007 में गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी ने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘मैं मूल रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वयंसेवक रहा हूं। हमें राष्ट् के लिए सोचने के लिए ट्रेंड किया गया है। यह मेरी आरएसएस की परवरिश है जो मुझे जो भी काम सौंपा जाता है उसे अच्छे से करने में सक्षम बनाती है। मेरे पास संघ परिवार द्वारा मेरे लिए कोई समस्या पैदा करने का एक भी उदाहरण नहीं है। संघ परिवार मेरे साथ है। उन्होंने हमेशा मेरा समर्थन किया, मेरी मदद की, मेरा मार्गदर्शन किया। संघ परिवार मेरी शाश्वत शक्ति है।”
इसी तरह 2000 में प्रधानमंत्री के रूप में, वाजपेयी ने न्यूयॉर्क में VHP के दर्शकों से कहा, ‘मैं आज प्रधानमंत्री हो सकता हूं, कल नहीं हो सकता लेकिन एक चीज़ जो मुझसे कोई नहीं छीन सकता, वह है स्वयंसेवक होना। उनके उप प्रधानमंत्री आडवाणी ने भी सार्वजनिक रूप से घोषणा की थी कि अगर मुझमें कोई सराहनीय गुण है, तो मैं इसका श्रेय आरएसएस को देता हूं।’