देश की राजनीति में भाजपा के लिए मुश्किलें बढ़ती दिख रही हैं। उत्तर पूर्व से लेकर ओडिशा और बंगाल तक उसके सहयोगी और नेता दूर होते जा रहे हैं। क्षेत्रीय दल अपनी अस्मिता के नाम पर नई राह बना रहे हैं। वहीं, ममता की घरवापसी रणनीति और आरके सिंह की बगावत ने पार्टी के भीतर हलचल तेज कर दी है।

दूर हुआ उत्तर पूर्व

केंद्र में सरकार बनाने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर पूर्व के राज्यों पर सियासी नजरिये से खूब ध्यान केंद्रित किया। उत्तर पूर्व के लिए राजग का एक नया समूह बनाया। उसका जिम्मा हिमंत बिस्व सरमा को दिया। पर, उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद यह समूह अप्रभावी होता गया। पहले, जहां भाजपा ने दो राज्यों को छोड़ कर सब जगह अपनी या सहयोगी पार्टियों की सरकार बना ली थी, वहां अब सरकार और राजनीति दोनों उसके हाथ से निकल रही हैं। उसकी सहयोगी पार्टियां उसका साथ छोड़ कर अपनी अलग राह बना रही हैं।

पिछले दिनों नगालैंड में सत्तारूढ़ एनडीपीपी ने एनपीएफ के साथ विलय का फैसला किया। नई बनी पार्टी का नाम एनपीयूएफ रखा और इसके नेता मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो होंगे। 60 सदस्यों की विधानसभा में इस नई पार्टी के पास 34 विधायक हो गए हैं। यानी बहुमत के लिए उसे अब भाजपा के 12 विधायकों की कोई जरूरत नहीं है। मेघालय में सत्तारूढ़ एनपीपी के नेता कोनराड संगमा ने त्रिपुरा में भाजपा की सहयोगी तिपरा मोथा से हाथ मिलाया है।

संगमा ने तिपरा मोथा के नेता प्रद्योत देबबर्मन के साथ इसकी घोषणा की। दोनों पार्टियां साझा राजनीति करेंगी। अपने क्षेत्र को संविधान की छठी अनुसूची में बचाए रखने के साथ-साथ अस्मिता की राजनीति के लिहाज से उत्तर पूर्व की क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस ही नहीं, अब भाजपा से भी दूरी बना रही हैं।

तृणमूल में वापसी

अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने भाजपा की घेरेबंदी अभी से शुरू कर दी है। दरअसल भाजपा ने ममता को सत्ता से बेदखल करने के लिए उन्हीं की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के नेताओं को तोड़ने का हथकंडा अपनाया। पर भूल गई कि तृणमूल कांग्रेस के ये नेता दल-बदलू थे।

कांग्रेस या वाम पार्टियों से ममता के साथ आए थे। वे भाजपा में जाकर ममता के किले को ढहा नहीं पाए। भाजपा ने जिन सुवेंदु अधिकारी को नेता प्रतिपक्ष बना रखा है, वे पहले ममता के खासमखास थे। उनके कारण भाजपा के पुराने वफादार नेता जरूर नाराज होकर निष्क्रिय होते गए।

दूसरी तरफ सूबे में ममता की सत्ता कायम रहने से ये ज्यादातर नेता वापस ममता के साथ आते गए। अब तो शोभन चटर्जी भी सात साल बाद तृणमूल कांग्रेस में वापस आ गए हैं। वे कोलकाता के मेयर रहे हैं और असरदार नेता माने जाते हैं।

रेल के सफर पर सियासी असर

बिहार चुनाव में सियासत के रंग साफ नजर आ रहे हैं। बिहार से जुड़ी आबादी देश के सभी राज्यों में मिलती है। त्योहार के समय में जब भी इनकी बिहार में वापसी होती है, तो सभी रेल गाड़ियों की बदहाली से अच्छी तरह वाकिफ रहते हैं। इस बार चुनाव है तो सियासी मेहरबानी इधर भी दिखाने की कोशिश है। इस बार गाड़ियों की संख्या अधिक मिली है।

इसके जरिए बीते वर्षों की बदहाली की यादों को धुंधला करने की कोशिश भी सरकारी तंत्र ने की है। लेकिन कांग्रेस ने पुरानी फोटो और दस्तावेज जारी कर सूबे के लोगों को याद दिलाने की एक कोशिश की है कि किस तरह से अब तक इन्हें नजरअंदाज किया गया है, ताकि इस चुनाव में महागठबंधन का समर्थन आगे बढ़ सके।

खुली बगावत

पूर्व केंद्रीय मंत्री राजकुमार सिंह ने अपनी पार्टी भाजपा के खिलाफ खुली बगावत कर रखी है। सिंह सेवानिवृत्त नौकरशाह हैं। वे 1975 बैच के बिहार कैडर के आइएएस अधिकारी हैं। वे 2013 में केंद्रीय गृह सचिव के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद भाजपा में शामिल हो गए थे।

आरा सीट से 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव जीते और पूरे दस साल मोदी सरकार में मंत्री रहे। मगर 2024 में लोकसभा चुनाव हार गए। तभी से पार्टी में हाशिए पर हैं। उम्र भी 73 हो चुकी है। पाठकों को याद दिला दें कि 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा को समस्तीपुर में रोकने और उनकी गिरफ्तारी के लिए तब के मुख्यमंत्री लालू यादव ने पटना से आरके सिंह को ही भेजा था। यह घटना भारतीय राजनीति में ऐतिहासिक रूप से दर्ज है।

आरके सिंह ने जनता दल (एकी) और भाजपा पर आपराधिक अतीत वाले लोगों को टिकट देने का आरोप लगाया है। पर जिनके नाम लिए उनमें सभी गैर-राजपूत हैं। अपनी राजपूत बिरादरी के दागी नेताओं को उन्होंने नजरअंदाज कर दिया। नीतीश सरकार पर अडाणी को लाभ पहुंचाने के लिए बिजली घोटाला करने का भी आरोप लगा दिया। लेकिन, भाजपा ने फिर भी उन्हें कोई भाव देने की जरूरत नहीं समझी। जब चुनावी समय में भी आपको भाव न मिले तो समझ जाना चाहिए कि आपके अस्तित्व पर संकट है। सिंह इस संकट को अच्छी तरह से समझ रहे हैं। पर उनके लिए संकट मोचक कौन बनेगा?

‘नवीन’ आरोप

वोट चोरी का आरोप अभी तक राहुल गांधी लगा रहे थे। इस आरोप का दायरा बढ़ता जा रहा है। ओडिशा के पूर्व मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने भी वोट चोरी की बात कही है। ओडिशा की नुआपाड़ा सीट पर उपचुनाव हो रहा है। भाजपा ने पटनायक को एक झटका तो उपचुनाव से पहले ही दे दिया था। जिस विधायक राजेंद्र ढोलकिया के निधन के कारण यह सीट खाली हुई, वे बीजद (बीजू जनता दल) के थे।

पटनायक इस सीट के उपचुनाव में ढोलकिया के बेटे को उम्मीदवार बनाना चाहते थे, पर उसे भाजपा ने तोड़ लिया और अपना उम्मीदवार बना दिया। ओडिशा में पिछले साल पटनायक की जगह भाजपा सत्ता में आई थी। वह तब से बीजू जनता दल के नेताओं को तोड़ रही है। इसी कारण नवीन पटनायक भाजपा से नाराज हैं।

वे नुआपाड़ा की अपनी महिला उम्मीदवार की जीत के लिए पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। केंद्र सरकार और भाजपा दोनों पर तीखा हमला बोला है। आरोप लगाया है कि भाजपा वोट चोरी करती है। पर क्या विपक्ष नवीन को साथ लेगा? हकीकत तो यह है कि कांग्रेस बीजू जनता दल की कमजोरी में अपना फायदा देख रही है।