मैं बिहार हूं, मैंने कई नेताओं को बनते बिखरते देखा है, मैंने हारी हुई बाजी को जीत में तब्दील होते भी देखा है। कोई खुद को गरीबों का मसीहा बताता है, कोई खुद को युवाओं का नेता बताता है, लेकिन एक नाम मेरे जहन से कभी नहीं निकल सकता, मेरा इतिहास भी उस नाम के बिना अधूरा ही मान लीजिए। मैं बात कर रहा हूं लालू प्रसाद यादव की, एक ऐसा नेता जिसने मुख्यमंत्री रहते हुए भी आम लोगों के लिए अपने दरवाजे खोल दिए थे, एक ऐसा नेता जिसने समाज के सबसे निचले तबके को आवाज दी थी, एक ऐसा नेता जो इतना दंबग कि कोई अधिकारी चू भी ना कर पाए। लेकिन जो आपने देखा, मैंने उससे इतर उस शख्स की दूसरी शख्यित भी देखी, मैंने उसे बेबस देखा, टूटते हुए देखा, हार मानते हुए भी देखा, मैं बिहार हूं और आज लालू के टूटने की कहानी बताता हूं-

लालू यादव जब 1990 में पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, उन्हें गद्दी का कोई मोह नहीं था। बंगले में रहने का उनका कोई विचार नहीं था। जहां दूसरे नेता सिक्योरिटी कवर के लिए तरसते रहते थे, लालू को तो उन्हीं सुरक्षाबलों से चिढ़ मचती थी। पुरानी परंपराओं को तोड़ना, सत्ता के गलियारों को सीधी चुनौती, ये उनकी पहचान बन चुकी थी। वरिष्ठ पत्रकार और लालू यादव की राजनीति को करीब से देखने वाले संकर्षण ठाकुर ने अपनी किताब “बंधु बिहारी” में इस तरह याद किया है।

मुख्यमंत्री बनने कुछ महीनों बाद तक लालू ने खुद के लिए बंगला भी नहीं लिया था, वे तो अपने भाई के पटना वेटरिनरी कॉलेज वाले छोटे सरकारी आवास में रह रहे थे। बाद में और लालू को एक अणे मार्ग वाले सरकारी बंगले में शिफ्ट होना पड़ा। मुख्यमंत्री के सरकारी बंगले का निर्माण अंग्रेजों के समय हुआ था लेकिन लालू के वहां आते ही सब कुछ देसी हो गया।

सीएम बंगले में गायों की एंट्री हुई, बंगले के पीछे के बगीचे में धान और गेहूं की खेती की जाने लगी। रसोई में गैस नहीं मिट्टी का चूल्हा इस्तेमाल में आने लगा था। लालू को पब्लिक इमेज गढ़ने में महारत हासिल थी। असलियत कुछ भी रही हो, बिहार की जनता के लिए वे ‘लालू भइया’, ‘हमार ललुआ’ बन चुके थे।

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आम लोगों के बीच में लालू यादव को आम आदमी बनने की ऐसी आदत हो चुकी थी कि वह अपने हेलिकॉप्टर में गरीबों के बच्चों को राइड भी करवाया करते थे। किसी पिछड़े के घर जाकर खाना खाने की मांग करते, बच्चों के साथ गाना गुनगुनाते।

सीएम कार्यकाल के पहले दस साल तक लालू की ये इमेज बनी रही, चुनावी नतीजे भी इस बात की तस्दीक कर रहे थे, लेकिन फिर आया चारा घोटाला, गंभीर आरोपों की हुई बौछार और लालू की तकदीर, लालू की छवि, लालू की राजनीति एकदम से बदल गई। जनता के बीच कनेक्ट था, पिछड़ों के बीच लोकप्रियता थी, लेकिन 10 सालों में जो ‘मसीहा’ वाली छवि बनाई गई थी, उसको बड़ा धक्का लगा। खुद लालू हतोत्साहित हो चुके थे।

बात 2000 बिहार विधानसभा चुनाव की है, चारा घोटाले के बाद लालू की हार का अनुमान हर तरफ लगाया जा रहा था। पॉलिटिकल पंडित चुनावी नतीजे आने से पहले ही अपने निष्कर्षों पर पहुँच चुके थे। सभी को लग रहा था कि बिहार में लालू का दौर जाने वाला है। खुद लालू की बातें भी ऐसे संकेत देने लगी थीं।

वरिष्ठ पत्रकार संकर्षण ठाकुर ने उस चुनाव में लालू के साथ एक हेलिकॉप्टर राइड की थी जिसमें वे उत्तर बिहार की ओर जा रहे थे। लालू निराशा में डूबे हुए थे। खुद पर लगे आरोपों से टूट चुके थे। बस कहते रहे- मैं जो कर सकता था, मैंने कर लिया है। इस बार के प्रचार में मैं पूरी तरह अकेला पड़ चुका हूं, एक पूरी आर्मी मेरे खिलाफ लड़ रही है। एक पूरी यूनियन कैबिनेट लालू के पीछे पड़ी है, उसे रोकना चाहती है। मेरे पास सिर्फ एक हेलिकॉप्टर है, उनके पास दर्जनों पड़े हैं। एक आदमी अकेला कितना कर पाएगा।

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उस चुनाव में लालू ने फिर वापसी की, राजद को 124 सीटें दिलवाने में वे कामयाब हो गए, एनडीए का रथ 122 सीटों पर सिमट गया। सभी हैरान थे, अप्रत्याशित नतीजों ने लालू को ताकत तो दी, लेकिन 1990 या फिर 1995 वाली बात अब नहीं थी। लालू ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया था, लेकिन जो उनसे उम्मीद की जा रही थी, वैसा कुछ नहीं हुआ।

1990 वाले लालू सत्ता प्रेमी नहीं थे, दस साल पुराने लालू किसी जांच एजेंसी से डरते नहीं थे, वे सिर्फ जनता के बीच जनता का सर्टिफिकेट लेते थे। लेकिन अब सबकुछ बदल चुका था। जीत के बाद भी लालू के मिजाज बदले-बदले थे।

चारा घोटाले और उसकी जांच ने लालू को अंधविश्वासी बना दिया था। ब्राह्मणों के प्रति उनका प्रेम अचानक से बढ़ गया था, किसी जमाने में अगड़ी जाति का विरोध कर राजनीति करने वाले लालू, कभी भूरा बाल हटाओ का नारा देने वाले लालू अब सहूलियत की राजनीति पर आ चुके थे।

बाबाओं से मिलना, ज्योतिषों से मुलाकात करना उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन चुका था। किसी जमाने में अंगुलियों में जितनी अंगूठी जगनाथ मिश्रा पहना करते थे, उससे ज्यादा अंगूठियां पहनना लालू ने शुरू कर दिया था। जेल से जमानत भी वे ये कहकर लेने लगे थे कि उन्हें गंगा के तट पर छठ पूजा करनी है।

जनता के बीच में मैसेज जा चुका था- लालू अब सत्ता की चाह रखने वाले दूसरे नेताओं जैसे बन चुके थे। इसी वजह से 2000 के विधानसभा चुनाव के बाद से लालू का ग्राफ गिरना शुरू हुआ और 2005 आते-आते नीतीश कुमार सत्ता पर काबिज हुए।

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