मैं बिहार हूं, मैंने यहां की राजनीति में उतार-चढ़ाव तो कई देखे हैं, नाटकीय मोड़ तो हर दिन ही आते रहते हैं, कभी गुस्सा ,कभी उत्साह कभी नाराजगी, कभी नम पड़ी आंखें, सब देखा है, लेकिन कुछ चीजें अप्रत्याशित होती हैं। शायद ऐसी जो सिर्फ कभी कभार हो। ऐसा ही एक वाक्य मुझे लालू का याद आता है। कुछ तो हुआ था ललन सिंह के साथ, इतना गुस्सा कि कोई भी थर-थर कांप जाए। हां मैं बिहार हूं और आज लालू और ललन सिंह के बीच हुई तू-तू मैं-मैं की कहानी बताता हूं-

1992 का आखिरी महीना चल रहा था। दिल्ली में खटपट मच चुकी थी, केंद्र में वीपी सिंह की सरकार गिर गई। खुद नीतीश कुमार मंत्री पद गंवा चुके थे। अब दिल्ली में खटपट लेकिन बिहार में सिर्फ लालू चल रहा था, लालू का अंदाज, लालू की राजनीति और लालू की लोकप्रियता। नीतीश कुमार इससे असहज होने लगे थे, ज्यादा नाराजगी इसलिए थी कि लोगों की उम्मीदें, उनके सपने, उनके वादे पूरे होते नहीं दिख रहे थे। लालू को इस बात की कितनी चिंता थी, वे कितनी गंभीरता से इन मुद्दों को समझ रहे थे, आज भी इतने सालों पर बहस होती रहती है, लेकिन उस जमाने में तो दोस्ती थी। एक ऐसा याराना था जहां पर नीतीश लालू से कुछ भी कह सकते थे लालू भी नीतीश से मन की बात करते थे।

ऐसे में 1992 के आखिरी महीने में बिहार के कई बड़े नेता दिल्ली बिहार भवन में इकट्ठा हुए। एक मिशन था- मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव से मुलाकात करनी थी। मुलाकात किसानों के हक वापस दिलवाने के लिए थी. उनकी मांगों को पूरा करना था। खुद नीतीश कुमार उस बैठक का नेतृत्व कर रहे थे, उस जमाने के जितनी कद्दावर नेता थे वे सब वहां पहुंच चुके थे। फिर चाहे बात शिवानंद तिवारी की हो, बृषिण पटेल की हो या फिर ललन सिंह की। भाजपा के सरयू राय भी वहां गए थे, लेकिन पता नहीं किस कारण से वे बैठक में शामिल नहीं हुए और एक दूसरे रूम में अकेले बैठ गए।

संकर्षण ठाकुर अपनी किताब ‘बिहार बंधु’ में बताते हैं बिहार भवन में उस एक दिन इतना कुछ हुआ, इसकी शायद किसी ने कभी कल्पना तक नहीं की थी। लोकतंत्र के मंदिर में गाली-गलौज हुई और लालू का ऐसा रूप सामने आया जो शायद आम जनता ने तो कभी भी नहीं देखा था। लालू नाराज थे, आक्रोशित थे, गुस्सा इतना ज्यादा बढ़ चुका था कि बाहर फेंकने की धमकियां दे रहे थे, पूरा भवन ही शोर-शराबे से भर चुका था।

आज भी यह रहस्य है कि लालू इतना गुस्सा क्यों हुए थे, लेकिन वहां मौजूद लोगों ने अपने कानों से सुना था, वे चिल्ला-चिल्ला कर ललन सिंह को कह रहे थे- निकल बाहर निकल साला….

सरयू राय ने जब वो शोर सुना, वे भागे-भाग उस बैठक में पहुंचे और उन्होंने जो देखा वो देख हक्का-बक्का रह गए। लालू तो पूरी तरह लड़ने के मूड में आ चुके थे, उन्होंने अपने सुरक्षाकर्मियों को कह दिया- इस आदमी को बाहर फेंक दो, घसीट कर ले जाओ।

इस घटना को बिहार की राजनीति का एक काला अध्याय कहा जाता है। जिन नेताओं को जनता ने इतनी उम्मीदों के साथ चुना था, जब वही नेता अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते हैं या विरोधियों को गालियां देते हैं, तो केवल उनकी गरिमा ही नहीं टूटती, बल्कि उस संस्थान का भी अपमान होता है जिससे वे जुड़े होते हैं।

हालांकि यह कोई साधारण घटना नहीं थी। इसने बिहार की राजनीति के कई समीकरण बदल दिए थे। दो साल बाद, यानी 1994 में, एक नई पार्टी का गठन हुआ और ललन सिंह की सियासत ने भी अपनी अलग दिशा पकड़ ली। उनकी राजनीति आगे चलकर ऐसी रही कि कभी वे लालू प्रसाद यादव के करीब दिखे, तो कभी नीतीश कुमार के सबसे भरोसेमंद सहयोगी बन गए।

कभी उन्होंने नीतीश कुमार को भाजपा के साथ जाने पर मजबूर किया, तो कभी उनकी ही रणनीति ने नीतीश को गठबंधन बदलकर महागठबंधन से हाथ मिलाने के लिए प्रेरित कर दिया। यानी, ललन सिंह की ताकत बिहार की राजनीति में आज भी उतनी ही प्रभावी है, जितनी 33 साल पहले हुआ करती थी।

ललन सिंह वर्ष 2000 में राज्यसभा सांसद बने। उसके बाद वे जदयू के प्रदेश अध्यक्ष भी बने। 2005 तक आते-आते, उन्होंने पार्टी में मजबूत पकड़ बना ली। फिर 2014 और 2019 में वे मुंगेर लोकसभा सीट से चुनाव जीतकर सांसद बने।

हालांकि इतना सब कुछ हासिल करने के बाद भी, ललन सिंह को कई राजनीतिक कुर्बानियां देनी पड़ीं। पिछले साल, जब नीतीश कुमार ने एक बार फिर एनडीए से हाथ मिलाया तो ललन सिंह को जदयू अध्यक्ष पद से हटा दिया गया। यही है ललन सिंह की कहानी, और यही है बिहार की वह अनप्रिडिक्टेबल राजनीति, जहां कुछ भी कभी भी बदल सकता है।

जनसत्ता की विशेष सीरीज ‘मैं बिहार हूं’ के हर भाग यहां पढ़ें