29 जून, 1968 को भोला पासवान शास्त्री के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद बिहार में सात महीने से ज्यादा वक्त तक राष्ट्रपति शासन लगा रहा। इस दौरान अलग-अलग राजनीतिक दलों के बीच सरकार गठन को लेकर बातचीत हुई लेकिन कोई भी दल सरकार बनाने लायक विधायक नहीं जुटा सका।

इसके बाद विधानसभा को भंग कर दिया गया और फरवरी 1969 में फिर से चुनाव कराए गए। 318 सीटों वाली विधानसभा में कांग्रेस को 118 सीटें ही मिली। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी) को 52, भारतीय जनसंघ (बीजेएस) को 34, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) को 25, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) को 18 और राजा कामाख्या नारायण सिंह की जनता पार्टी (जिसे बाद में जनता पार्टी का नाम दिया गया) को 14 सीटें मिलीं।

जब कांग्रेस दो टुकड़ों में बंट गई और इंदिरा गुट के दरोगा प्रसाद राय बने दसवें सीएम

उस दौरान बिहार में कांग्रेस कई गुटों में बंटी हुई थी। इन गुटों के नेता मुख्य रूप से- केबी सहाय, महेश प्रसाद सिन्हा और सत्येंद्र नारायण सिन्हा थे। इसके साथ ही ओबीसी नेता राम लखन सिंह यादव भी थे। यादव को पार्टी ने विधानसभा चुनाव में टिकट नहीं दिया था क्योंकि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व राज्य में गुटबाजी से परेशान था।

कांग्रेस के कई विधायक पूर्व मुख्यमंत्री बिनोदानंद झा के समर्थक थे और उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर लोकतांत्रिक कांग्रेस दल (एलसीडी) नाम से एक नया संगठन बना लिया था।

कांग्रेस में हुई टूट, बने दो धड़े

जुलाई, 1969 में राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस टूट गई थी। कांग्रेस से निलककर दो अलग-अलग राजनीतिक दल सामने आए। कांग्रेस (ओ) जिसका नेतृत्व पुराने नेताओं के हाथ में था और कांग्रेस (आर) जिसकी कमान इंदिरा गांधी के पास थी।

तीन बार ली शपथ, साल भर से कम रहा कार्यकाल

कांग्रेस 1967 जैसी गलती नहीं दोहराना चाहती थी इसलिए उसने 1969 के विधानसभा चुनाव के बाद शोषित दल, जनता पार्टी, स्वतंत्र पार्टी और कुछ अन्य दलों के साथ गठबंधन किया। बक्सर से विधायक और राजपूत जाति से आने वाले हरिहर सिंह को कांग्रेस विधायक दल (सीएलपी) का नेता चुना गया और गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने के लिए उन्हें मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। उन्होंने 25 फरवरी, 1969 को शपथ ली।

हरिहर सिंह का राजनीतिक जीवन उतार-चढ़ाव भरा रहा। हरिहर सिंह 1952 में कांग्रेस के टिकट पर डुमरांव सीट से विधायक चुने गए। 1957 में टिकट न मिलने पर उन्होंने पार्टी छोड़ दी और डुमरांव से निर्दलीय चुनाव लड़ा लेकिन हार गए।

1962 में हरिहर सिंह ने स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर रजौली सीट से चुनाव लड़ा लेकिन फिर से उन्हें हार मिली। 1960-66 तक वे विधान परिषद के सदस्य रहे। 1967 में उन्होंने डुमरांव से निर्दलीय चुनाव जीता और 1969 के मध्यावधि चुनावों से ठीक पहले कांग्रेस में शामिल हो गए।

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दरोगा प्रसाद राय ने किया था राजा का विरोध

हरिहर सिंह ने जब मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, तब भी इस बात पर आम सहमति नहीं बन पाई थी कि उनका मंत्रिमंडल कैसा होगा। दरोगा प्रसाद राय के नेतृत्व में कांग्रेस विधायकों का एक गुट नई सरकार में शामिल नहीं हुआ। उनकी आपत्ति राजा कामाख्या नारायण सिंह को लेकर थी।

राजा कामाख्या नारायण सिंह के खिलाफ कई मामले चल रहे थे जिनमें कलकत्ता हाईकोर्ट ने कुछ सख्त टिप्पणियां की थी। यह मामला आगे बढ़ा और कांग्रेस कार्यसमिति (सीडब्ल्यूसी) और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष एस. निजलिंगप्पा के सामने इसे उठाया गया। शुरुआत में राजा कामाख्या नारायण सिंह और उनके भाई बसंत नारायण सिंह दोनों को राज्य सरकार में मंत्री बनाया गया लेकिन बाद में सीडब्ल्यूसी के निर्देश पर राजा ने इस्तीफा दे दिया। इसके बाद दरोगा प्रसाद राय राज्य सरकार में शामिल हो गए।

हरिहर सिंह ने दे दिया इस्तीफा

इस तरह हरिहर सिंह की सरकार को शुरुआत से ही अस्थिरता का सामना करना पड़ा। 20 जून, 1969 को पशुपालन विभाग के लिए अनुदान मांग वाले प्रस्ताव को 164 के मुकाबले 143 मतों से खारिज कर दिया गया। बहुमत खोने के बाद हरिहर सिंह ने उसी दिन इस्तीफा दे दिया।

दिलचस्प बात यह थी कि सरकार गिरने से पहले हरिहर सिंह ने कई मंत्रियों को विभाग भी आवंटित नहीं किए थे। हरिहर सिंह की सरकार गिरने के कुछ ही दिनों बाद राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस टूट गई।

बीपी मंडल की सरकार में मंत्री रहे हरिहर सिंह

हरिहर सिंह प्रसिद्ध भोजपुरी लेखक और कवि भी थे। वह बीपी मंडल के करीबी सहयोगी थे और बाद में शोषित दल में शामिल हो गए थे। महामाया प्रसाद सिन्हा की संयुक्त विधायक दल सरकार को गिराने में भी उनकी भूमिका थी। वह बीपी मंडल के मंत्रिमंडल में कृषि मंत्री रहे थे।

हरिहर सिंह के बेटे अमरेंद्र प्रताप सिंह नीतीश कुमार की सरकार में मंत्री हैं। अमरेंद्र एक बार फिर आरा सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। उनके दूसरे बेटे मृगेंद्र प्रताप सिंह झारखंड में विधायक थे और वहां मंत्री भी रहे। मार्च, 1994 में हरिहर सिंह का निधन हो गया।

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