अयोध्या के राम मंदिर के पहले चरण का निर्माण कार्य पूरा हो चुका है। 22 जनवरी को मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा भी हो गई। पूरे समारोह पर भाजपा की छाप दिखी। मंदिर का निर्माण भले ही सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद हो रहा है। लेकिन भाजपा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर इसका श्रेय खुद भी लेती दिख रही है।
 
जनसंघ की स्थापना 1951 में हुई थी। 1980 में जनसंघ के नेताओं ने ही भारतीय जनता पार्टी के नाम से नई पार्टी बना ली। भाजपा ने अपने पहले अवतार यानी जनसंघ (1951-77) के रूप में कभी राम मंदिर को अपने एजेंडे में नहीं रखा। भाजपा बनने के बाद भी आधिकारिक तौर पर 1989 तक मंदिर का मुद्दा पार्टी के संकल्पों में शामिल नहीं था।

भाजपा की पंचनिष्ठा में हिंदुत्व नहीं था

भाजपा ने जिन पांच सिद्धांत के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की थी, वे इस प्रकार थे: राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय अखंडता, लोकतंत्र, सकारात्मक पंथ-निरपेक्षता (सर्वधर्म समभाव) और गांधीवादी समाजवाद।

दूसरी तरफ कांग्रेस नेता राम मंदिर के मुद्दे से 1949 में ही जुड़ गए थे। उसके कई नेता राम जन्मभूमि आंदोलन का समर्थन कर रहे थे। वहीं भाजपा इस वक्त कहीं नजर नहीं आ रही थी। ऐसा इसलिए था क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी, जो उस समय भाजपा के पार्टी प्रमुख हुआ करते थे, वह भाजपा को “गांधीवादी समाजवाद” की दिशा में आगे बढ़ा रहे थे। 1984 के चुनाव में भाजपा के दो सीटों पर सिमट के बाद पार्टी के भीतर मंथन शुरू हुआ।

पत्रकार से भाजपा नेता बने, पूर्व राज्यसभा सांसद बलबीर पुंज द इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में बताते हैं, “मुझे 1984 के लोकसभा चुनाव के ठीक बाद झंडेवालान में आरएसएस के भाऊराव देवरस द्वारा बुलाई गई एक बैठक याद है। मुरली मनोहर जोशी, केएस सुदर्शन और मैं मौजूद थे। मैंने कहा कि अगर भाजपा गांधीवादी समाजवाद की बात करेगी तो कोई भी उसके पास नहीं आएगा। हमें हिंदुत्व की ओर मुड़ना होगा।” हालांकि, राम मंदिर आंदोलन के लिए प्रतिबद्ध होने में भाजपा को और पांच साल लग गए।

आडवाणी को हटा वाजपेयी को लाया गया

9 मई, 1989 को आडवाणी भाजपा अध्यक्ष बने। 11 जून 1989 को हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई। इसी बैठक में भाजपा ने पहली बार  राम मंदिर की मांग का औपचारिक रूप से समर्थन करने का प्रस्ताव पास किया। इसके साथ ही गांधीवादी समाजवाद पर वाजपेयी के जोर को हमेशा के लिए दफन कर दिया गया।

पालमपुर प्रस्ताव को भाजपा के राजनीतिक जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ माना गया। इस बैठक में वाजपेयी चुपचाप बैठे रहे और उनके मित्र जसवंत सिंह नाराज होकर पैदल ही रेलवे स्टेशन की तरफ निकल गए।

पालमपुर प्रस्ताव में क्या था?

पार्टी के पालमपुर प्रस्ताव में कहा गया, “कानून की अदालत… इस पर निर्णय नहीं दे सकती कि बाबर ने वास्तव में अयोध्या पर आक्रमण किया था, एक मंदिर को नष्ट किया था और उसके स्थान पर एक मस्जिद का निर्माण किया था। यहां तक कि जब भी कोई अदालत इस तरह के तथ्य पर फैसला सुनाती है, तो वह इतिहास की बर्बरता को कम करने के उपाय नहीं सुझा सकती है।”

प्रस्ताव में आगे लिखा था, “भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी राम जन्मभूमि मुद्दे पर वर्तमान बहस को एक ऐसी बहस के रूप में मानती है जिसने विशेष रूप से कांग्रेस पार्टी और सामान्य रूप से अन्य पार्टियों की उदासीनता को उजागर किया। इसे पता है कि कैसे कांग्रेस व अन्य दलों ने देश का बहुसंख्यक – हिंदू  जनमानस की भावनाओं के साथ धोखा किया है। लोगों की भावनाओं का सम्मान किया जाना चाहिए।”

भाजपा ने अपनी मांग को स्पष्ट करते हुए कहा, “राम जन्मभूमि, यदि संभव हो तो बातचीत के जरिए या फिर कानून बनाकर हिंदुओं को सौंप दिया जाना चाहिए। मुकदमा निश्चित रूप से इसका कोई समाधान नहीं है। भारत के संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता एक अधार्मिक राज्य की परिकल्पना नहीं है। न ही इसका मतलब देश के इतिहास और सांस्कृतिक विरासत को अस्वीकार करना है। भाजपा, राजीव सरकार से अयोध्या के संबंध में उसी सकारात्मक दृष्टिकोण को अपनाने का आह्वान करती है, जो नेहरू सरकार ने सोमनाथ के संबंध में किया था।”

इस प्रस्ताव के एक साल बाद तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक रथ यात्रा की। वह एक ऐसी घटना थी, जिसने भारतीय राजनीति की दिशा हमेशा के लिए बदल दी और भाजपा को सत्ता का दावेदार बना दिया।