”मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद को राज्यपाल को सलाह देने का पूरा अधिकार है। लेकिन मंत्रियों के ऐसे निजी बयान जिनसे राज्यपाल पद की प्रतिष्ठा कम होती है, उसकी वजह उन्हें हटाए जाने सहित कार्रवाई की जा सकती है।” केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के इस ट्वीट ने एक बार फिर उनके और सत्तारूढ़ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) बीच के चल रहे विवाद को उजागर कर किया।
सितंबर 2019 में आरिफ मोहम्मद खान केरल के राज्यपाल बने थे। तब से ही खान और राज्य सरकार के बीच तनातनी की खबर आ रही है। कुलपतियों की नियुक्ति पर असहमति की चर्चा आम है। दिसंबर 2019 में खान ने आरोप लगाया था कि इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के दौरान उनके साथ धक्का-मुक्की की गई थी। अब शायद ही कोई ऐसा दिन गुजरता है जब राज्यपाल और केरल सरकार के बीच विवाद की खबर न आए।
हालांकि पश्चिम बंगाल में जगदीप धनखड़ बनाम सीएम ममता बनर्जी की लड़ाई या दिल्ली एलजी वीके सक्सेना और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बीच खुले विद्वेष के विपरीत, खान ने कई मौकों पर अपने विरोधियों को आश्चर्यचकित भी करते हैं। इस महीने की शुरुआत में जब सीपीआई (एम) पोलित ब्यूरो के सदस्य कोडियेरी बालकृष्णन की मृत्यु हुई, तब खान वरिष्ठ वाम नेता को श्रद्धांजलि देने कन्नूर पहुंचे थे।
खान के करीबी बताते हैं कि एक राजनेता के रूप यह उनकी विशेषता रही है। दशकों लंबे राजनीतिक करियर के दौरान पार्टियों को बदलने में उनकी यही विशेषता काम आयी है। खान कांग्रेस से लेकर जनता दल, बसपा और भाजपा तक में रहे हैं।
छात्र राजनीति से की थी शुरुआत
आरिफ मोहम्मद खान ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत एक छात्र नेता के रूप में की थी। 1970 के दशक की शुरुआत में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष और महासचिव रहे खाने के बारे में ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने इस्लामी मौलवियों को विश्वविद्यालय में आमंत्रित करने से इनकार कर दिया था। 26 वर्ष की उम्र में वह उत्तर प्रदेश के सियाना से जनता पार्टी के टिकट पर विधायक बने थे।
खान को जनता पार्टी सरकार में उत्पाद शुल्क, निषेध और वक्फ का प्रभारी उप मंत्री बनाया गया था। लेकिन शिया और सुन्नियों के बीच लखनऊ में दंगा होने के कुछ माह बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया। बाद में वह कांग्रेस के इंदिरा गुट में शामिल हो गए। 1980 में एआईसीसी का संयुक्त सचिव रहते हुए खान पहली बार संसद पहुंचे। जल्द ही उन्हें सूचना और प्रसारण के प्रभारी उप मंत्री के रूप में इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल में जगह मिली।
शाह बानो मामले में दिया इस्तीफा
राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार में एक युवा राज्य मंत्री के रूप में उन्होंने जो रुख अपनाया था, उसकी आज भी चर्चा होती है। सरकार ने शाह बानो मामले में संसद में एक कानून लाकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट दिया था। राजीव गांधी सरकार के इस फैसले के नाराज होकर आरिफ मोहम्मद खान ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था।
खान के कदम के बाद राजीव गांधी ने उन्हें कांग्रेस से निकाल दिया। इसके बाद खान ने वीपी सिंह से हाथ मिलाया और जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ संसद पहुंचे। अल्पकालिक वीपी सिंह सरकार के पतन के बाद, वह बसपा में शामिल हो गए और उसके महासचिव बने। लेकिन जब यह स्पष्ट हो गया कि पार्टी यूपी में सरकार बनाने के लिए भाजपा से हाथ मिलाएगी, उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों के मद्देनजर बसपा से इस्तीफा दे दिया ।
कथित तौर पर बसपा अध्यक्ष कांशीराम को लिखे पत्र में खान ने कहा था, “चूंकि मैं सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ने के लिए प्रतिबद्ध हूं और बसपा ने भाजपा के साथ गठबंधन का फैसला किया है, इसलिए मुझे अलग होने के अलावा कोई नैतिक रास्ता नहीं दिख रहा। मैं खुद को पूरी तरह से विभाजनकारी ताकतों के खिलाफ लड़ने के लिए समर्पित करना चाहता हूं।”
पत्र में आगे लिखा था, “जब नफरत फैलाने वाले गुजरात में सबसे बर्बर और विकृत हिंसा में लिप्त हैं और प्रतिक्रिया के नाम पर इसका बचाव कर रहे हैं। तब बसपा ने उनके साथ गठबंधन करने का विकल्प चुना है। इससे मेरे सहित कई लोगों को झटका लगा है।”
भाजपा की आलोचना कर भाजपा में हुए शामिल
दो साल बाद खान उसी पार्टी में शामिल हो गए जिसकी उन्होंने इतनी कड़ी आलोचना की थी। 2004 में उन्होंने भाजपा के टिकट पर कैसरगंज सीट से लोकसभा चुनाव लड़ा था। हालांकि, तीन साल बाद उन्होंने पार्टी पर यूपी में “दागी” नेताओं को टिकट देने का आरोप लगाते हुए भाजपा छोड़ दिया।
जिन लोगों ने खान के साथ बातचीत की है, उनका कहना है कि वह अब भी अपने पिछले गौरव में जीते हैं। खान का मानना है कि राजीव गांधी के खिलाफ उनके विद्रोह और उनकी नीतियों की आलोचना ने कांग्रेस विरोधी भावना के बीज बोए थे, जिसके कारण बाद के वर्षों में पार्टी को चुनावी असफलता मिली।
पिछले तीन वर्षों में जब भी खान का केरल सरकार से सामना हुआ है, सत्तारूढ़ माकपा के नेताओं ने उन पर संघ की तरफ से बोलने का आरोप लगाया है। सीएए से लेकर कृषि कानूनों तक, जब-जब राज्यपाल ने केंद्र का पक्ष लिया, माकपा ने इसे संघ परिवार और वाम मोर्चे का संघर्ष बताया।
माकपा केंद्रीय समिति के सदस्य और राज्य के पूर्व मंत्री एके बालन कहते हैं, “केरल में भाजपा सरकार द्वारा कई अन्य राज्यपाल नियुक्त किए गए हैं। लेकिन अभी तक किसी ने भी खान जैसा रुख नहीं अपनाया है। उन्होंने आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत से त्रिशूर में एक आरएसएस नेता के घर पर मुलाकात की। देश में किसी भी संवैधानिक संस्था को ऐसा स्टैंड नहीं लेना चाहिए था। उन्होंने न केवल अपने आरएसएस के झुकाव को दिखाया है, बल्कि सार्वजनिक रूप से इसका प्रदर्शन भी किया है।”