उत्तराखंड में त्रिपुरा के रहने वाले एंजेल चकमा को कुछ लोगों ने बेरहमी से पीट-पीटकर मार डाला। बताया जा रहा है कि विवाद की शुरुआत किसी छोटी बात से हुई थी, लेकिन आरोपियों ने जल्द ही नस्लीय और अपमानजनक टिप्पणियां शुरू कर दीं। एंजेल चकमा को ‘चाइनीज’ कहा गया, ‘मोमो’ जैसे शब्दों से बुलाया गया और उनकी खुलेआम बेइज्जती की गई।
एंजेल चकमा अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी मौत के साथ पूरे देश के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है। सवाल यह है कि क्या एंजेल चकमा को ‘चीनी’ कहने वाले लोग त्रिपुरा के इतिहास से अनजान थे, या फिर नफरत की सोच इतनी हावी हो चुकी है कि देश के पूर्वोत्तर राज्यों के योगदान को पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया जा रहा है।
यह कोई पहली घटना नहीं है, जब पूर्वोत्तर के किसी युवा के साथ इस तरह का व्यवहार किया गया हो। जगह बदलती रहती है, राज्य बदल जाते हैं, लेकिन नफरत की सोच पीछा नहीं छोड़ती। इसी सोच का जवाब है त्रिपुरा का गौरवशाली इतिहास।
आजादी से पहले के त्रिपुरा को कितना जानते हैं?
भले ही त्रिपुरा राष्ट्रीय आंदोलन के बड़े केंद्रों से दूर रहा हो, लेकिन भारत की आज़ादी की लड़ाई में उसकी भूमिका को कभी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। आज़ादी से पहले त्रिपुरा पर माणिक्य वंश का शासन था। इस वंश के शासनकाल में त्रिपुरा की जनता में देशभक्ति की भावना बेहद प्रबल थी। इतिहासकार बताते हैं कि ब्रिटिश हुकूमत के साथ माणिक्य वंश के रिश्ते काफी जटिल थे। पहली नज़र में यह वंश अंग्रेज़ों का वफादार दिखता था, लेकिन ज़मीनी हकीकत यह थी कि इसी शासनकाल में आम जनता को कई राष्ट्रव्यापी आंदोलनों से जोड़ा गया, जिन्होंने भारत को आज़ादी की राह पर आगे बढ़ाया।
माणिक्य वंश की कहानी
माणिक्य वंश के राजाओं ने अंग्रेज़ों के साथ औपचारिक संबंध निभाए, लेकिन देश के प्रति अपनी वफादारी कभी नहीं छोड़ी। उन्होंने ऐसा संतुलन बनाया कि अंग्रेज़ नाराज़ भी न हों और त्रिपुरा की जनता धीरे-धीरे राष्ट्रीय चेतना से जुड़ती चली जाए। 20वीं सदी की शुरुआत में महाराजा बीर चंद्र माणिक्य ने शिक्षा, प्रशासन और ढांचे में बड़े सुधार शुरू किए। इसके चलते त्रिपुरा में पढ़े-लिखे युवाओं की एक नई पीढ़ी तैयार हुई, जिसने आगे चलकर आज़ादी के आंदोलन में अहम भूमिका निभाई।
शिक्षा का महत्व समझता त्रिपुरा
उनके बाद महाराजा राधाकिशोर माणिक्य और फिर महाराजा बीर बिक्रम किशोर माणिक्य ने इन सुधारों को आगे बढ़ाया। बीर बिक्रम किशोर माणिक्य के शासनकाल में त्रिपुरा ने समय से काफी पहले आधुनिक शिक्षा पर फोकस शुरू कर दिया। उनके दौर में कई स्कूल और शैक्षणिक संस्थान खोले गए, जिससे युवाओं में राजनीतिक जागरूकता बढ़ी। उन्होंने अंग्रेज़ों से संबंध भी बनाए रखे और राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं से भी संपर्क में रहे। यही वजह थी कि त्रिपुरा में आज़ादी की सोच जड़ पकड़ती चली गई।
त्रिपुरा की भौगोलिक स्थिति भी अहम थी। इसकी सीमाएं पश्चिम बंगाल और असम से लगती थीं। इसी वजह से बंगाल में सक्रिय क्रांतिकारी संगठनों—जैसे अनुशीलन समिति और जुगांतर का प्रभाव त्रिपुरा तक पहुंचा। इन संगठनों ने त्रिपुरा की आम जनता को भी आज़ादी के आंदोलन का हिस्सा बनाया। नेताजी सुभाष चंद्र बोस और आज़ाद हिंद फौज की विचारधारा भी त्रिपुरा की रग-रग में बस चुकी थी।
गांधी के हर आंदोलन के साथ जुड़ा त्रिपुरा
अक्सर यह गलतफहमी रहती है कि पूर्वोत्तर का राज्य होने के कारण त्रिपुरा की आज़ादी की लड़ाई में बड़ी भूमिका नहीं रही। लेकिन सच्चाई इसके बिल्कुल उलट है। त्रिपुरा के लोगों ने स्वदेशी आंदोलन (1905–1911), असहयोग आंदोलन (1920–1922), सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन (1942) में सक्रिय भागीदारी निभाई। स्वदेशी आंदोलन का असर त्रिपुरा में खास तौर पर दिखा, क्योंकि यह पश्चिम बंगाल से सटा हुआ था। असहयोग आंदोलन के दौरान त्रिपुरा के कई युवाओं ने अंग्रेज़ों द्वारा चलाए जा रहे शैक्षणिक संस्थानों को छोड़ दिया और स्वराज के सपने से जुड़ गए।
त्रिपुरा के आदिवासी हैं असली हीरो
त्रिपुरा बाकी राज्यों से इसलिए भी अलग रहा, क्योंकि यहां आज़ादी की आवाज़ शहरों से नहीं, बल्कि गांवों से उठी। यहां आंदोलन की अगुवाई बड़े पैमाने पर आदिवासी समुदाय ने की। अंग्रेज़ों की नीतियों के कारण आदिवासियों की ज़मीन छीनी जा रही थी और उनका शोषण बढ़ता जा रहा था। यही वजह थी कि आदिवासी समुदाय अंग्रेज़ों के खिलाफ एकजुट हुआ।
इस संघर्ष में आदिवासी नेता दशरथ देव का योगदान बेहद अहम रहा। उन्होंने अलग-अलग आदिवासी संगठनों को एकजुट किया, लोगों को शिक्षा का महत्व समझाया और राजनीतिक रूप से जागरूक किया। बाद में वे त्रिपुरा के मुख्यमंत्री भी बने। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान आदिवासी समुदाय बड़े पैमाने पर मार्च और विरोध प्रदर्शनों में आगे रहा। दशरथ देव के अलावा बीरेंद्र किशोर, बीर बिक्रम किशोर माणिक्य और सचिंद्र लाल सिंह जैसे नेताओं ने भी आज़ादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
पाकिस्तान नहीं भारत के साथ गया त्रिपुरा
भारत की आज़ादी के बाद त्रिपुरा के सामने विकल्प था- पाकिस्तान में शामिल होने का या भारत में विलय का। महाराजा बीर बिक्रम किशोर माणिक्य की पत्नी महारानी कंचन प्रभा देवी ने ऐतिहासिक फैसला लेते हुए भारत के साथ जाने का निर्णय किया। 15 अक्टूबर 1949 को त्रिपुरा ने इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन पर हस्ताक्षर किए और भारतीय संघ में शामिल हो गया। बाद में 1972 में त्रिपुरा को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला।
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