भारत का संविधान दुनिया का सबसे विस्तृत संविधान है। इसे एक जीवंत दस्तावेज माना जाता है। देश ने अपनी 75 साल की यात्रा इसी दस्तावेज के प्रकाश में तय की है। 2 वर्ष 11 महीने और 18 दिन के बहस-मुबाहिसा और कड़ी मेहनत के बाद संविधान 26 नवम्बर 1949 को तैयार हुआ था। इसके ठीक चार दिन बार 30 नवम्बर 1949 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के मुखपत्र आर्गनाइजर ने सम्पादकीय लिखकर संविधान की जगह मनुस्मृति की मांग की थी।

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‘भारतीय हिंदुओं को मनुस्मृति स्वीकार्य’

आरएसएस के मुखपत्र में लिखा था, ”भारत के नए संविधान की सबसे खराब बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है। यह प्राचीन भारतीय संवैधानिक कानूनों, संस्थाओं, शब्दावली और मुहावरों की कोई बात नहीं करता। प्राचीन भारत की अद्वितीय संवैधानिक विकास यात्रा के भी कोई निशान यहाँ नहीं हैं। स्पार्टा के लाइकर्जस या फारस के सोलन से भी काफी पहले मनु का कानून लिखा जा चुका था। आज भी मनुस्मृति की दुनिया तारीफ करती है। भारतीय हिंदुओं के लिए तो वह सर्वमान्य व सहज स्वीकार्य है, मगर हमारे कॉन्स्टिट्यूशनल पंडितों के लिए इस सब का कोई अर्थ नहीं है।” इस संपादकीय का जिक्र इंडियन एक्सप्रेस में लिखे इतिहासकार रामचंद्र गुहा और द हिंदू में लिखे प्रोफेसर नीरा चंदोके के आर्टिकल में मिलता है।

कांग्रेस नेता के. राजू ने अपनी किताब The Dalit Truth में लिखा है, ”11 दिसंबर 1949 को दिल्ली के रामलीला मैदान में आरएसएस, हिंदू महासभा और राम राज्य परिषद समेत अन्य हिंदू दक्षिणपंथी संगठनों ने हिंदू कोड बिल के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया था। इस दौरान हिंदू कोड बिल मुर्दाबाद के नारे लगे। साथ ही संविधान सभा के प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ अम्बेडकर का पुतला भी जलाया गया। रामराज्य परिषद के करपात्री ने डॉ. अम्बेडकर के खिलाफ जातिवादी टिप्पणी करते हुए कहा, एक अछूत को ब्राह्मणों के लिए आरक्षित मामलों में हस्तक्षेप करने से बचना चाहिए।”

‘अंग्रेजों से ज्यादा संविधान ने पहुंचाया नुकसान’

26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू हुआ था। इससे एक दिन पहले 25 जनवरी को उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश शंकर सुब्बा अय्यर ने आर्गनाइजर में  “मनु रूल्स अवर हार्ट्स” शीर्षक से एक लेख लिखा था। लेख में अय्यर ने मनुस्मृति को भारत के मूल कानून के रूप में लागू करने की मांग की और यह साबित करने की कोशिश की मनुस्मृति ही भारतीयों के दिल में बसता है।

डेक्कन हेराल्ड में प्रकाशित वरिष्ठ अधिवक्ता ए जे नूरानी के लेख से पता चलता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 1 जनवरी, 1993 को एक श्वेत पत्र प्रकाशित संविधान को हिंदू विरोधी बताया था। इसके प्रस्तावना में स्वामी हीरानंद ने लिखा था, ”संविधान देश की संस्कृति, चरित्र, परिस्थितियों, स्थिति आदि के विपरीत है। हमें अपनी आर्थिक नीति, न्यायिक और प्रशासनिक ढांचे और अन्य राष्ट्रीय संस्थाओं के बारे में नए सिरे से सोचना होगा और यह केवल वर्तमान संविधान को रद्द करने के बाद ही होगा। अंग्रेजों के 200 साल लंबे शासन से उतनी क्षति नहीं हुई, जितना नुकसान हमारे संविधान ने कर दिया।”