Punjab Congress on Delimitation: देश की राजनीति में इन दिनों परिसीमन को लेकर अच्छी-खासी तनातनी चल रही है। दक्षिणी राज्यों को इस बात का डर है कि परिसीमन के बाद उनकी लोकसभा की सीटें कम हो सकती हैं। विशेषकर तमिलनाडु ने परिसीमन के खिलाफ पुरजोर ढंग से आवाज उठाई है। बताना होगा कि 1973 में हुए परिसीमन के बाद से संसद और राज्यों में सीटों की संख्या स्थिर है। 2026 के बाद होने वाली जनगणना के आधार पर अगला परिसीमन किया जाना है।
हैरानी की बात है कि दक्षिण के अलावा परिसीमन के खिलाफ आवाज अब उत्तर भारत के राज्य पंजाब से भी उठी है। पंजाब विधानसभा में विपक्ष के नेता प्रताप सिंह बाजवा ने हाल ही में पंजाब के सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से कहा है कि वे साथ मिलकर परिसीमन के मामले पर चर्चा करें और अगर जरूरत पड़ती है तो मिलकर इसका विरोध करें। आइए, इस मामले को थोड़ा ढंग से समझने की कोशिश करते हैं। बात पहले दक्षिण के राज्यों से शुरू करते हैं।

क्या है दक्षिण के राज्यों की चिंता?
दक्षिण भारत के राज्यों को इस बात का डर है कि परिसीमन के बाद उत्तर भारत में लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ सकती है जबकि दक्षिण की हिस्सेदारी कम हो सकती है। बताना होगा कि भारत में लोकसभा सीटों का परिसीमन जनसंख्या के हिसाब से होता है। जनसंख्या के हिसाब से परिसीमन होने पर न सिर्फ तमिलनाडु बल्कि दक्षिण के अन्य राज्यों- आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और तेलंगाना में भी लोकसभा सीटों की संख्या कम हो सकती है। दूसरी ओर उत्तर भारत के राज्यों में सीटें बढ़ेंगी। ऐसा इसलिए क्योंकि उत्तर भारत में आबादी ज्यादा है इसलिए यहां लोकसभा की सीटें बढ़ेंगी और इसका मतलब यह होगा कि संसद में उत्तर भारत की आवाज दक्षिण के मुकाबले ज्यादा मजबूत होगी।
तमिलनाडु और दक्षिण के अन्य राज्यों की इसी चिंता को देखते हुए केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने हाल ही में कहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकसभा में स्पष्ट कर चुके हैं कि परिसीमन के बाद भी दक्षिण के किसी भी राज्य की सीट कम नहीं होगी।
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क्या कहते हैं सीएम स्टालिन?
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन कहते हैं कि तमिलनाडु और अन्य दक्षिण भारतीय राज्यों को जनसंख्या आधारित परिसीमन की वजह से नुकसान होगा क्योंकि उन्होंने बढ़ती जनसंख्या को काबू किया है। उन्होंने हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपील की कि 1971 की जनसंख्या के आधार पर ही सीटों का बंटवारा हो और इसे 2026 के बाद अगले 30 साल के लिए बढ़ा दिया जाना चाहिए।
स्टालिन की असली चिंता आंकड़ों के गणित को लेकर है। मौजूदा वक्त में तमिलनाडु में 39 लोकसभा सीटें हैं और लोकसभा की 543 सीटों के हिसाब से तमिलनाडु की हिस्सेदारी 7% है। अगर लोकसभा सीटों की संख्या देशभर में बढ़कर 848 हो जाती है और जनसंख्या के आधार पर सीटों का बंटवारा होता है तो तमिलनाडु के पास बढ़कर 45 सीटें हो जाएगी लेकिन कुल सीटों की हिस्सेदारी में उसका प्रतिशत घटकर 5% रह जाएगा। लेकिन अगर 1971 का जनसंख्या वाला अनुपात रखा जाए तो तमिलनाडु को 59 सीटें मिलेगी जिससे उसकी हिस्सेदारी 7% पर कायम रहेगी।
यदि लोकसभा में सांसदों की सीटों की संख्या 543 ही रखी जाए और परिसीमन नई जनगणना के आधार पर हो तो तमिलनाडु में सीटों की संख्या घटकर 30 रह जाएगी और उसकी हिस्सेदारी घटकर 5.5% रह जाएगी। इसलिए मुख्यमंत्री स्टालिन ने कहा है कि लोकसभा सीटों का निर्धारण केवल जनसंख्या के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने तमिलनाडु के सभी राजनीतिक दलों से इस मुद्दे पर एकजुट होने की अपील की है।

मनीष तिवारी ने क्या कहा?
अब एक बार फिर से बात करते हैं पंजाब की। प्रताप सिंह बाजवा से पहले चंडीगढ़ से कांग्रेस के सांसद मनीष तिवारी ने भी परिसीमन के मुद्दे को लेकर अपनी बात रखी थी। मनीष तिवारी ने कहा था कि यदि परिसीमन ‘एक नागरिक, एक वोट और एक समान मूल्य’ के आधार पर लागू होता है तो लोकसभा और राज्यसभा में उत्तर भारतीय राज्यों की कुल हिस्सेदारी घट जाएगी।
तिवारी ने कहा था कि इस परिसीमन से केवल मध्य भारत के राज्यों को लाभ होगा जबकि पंजाब और हरियाणा के बीच तनाव बढ़ सकता है। उन्होंने सवाल किया, ‘क्या पंजाब हरियाणा के बराबर लोकसभा सीटें स्वीकार करेगा?’ मौजूदा वक्त में पंजाब में 13 और हरियाणा में 10 लोकसभा सीटें हैं। हरियाणा में जनसंख्या वृद्धि पंजाब की तुलना में ज्यादा है और इसका एक कारण National Capital Region (NCR) में अन्य राज्यों से लगातार आ रहे लोग भी हैं।
पंजाब हरियाणा को अपना ‘छोटा भाई’ माना है क्योंकि इसे 1966 में पंजाब से अलग करके बनाया गया था। दोनों राज्यों के बीच राजधानी चंडीगढ़ के अलावा सतलुज यमुना लिंक (एसवाईएल) नहर की वजह से भी राजनीतिक लड़ाई चलती रहती है।
प्रताप सिंह बाजवा का क्या है तर्क?
कांग्रेस नेता प्रताप सिंह बाजवा का कहना है कि यदि लोकसभा की कुल सीटें 848 होती हैं तो भी पंजाब को बहुत कम फायदा होगा जबकि उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों को ज्यादा सीटें मिलेंगी क्योंकि इन राज्यों में जनसंख्या ज्यादा है। बाजवा ने कहा कि बीजेपी इन सभी राज्यों में मजबूत है और पंजाब उत्तर भारत के उन राज्यों में से है जहां बीजेपी अब तक अपनी पकड़ मजबूत नहीं कर सकी है। इस आधार पर बाजवा का कहना है कि बीजेपी परिसीमन की मौजूदा प्रणाली को ही बनाए रखने की कोशिश करेगी। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि मोदी सरकार पंजाब के खिलाफ साजिश रच रही है।
संवैधानिक प्रक्रिया है परिसीमन: बीजेपी
बीजेपी का इस मामले में स्पष्ट रूप से कहना है कि परिसीमन एक संवैधानिक प्रक्रिया है। पंजाब बीजेपी के मीडिया प्रमुख विनीत जोशी ने The Indian Express से कहा, ‘कांग्रेस की सरकारों के दौरान 1951, 1961 और 1971 में लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा सीटों का परिसीमन हुआ था। यह प्रक्रिया जनगणना पर आधारित थी। क्या वह गलत थी? अगर नहीं, तो कांग्रेस के नेता अब डरे हुए क्यों हैं?’
इस मामले में हरियाणा कांग्रेस के अध्यक्ष उदयभान ने सुझाव दिया कि राष्ट्रीय स्तर पर सभी दलों की बैठक बुलाई जानी चाहिए ताकि सभी की सहमति से परिसीमन की प्रक्रिया को शुरू किया जाए। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने कहा कि जनगणना के बाद ही परिसीमन का मुद्दा सामने आएगा।
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संविधान में संशोधन करना होगा
यहां यह भी समझना जरूरी होगा कि जनसंख्या के आधार पर परिसीमन किया जाना संविधान के द्वारा निर्धारित प्रक्रिया है। इसे बदलने के लिए संविधान में संशोधन की जरूरत संविधान में संशोधन की जरूरत होगी। आपातकाल के दौरान 42वें संविधान संशोधन के तहत संसद और विधानसभा सीटों की संख्या को 2001 तक स्थिर रखा गया था। 2002 में 84वें संशोधन के तहत यह प्रावधान 2026 तक बढ़ा दिया गया।
संविधान के अनुच्छेद 81 के तहत लोकसभा में कुल सीटों की संख्या 550 से अधिक नहीं हो सकती। ऐसे में केंद्र सरकार सीटों की संख्या बढ़ाने का फैसला करती है, तो इसके लिए उसे दो-तिहाई बहुमत से संविधान संशोधन कराना होगा। लेकिन अगर सीटों की संख्या नहीं बढ़ती है तो जनगणना आधारित परिसीमन से लोकसभा में दक्षिणी राज्यों को नुकसान हो सकता है। यह साफ है कि आने वाले दिनों में दक्षिण के राज्यों में तो परिसीमन को लेकर विरोध तेज हो ही सकता है, उत्तर भारत में भी इसे लेकर मजबूत आवाज उठ सकती है।
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