अंग्रेजों की 200 साल की गुलामी से मुक्त होने के बाद भी भारत की मुसीबतें कम नहीं हुई थीं। आजादी के बाद भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती 500 से ज्यादा रियासतों में बंटे भारत को इकट्ठा कर एक मुक्कमल राष्ट्र बनाना था। आइए जानते हैं उन रियासतों के बारे में जिन्होंने भारत में शामिल होने से इनकार कर दिया था:

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त्रावणकोर रियासत:

त्रावणकोर रियासत ने ही भारत में विलय से सबसे पहले इनकार किया था। यह रियासत समुद्री व्यापार और खनिज संसाधनों के मामले में समृद्ध था। कांग्रेस नेतृत्व पर सवाल उठाते हुए विलय से हाथ खींचने वाले त्रावणकोर रियासत के दीवान का नाम सर सीपी रामास्वामी अय्यर था। वह एक वकील भी थे। इतिहासकार रामचंद्र गुहा मानते हैं कि अय्यर को विलय ना करने की सलाह मोहम्मद अली जिन्ना ने दी थी। विलय से पीछे हटने की दूसरी वजह अय्यर और ब्रिटिश सरकार के बीच हुए कथित गुप्त समझौते को भी माना जाता है।

बताया जाता है कि इस समझौते के तहत ब्रिटिश त्रावणकोर से निकलने वाले खनिजों पर अपना नियंत्रण रखना चाहते थे। जुलाई 1947 के अंत तक दीवान अपने पद पर बने हुए थे। त्रावणकोर की जनता अय्यर के फैसले से नाराज थी। लोग प्रदर्शन कर रहे थे। हालांकि दीवान पर इसका असर नहीं पड़ रहा था। तभी केरल सोशलिस्ट पार्टी के एक सदस्य ने दीवान के हत्या का प्रयास किया। जान बची तो दीवान ने अपना विचार बदल लिया और 30 जुलाई 1947 को त्रावणकोर भारत में शामिल हो गया।

जोधपुर रियासत:

इस रियासत का राजा और इसकी बड़ी आबादी हिंदू थी। बावजूद इसके महाराजा हनवंत सिंह जोधपुर रियासत को पाकिस्तान का हिस्सा बनना चाहते थे। सिंह को मोहम्मद अली जिन्ना ने लालच दिया था कि अगल वह पाकिस्तान का हिस्सा बनते हैं तो कराची बंदरगाह पर उनका पूर्ण नियंत्रण होगा। साथ ही जिन्ना ने सैन्य और कृषि सहायता देने का भी वादा किया। जब सरदार वल्लभभाई पटेल को इसकी भनक लगी तो उन्होंने तुरंत राजकुमार से संपर्क किया और पर्याप्त लाभ की पेशकश की।

पटेल ने उन्हें मुस्लिम राज्य में शामिल होने की समस्याओं के बारे में भी बताया। आखिरकार जोधपुर के राजकुमार भारत में विलय को तैयार हो गए। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब “इंडिया आफ्टर गांधी” में लिखा है, ”विलय संधि पेश किए जाने पर, जोधपुर के राजकुमार ने नाटकीय रूप से एक रिवॉल्वर निकाला और सचिव के सिर पर यह कहते हुए रख दिया, “मैं आपकी आज्ञा को स्वीकार नहीं करूंगा”। हालांकि, कुछ मिनट बाद वह शांत हुए और दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिया।”

भोपाल रियासत:

आजादी के बाद भोपाल रियासत ने भी विलय से इनकार कर दिया था। इस रियासत के नवाब हमीदुल्लाह खान कांग्रेस के कट्टर विरोधी और मुस्लिम लीग के करीबी थे। वह भोपाल को पाकिस्तान का हिस्सा बनाना चाहते थे। हालांकि रियासत की बड़ी आबादी हिंदू थी, जो इस फैसले का विरोध कर रही थी। भौगोलिक स्थिति भी पाकिस्तान में विलय की गवाही नहीं दे रही थी। लेकिन नवाब जिद छोड़ने को तैयार नहीं थी। भारत की आजादी के बाद भी भोपाल में तिरंगा नहीं फहराया जाता था। सरकार के साथ लम्बी खींचतान के बाद जुलाई 1947 में भोपाल का भारत में विलय हो गया।

हैदराबाद रियासत:

हैदराबाद रियासत का मामला भारत सरकार के लिए अधिक चुनौतीपूर्ण रहा। देश की आजादी के दौरान निजाम मीर उस्मान अली बड़े पैमाने पर हिंदू आबादी की अध्यक्षता कर रहे थे। जब अंग्रेजों ने देश छोड़ने का फैसला किया तो निजाम ने बहुत स्पष्टता के साथ अपने लिए स्वतंत्र राज्य की मांग रखी। वह चाहते थे कि हैदराबाद को ब्रिटिश कॉमनवेल्थ के तहत एक स्वतंत्र राष्ट्र घोषित किया जाए। जिन्ना भी निजाम का खुलकर समर्थन कर रहे थे। हालांकि लॉर्ड माउंटबेटन ने यह स्पष्ट कर दिया कि क्राउन हैदराबाद को ब्रिटिश राष्ट्रमंडल का सदस्य बनाने के लिए सहमत नहीं हैं, सिवाय दो नए उपनिवेशों के।

जिन्ना ने भारत में सबसे पुराने मुस्लिम राजवंश की रक्षा करने का वचन दिया था। लेकिन पटेल का मानना था कि एक स्वतंत्र हैदराबाद भारत के पेट में कैंसर होने के बराबर है। भारत ने थोड़ा इंतजार किया और जून 1948 में माउंटबेटन के इस्तीफे के बाद सरकार ने निर्णायक कदम उठाया। 13 सितंबर को भारतीय सैनिक हैदराबाद पहुंचे और सिर्फ चार दिन बाद निजाम ने हथियार डाल दिए। इस कारनामे को ‘ऑपरेशन पोलो’ के नाम से जाना गया। विलय के बाद भारत सरकार ने निजाम को हैदराबाद का राज्यपाल बना दिया।

जूनागढ़ रियासत:

हैदराबाद के अलावा एक और राज्य था जो 15 अगस्त, 1947 तक भारतीय संघ में शामिल नहीं हुआ था। गुजराती राज्य जूनागढ़। जूनागढ़ काठियावाड़ राज्यों के समूह में सबसे महत्वपूर्ण था। यहां के नवाब मुहम्मद महाबत खानजी भी एक बड़ी हिंदू आबादी पर शासन करते थे। 1947 की शुरुआत में जूनागढ़ के दीवान नबी बख्श ने मुस्लिम लीग के सर शाह नवाज भुट्टो को राज्य मंत्री परिषद में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया। मौजूदा दीवान की अनुपस्थिति में भुट्टो ने कार्यालय संभाला और नवाब पर पाकिस्तान में शामिल होने के लिए दबाव डाला। जब पाकिस्तान ने जूनागढ़ के विलय के अनुरोध को स्वीकार किया तो भारतीय नेता क्रोधित हो गए क्योंकि यह जिन्ना के दो राष्ट्र सिद्धांत के खिलाफ था।

जूनागढ़ में अशांत स्थिति के कारण अर्थव्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई और परिणामस्वरूप नवाब कराची भाग गए। अंततः वल्लभभाई पटेल ने तीन रियासतों पर कब्जा करने के लिए सैनिकों को भेजा। धन और बलों की भारी कमी के कारण, दीवान को भारत सरकार में शामिल होने के लिए मजबूर होना पड़ा। आखिरकार 20 फरवरी, 1948 को राज्य में एक जनमत संग्रह हुआ, जिसमें 91 प्रतिशत मतदाताओं ने भारत में शामिल होने का फैसला किया।

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First published on: 12-08-2022 at 12:05 IST