आपातकाल के 19 महीने बाद 18 जनवरी, 1977 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा ने अचानक ही मार्च में लोकसभा चुनाव कराने का ऐलान कर दिया। जबकि लोकसभा का कार्यकाल नवंबर में खत्म होने वाला था। विपक्ष से लेकर पत्रकार तक, इंदिरा गांधी के इस फैसले से सब अचंभित थे। प्रधानमंत्री के ऐलान के बाद चुनावी की तैयारियां शुरू हुईं। मतदान करीब आने पर पत्रकार तवलीन सिंह अपनी पहली चुनावी रिपोर्टिंग पर निकलीं।
तब वह पुरानी दिल्ली में रहा करती थीं। उन्हें उसी क्षेत्र का मतदान कवर करने की जिम्मेदारी मिली। पुराने शहर के रास्ते वह मतदान केंद्रों तक पहुंची, जो लगभग खाली थे। सिंह लिखती हैं, “मतदाताओं की कम संख्या देखकर मुझे दुख हुआ। क्योंकि इसका मतलब था कि इंदिरा गांधी जीत जाएंगी। मैंने पहले कभी कोई चुनाव कवर नहीं किया था, लेकिन मुझे ऐसा बताया गया था कि मतदाताओं की अधिक संख्या आम तौर पर विपक्ष के लिए अच्छा संकेत होता है।”
‘जय नसबंदी, जय बुलडोजर’
तवलीन सिंह को दरियागंज में कुछ मतदान केंद्रों पर लोगों की लाइन दिखी। आगे बढ़ने पर उर्दू बाजार में कुछ खास चहल-पहल नहीं थी। जब वह करीम के पास स्थित एक मतदान केंद्र पर पहुंचीं तो मतदाताओं के बीच फैल रही एक अफवाह का पता चला। दरअसल, किसी ने यह झूठ फैला दिया था कि इंदिरा गांधी ने मतपत्रों के लिए ऐसी स्याही की व्यवस्था की है, जिससे उन्हें पता चल जाएगा कि किसने उनके खिलाफ वोट किया है।
तवलीन सिंह मतदाताओं से इन अफवाहों के बारे में बात कर रही थीं तभी उन्हें जय बुलडोजर! जय नसबंदी! के नारे सुनाई दिए। दरअसल, यह एक जुलूस था जो हर मतदान केंद्र के सामने रुक-रुककर जय नसबंदी! जय बुलडोजर! के नारे लगा रहा था।
तवलीन सिंह लिखती हैं, “यह लोगों को पिछले दो वर्षों के दमन को याद दिलाने के लिए था, जिससे वह कांग्रेस पार्टी के खिलाफ बिना डरे मतदान कर सके। जल्द ही मतदाता अपने मतपत्रों पर मुहर लगाते हुए नारे दोहरा रहे थे। कुछ तो मतपत्रों को मतदान केंद्र के अंदर ही लहराने लगे। जल्द ही चुनाव एक उत्सव में बदल गया था। कतारें लंबी होती गईं, मतदाताओं का उत्साह बढ़ता गया। मतदान के अंत तक तो मतदाता ऐसा व्यवहार करने लगे मानो वह इंदिरा गांधी को पहले ही हरा चुके हैं।”
आपातकाल, नसबंदी और बुलडोजर
साल 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत 25 जून को देश में आपातकाल लगाया था। इस घटना को अब 48 साल हो चुके हैं। आपातकाल के दौरान इंदिरा सरकार ने नागरिकों के मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया था। तब नागरिकों के अधिकारों का जमकर दमन हुआ। जनसंख्या नियंत्रण करने के नाम पर इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी ने व्यापक स्तर पर नसबंदी का अभियान चलाया था। तब ऐसी खबरें भी छपी कि पुलिस ने गांव को घेर लिया, जिसके बाद पुरुषों को घर से खींच-खींचकर जबरन उनकी नसबंदी कर दी गई।
बीबीसी हिंदी ने पत्रकार मारा विस्टेंडाल के हवाले से बताया है कि इमरजेंसी के दौरान एक साल में 62 लाख लोगों की नसबंदी की गई थी। पत्रकार इसकी तुलना नाजियों द्वारा की गई नसबंदियों से करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि आपातकाल के दौरान की गई नसबंदी की संख्या नाजियों द्वारा की गई नसबंदी से भी 15 गुना अधिक थी। सरकार के इस कथित जनसंख्या नियंत्रण अभियान का शिकार गरीब लोग ही ज्यादा हुए।
नसबंदी की तरह बुलडोजर की कार्रवाई भी तब चर्चा में थी। प्रशासनिक दृष्टि से आपातकाल देश के लिए डरावना था। वर्तमान में बुलडोजर की कार्रवाई को भले ही उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार से जोड़कर देखा जाता हो लेकिन इतिहास बुलडोजर के राजनीतिक इस्तेमाल श्रेय कांग्रेस को देता है।
पुपुल जयकर और सागरिका घोष समेत इंदिरा गांधी के कई जीवनीकार इस बात को पूरी स्पष्टता से बताते हैं कि आपातकाल के दौरान संजय गांधी अपनी मां और देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समानांतर एक सरकार चला रहे थे। संजय गांधी ने दिल्ली के कनॉट प्लेस स्थित कॉफी हाउस पर सिर्फ इसलिए बुलडोजर चलवा दिया था क्योंकि उन्हें संदेह था कि वहां बैठकी करने वाले पत्रकार, लेखक, बुद्धिजीवी, आदि आपातकाल की आलोचना करते हैं।