कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI) अपनी स्थापना की तारीख 26 दिसंबर, 1925 मानती है। इसी दिन देश भर के कम्युनिस्ट समूहों ने कांवपुर (अब कानपुर) में एक बैठक की थी, जिसे भारतीय धरती पर एक अखिल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के गठन की दिशा में पहला संगठित प्रयास माना जाता है। एक सदी बाद, यह जरूरी हो जाता है कि उन परिस्थितियों और घटनाओं पर नजर डाली जाए, जिनके चलते यह बैठक हुई, और यह समझा जाए कि भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन की जड़ें कैसे पड़ीं।
वैश्विक पृष्ठभूमि: फ्रांसीसी क्रांति, मार्क्स और लेनिन
फ्रांसीसी क्रांति (1789) और नेपोलियन युद्धों (1796–1815) के बाद यूरोप राजनीतिक रूप से दो स्पष्ट धाराओं में बंट गया। एक ओर राजशाही समर्थक और पुरानी व्यवस्था के रक्षक थे, तो दूसरी ओर गणतंत्रवाद और आधुनिक परिवर्तन के समर्थक। यही विभाजन आगे चलकर दक्षिणपंथी और वामपंथी राजनीति के रूप में पहचाना गया।
आर्थिक स्तर पर औद्योगीकरण ने जहां समृद्धि पैदा की, वहीं उसने असमानताओं से भरा एक समाज भी रचा। इसी राजनीतिक-आर्थिक परिदृश्य में इंग्लैंड में रह रहे जर्मन दार्शनिक कार्ल मार्क्स ने कम्युनिस्ट पार्टियों के लिए एक घोषणापत्र तैयार किया। उनका उद्देश्य था पूरे मानव समाज को पूंजीवाद से समाजवाद की ओर ले जाना। मार्क्स का मानना था कि पूंजीवादी व्यवस्था, जो मुख्यतः यूरोप में केंद्रित थी, अपने आंतरिक विरोधाभासों के कारण स्वयं ढह जाएगी और उसकी जगह एक अधिक न्यायपूर्ण समाजवादी व्यवस्था ले लेगी।
मार्क्स को उम्मीद थी कि यह परिवर्तन सबसे पहले पश्चिमी यूरोप में होगा, लेकिन इसके विपरीत पहली सफल समाजवादी क्रांति 1917 में रूसी साम्राज्य में हुई। यह इलाका आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ था और जार के निरंकुश शासन के अधीन था।
रूसी क्रांति, जिसे बोल्शेविक या समाजवादी क्रांति भी कहा जाता है, मध्ययुगीन राजशाही, आधुनिक पूंजीवाद और उसके विस्तारवादी रूप – साम्राज्यवाद – के खिलाफ थी। इसी कारण साम्राज्यवादी प्रभुत्व में जी रहे गैर-यूरोपीय देशों में इसका गहरा असर पड़ा। एशिया और अफ्रीका के कई हिस्सों में सोवियत और कम्युनिस्ट पार्टियां उभरने लगीं। भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन भी रूसी क्रांति और उसके प्रमुख नेता व्लादिमीर लेनिन से गहराई से प्रेरित था।
भारत में तीन राजनीतिक धाराएं
भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के गठन में मोटे तौर पर तीन राजनीतिक धाराओं का योगदान रहा।
पहली धारा एम. एन. रॉय के नेतृत्व में उभरी। रॉय एक मार्क्सवादी क्रांतिकारी थे, जिन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका, मैक्सिको, बर्लिन और बाद में सोवियत संघ में समय बिताया। उनका लक्ष्य भारत की आजादी के लिए धन और हथियार जुटाना था।
1920 में रॉय सोवियत संघ के नेतृत्व वाले कम्युनिस्ट इंटरनेशनल (कॉमिन्टर्न) की एक बैठक में भारतीय प्रतिनिधि बने। इस बैठक में औपनिवेशिक देशों की परिस्थितियों पर चर्चा हुई। कॉमिन्टर्न ने निर्देश दिया कि इन देशों के कम्युनिस्ट पहले साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष पर ध्यान दें और इसके लिए सभी साम्राज्यवाद-विरोधी ताकतों के साथ अस्थायी गठबंधन करें। इसी क्रम में सोवियत तुर्किस्तान के ताशकंद में एशियाई प्रतिनिधियों की एक बैठक बुलाने का निर्णय लिया गया।
इसी दौर में बर्लिन में वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय के नेतृत्व में और काबुल में राजा महेंद्र प्रताप के नेतृत्व में प्रवासी भारतीय क्रांतिकारियों के अन्य समूह भी सक्रिय थे।
दूसरी धारा प्रवासी प्रयासों से अलग थी। यह भारत के भीतर उभरे स्वतंत्र वामपंथी समूहों की थी – लाहौर में गुलाम हुसैन, बॉम्बे (अब मुंबई) में एस. ए. डांगे, कलकत्ता (अब कोलकाता) में मुजफ्फर अहमद और मद्रास में सिंगारवेलु एम. चेट्टियार के नेतृत्व में। ये सभी समूह अधिक प्रभावी राजनीतिक काम के लिए आपसी तालमेल की संभावनाएँ तलाश रहे थे।
तीसरी धारा मजदूरों और किसानों के संगठनों की थी, जो 1920 के दशक तक आकार लेने लगे थे। 1920 में लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एआईटीयूसी) का गठन इसी प्रक्रिया का हिस्सा था।
आखिरकार, ये तीनों धाराएं किसी न किसी रूप में भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में समाहित हो गईं।
ताशकंद और कानपुर: दो बैठकों की कहानी
कॉमिन्टर्न के निर्णय के अनुसार ताशकंद में एशियाई प्रतिनिधियों की बैठक आयोजित की गई। उस समय दो भारतीय क्रांतिकारी – अब्दुल रब और त्रिंबुल आचार्य – मध्य एशिया में सक्रिय थे। उन्होंने राजा महेंद्र प्रताप और एम. एन. रॉय के साथ मिलकर 1920 में ताशकंद में एक कम्युनिस्ट पार्टी बनाने का फैसला किया और इसके लिए कॉमिन्टर्न की मंजूरी भी प्राप्त की।
प्रवासी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ने भारत को ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्त कराने और समाजवाद के लिए परिस्थितियां तैयार करने का संकल्प लिया। लेकिन ताशकंद में बनी इस पार्टी को न तो यूरोप में सक्रिय अन्य भारतीय क्रांतिकारी समूहों का समर्थन मिला और न ही भारत के भीतर सक्रिय क्रांतिकारी संगठनों से इसका कोई ठोस संपर्क बन पाया।
इसी दौरान लाहौर, बॉम्बे, कलकत्ता और मद्रास में सक्रिय भारतीय कम्युनिस्ट समूहों ने 1925 में कानपुर में एक राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय लिया। कानपुर उस समय उत्तर भारत का एक प्रमुख औद्योगिक शहर था, जहां बड़ी संख्या में औद्योगिक मजदूर रहते थे। संयोग से उसी समय कानपुर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन भी हो रहा था।
कानपुर का एक और ऐतिहासिक महत्व था। 1923 में ब्रिटिश सरकार ने यहीं भारतीय कम्युनिस्टों के खिलाफ कानपुर (कांवपुर) बोल्शेविक साजिश केस चलाया था। इस मामले में एस. वी. घाटे, एस. ए. डांगे और मुजफ्फर अहमद को ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ साजिश का दोषी ठहराते हुए चार-चार साल की सजा सुनाई गई थी।
1925 की कानपुर कॉन्फ्रेंस में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के गठन का निर्णय लिया गया। पार्टी का घोषित उद्देश्य मजदूरों और किसानों का गणतंत्र स्थापित करना था। इसके साथ-साथ भारत को ब्रिटिश राज से मुक्त कराना और उत्पादन व वितरण के साधनों का समाजीकरण करना भी उसके प्रमुख लक्ष्यों में शामिल था।
स्थापना को लेकर विवाद
यह सवाल लंबे समय से बहस का विषय रहा है कि कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 1920 में ताशकंद में हुई या 1925 में कानपुर में। 1964 में हुए विभाजन के बाद बने दो प्रमुख गुटों – CPI और CPI (मार्क्सवादी) – की इस मुद्दे पर अलग-अलग राय रही है। यह विभाजन पार्टी के भीतर वर्षों से चले आ रहे मतभेदों का परिणाम था, जिनमें कांग्रेस द्वारा प्रतिनिधित्व किए जाने वाले राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग से संबंध, भारतीय संविधान के तहत काम करने की सीमाएं और चीन-सोवियत विभाजन जैसे सवाल शामिल थे।
CPI (मार्क्सवादी) 1920 की ताशकंद बैठक को, उसकी अंतरराष्ट्रीय प्रकृति और कॉमिन्टर्न की स्वीकृति के कारण, ऐतिहासिक आरंभिक बिंदु मानती है। उसके अनुसार 1925 की कानपुर कॉन्फ्रेंस एक पूरी तरह भारतीय पहल थी, जिसका अंतरराष्ट्रीय संपर्क सीमित था, लेकिन वह भारत में चल रहे साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष से गहराई से जुड़ी हुई थी।
वहीं CPI के लिए पार्टी की वास्तविक नींव 1925 में कानपुर में पड़ी, न कि 1920 में ताशकंद में। इसके पीछे यह तर्क भी दिया गया कि ताशकंद की पहल एम. एन. रॉय से जुड़ी थी, जिन्हें बाद में गद्दार मानकर पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। भारतीय कम्युनिज्म की चर्चा में अक्सर कहा जाता है कि कानपुर उसकी भारतीय जड़ों को दर्शाता है, जबकि ताशकंद उसके अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट पक्ष को।
साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष में कम्युनिस्ट
कम्युनिस्ट आंदोलन लगभग पूरे समय साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष में सक्रिय रहा, सिवाय 1942 से 1945 के उस दौर के, जब द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उसने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ राष्ट्रीय संघर्ष की तुलना में फासीवाद के खिलाफ वैश्विक संघर्ष को अधिक प्राथमिकता दी।
1925 से 1928 के बीच कम्युनिस्ट मजदूरों और किसानों की पार्टियों (WPPs) के गठन में सक्रिय रहे। लेकिन इस दौरान वे इस सवाल से जूझते रहे कि कांग्रेस के साथ किस तरह का संबंध रखा जाए – क्या उसे भीतर से समाजवादी दिशा में मोड़ने की कोशिश की जाए या उसके विकल्प के रूप में एक अलग मोर्चा खड़ा किया जाए। परिवर्तन की राजनीति और विकल्प की राजनीति के बीच यह द्वंद्व पूरे साम्राज्यवाद-विरोधी दौर में कम्युनिस्ट आंदोलन को परेशान करता रहा।
1929 में कम्युनिस्ट नेताओं पर रेलवे हड़ताल आयोजित करने का आरोप लगा और मेरठ षड्यंत्र मामले के तहत मुकदमा चलाया गया। पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया गया और कई नेताओं को लंबी जेल तथा देश निकाले की सजा दी गई। 1930 के दशक में कम्युनिस्टों ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (CSP), जो 1934 में कांग्रेस के भीतर बनी थी, और अन्य साम्राज्यवाद-विरोधी ताकतों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाया, हालांकि यह प्रयोग 1939 में टूट गया।
1945 के बाद के वर्षों में कम्युनिस्टों ने कई महत्वपूर्ण किसान आंदोलनों का नेतृत्व किया। बंगाल में तेभागा आंदोलन के जरिये उन्होंने किसानों के लिए कृषि उपज में अधिक हिस्सेदारी की मांग उठाई, जबकि हैदराबाद रियासत में तेलंगाना संघर्ष के माध्यम से ज़मीन के पुनर्वितरण की मांग की गई। इसके साथ ही उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ आम लोगों के स्वतःस्फूर्त संघर्षों का भी समर्थन किया।
आजादी के बाद कम्युनिस्ट आंदोलन की दिशा दो हिस्सों में बंट गई। एक धारा भूमिगत और हिंसक विद्रोह की ओर गई, जबकि मुख्यधारा ने राज्य सत्ता तक पहुंचने के लिए संसदीय लोकतांत्रिक रास्ता अपनाया। चुनावी राजनीति के जरिये कम्युनिस्टों ने केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में सरकारें बनाईं और केंद्र में भी समय-समय पर अन्य मुख्यधारा की पार्टियों के साथ सत्ता साझा की।
कम्युनिस्ट सिद्धांत और उसकी विशिष्ट राजनीतिक प्रथाओं की आलोचना भी होती रही है। उन पर अधिनायकवाद, भ्रष्टाचार और अप्रासंगिकता जैसे आरोप लगाए गए हैं। इसके बावजूद यह एक निर्विवाद तथ्य है कि तमाम तकनीकी प्रगति के बाद भी आधुनिक दुनिया गहरे सामाजिक विभाजन से ग्रस्त है, जहां संसाधनों और अवसरों का लाभ कुछ वर्गों तक सीमित है और बड़ी आबादी उससे वंचित है। अपनी तमाम सीमाओं और विरोधाभासों के बावजूद, कम्युनिज्म एक विचारधारा के रूप में समाज के निचले तबकों के साथ खड़ा दिखाई देता है। यह वंचितों के पक्ष में एक बड़े दार्शनिक हस्तक्षेप के रूप में शुरू हुआ था, और यही कारण है कि वह आज भी प्रासंगिक बना हुआ है।
लेखक सलिल मिश्रा, BML मुंजाल यूनिवर्सिटी, मानेसर में विजिटिंग फैकल्टी हैं।
