दुनिया लगातार खतरनाक होती जा रही है। इसका सबूत है स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिपरी) की ताजा रिपोर्ट, जो कहती है कि पिछले साल दुनिया भर के देशों ने हथियारों और अपनी सेनाओं पर 1700 अरब डॉलर की रकम खर्च की। बात यही खत्म नहीं हो जाती। जिस तरह की दुनिया में आज हम जी रहे हैं उसमें हथियारों की मांग और उन पर होने वाला खर्च बढ़ता जाएगा, घटेगा नहीं। जर्मनी पर भी सैन्य खर्च बढ़ाने का दबाव है। इसके लिए इच्छा और तैयारी भी दिखाई देती है। लेकिन चांसलर अंगेला मैर्केल के साथ सरकार में भागीदार एसपीडी इस पर सवाल उठा रही है। सैन्य खर्च बढ़ाने के समर्थक और आलोचक एक दूसरे पर निशाना साध रहे हैं और वादाखिलाफी का आरोप भी लगा रहे हैं। मामला इसलिए भी गंभीर है क्योंकि वित्त विभाग एसपीडी के पास है। एसपीडी नेता ओलाफ शॉल्त्स उप चांसलर होने के साथ साथ सरकार में वित्त मंत्री भी हैं। बजट के बंटवारे की जिम्मेदारी उन्हीं की है और संतुलित बजट पर उनका जोर है। उन्होंने जो बजट तैयार किया, उसमें रक्षा खर्च को कुल जीडीपी का 1.27 प्रतिशत रखने की बात शामिल है। लेकिन मैर्केल की पार्टी सीडीयू 2021 तक इसे बढ़ाकर सालाना 1.5 प्रतिशत करना चाहती है।

यूं तो दोनों आंकड़ों में सिर्फ 0.23 प्रतिशत का फर्क नजर आता है। लेकिन जब बात यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जर्मनी की जीडीपी की हो, तो यह मामूली सा फर्क अरबों डॉलर में तब्दील हो जाता है। पिछले साल जर्मनी का सकल घरेलू उत्पादन 3700 अरब डॉलर था। सिपरी की रिपोर्ट कहती है कि 2017 में जर्मनी का सैन्य खर्च 44.3 अरब डॉलर रहा, जिसे बढ़ाकर अब 58 अरब डॉलर करने की बात उठ रही है। फिलहाल जर्मनी रक्षा खर्च के मामले में चोटी के नौवें नंबर पर है। एसपीडी पार्टी की अध्यक्ष आंद्रेया नालेस इस बात पर तो रजामंद है कि जर्मन सैनिकों को और सक्षम बनाने की जरूरत है। लेकिन इसके साथ वह इस बात पर भी जोर देती हैं कि हथियारों की रेस से बचा जाए। वहीं सीडीयू नेता और जर्मन रक्षा मंत्री उर्सुला फॉन डेयर लाएन कहती हैं कि जर्मन सेना को “ठोस वित्तीय आधार” की जरूरत है। जर्मन रक्षा मंत्री का कहना है कि अगर उनके मंत्रालय को पर्याप्त आर्थिक संसाधन मुहैया नहीं कराए गए तो इसका सीधा असर आतंकवाद से लड़ने, जर्मन सेना के शांति अभियानों और यूरोपीय पड़ोसियों की सुरक्षा की कोशिशों पर पड़ेगा।

वैसे, एसपीडी में कई नेताओं की राय अपने पार्टी नेतृत्व से अलग है। संसद में सैन्य मामलों पर लोकपाल और सोशल डेमोक्रेट हंस पेटर बार्टेल्स पूरी तरह सैन्य खर्च बढ़ाने के हक में हैं। उनका कहना है कि सैन्यकर्मियों और उपकरणों की कमी के कारण सेना की तैयारियां प्रभावित हो रही हैं। इसलिए सैन्य खर्च को बढ़ाना बहुत जरूरी है। लेकिन एसपीडी सांसद योहानेस केर्स की दलील है कि रक्षा मंत्रालय को बेहतर नेतृत्व की जरूरत है, ज्यादा पैसे की नहीं। सीधे-सीधे सीडीयू पार्टी पर निशाना साधते हुए वह कहते हैं, “2005 से कंजरवेटिव मंत्रालय को चला रहे हैं और प्लेन नहीं उड़ रहे हैं, टैंक नहीं दौड़ रहे हैं और शिप नहीं तैर रहे हैं।”

एक तरफ जर्मनी को अपनी सुरक्षा चिंताओं के कारण रक्षा बजट में बढ़ोत्तरी की जरूरत महसूस हो रही है, तो दूसरी तरफ उस पर नाटो की तरफ से भी बजट बढ़ाने का दबाव है। अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप लगातार नाटो सहयोगियों से अपनी जेब ढीली करने को कह रहे हैं। नाटो के अन्य सदस्यों की तरह जर्मनी ने भी 2014 में अपने रक्षा बजट को बढ़ाकर जीडीपी का 2 प्रतिशत करने का वादा किया था। लेकिन 1.27 से 1.5 प्रतिशत करने पर इतनी खींचतान हो रही है तो सोचिए 2 प्रतिशत तक पहुंचना कितना मुश्किल होगा। अफगानिस्तान से लेकर मध्य पूर्व तक के संकटों से नाटो मुंह नहीं मोड़ सकता, जो बराबर हथियारों और सैन्य संसाधनों को चूस रहे हैं। लेकिन जर्मनी के लिए सबसे बड़ी चिंता यूरोप की सुरक्षा है, जो रूस के साथ बढ़ते तनाव के साथ लगातार बढ़ रही है। यूं तो नाटो अपनी जगह कायम है, लेकिन अमेरिका में ट्रंप के राष्ट्रपति पद संभालने के बाद से यूरोप और अमेरिका के बीच ट्रांस अटलांटिक भरोसे में बड़ी कमी आई है। भरोसे की यही कमी असुरक्षा को बढ़ा रही है और रक्षा बजट में बढ़ोत्तरी की जमीन तैयार कर रही है।

वहीं वामपंथी रुझान वाली एसपीडी पार्टी के लिए सैन्य खर्च में बढ़ोत्तरी को आसानी से स्वीकार कर लेना आसान नहीं है। बीते साल हुए आम चुनावों में ऐतिसाहिक हार झेलने के बाजवूद पार्टी ने गठबंधन सरकार में शामिल होने का जोखिम उठाया है। अब अगर पार्टी अपने कोर एजेंडे से भटकी, तो उसे अपने बचे खुचे जनाधार को खोने का भी डर होगा। लेकिन गठबंधन किया है तो उसका धर्म भी निभाना होगा। अब दोनों पार्टियों के पास बीच का रास्ता निकालने के लिए एक महीने का समय है। 4 जुलाई को मैर्केल के कैबिनेट में 2019 के बजट प्रस्ताव और आने वाले वर्षों में खर्च की दीर्घकालीन योजना पर चर्चा होगी। तब तक राजनीतिक खींचतान चलती रहेगी।