श्रीलंका में नई सरकार का गठन हो गया है, अनुरा कुमारा दिसानायके राष्ट्रपति बन चुके हैं। अब सत्ता का बदलना कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन कौन सी विचारधारा साथ आ रही है, किन नीतियों पर आगे बढ़ने की तैयारी है, उससे जरूर फर्क पड़ता है। अब अनुरा कुमारा दिसानायके तो पूरी तरह वामपंथी विचारधारा से प्रभावित बताए जाते हैं, उनकी राजनीतिक नींव ही मार्क्सवादी सोच पर आधारित है। अब बड़ी बात यह है कि जिस सोच से इस समय श्रीलंका के सुप्रीम नेता प्रभावित हैं, चीन तो उसी विचारधारा से अपना देश चलाता है, वहां तो वामपंथ ही सबकुछ है। ऐसे में क्या माना जाए कि चीन और श्रीलंका फिर एक दूसरे के करीब आने वाले हैं?
अगर गौर किया जाए तो पता चलता है कि भारत इस समय चारों तरफ उन देशों से घिरा है जहां पर या तो चीन को खुला समर्थन मिला हुआ या फिर जहां पर झुकाव एक तरफ जरूरत से ज्यादा है। श्रीलंका में तो अब एक वामपंथी नेता ने राष्ट्रपति पद की शपथ ली है, नेपाल में भी केपी ओली का शासन वापस आ चुका है। केपी ओली का चीन प्रेम जगजाहिर है, उनका एंटी इंडिया स्टैंड भी कई मौकों पर देखने को मिल चुका है। इसी तरह अब बांग्लादेश में भी हालात भारत के लिहाज से बहुत ज्यादा मुफीद नहीं है। शेख हसीना की सत्ता जा चुकी है, अंतरिम सरकार का वहां पर गठन हुआ है, जमाती इस्लाम से बैन हट चुका है, ऐसे में भारत विरोधी सेंटिमेंट वहां भी पनप रहा है, चीन के प्रति आस्क्ति ज्यादा देखने को मिल सकती है।
पाकिस्तान को लेकर तो किसी के मन में संशय नहीं चल रहा है, उसे चीन से लगातार पैसा मिलता है, उसका हर प्रोजेक्ट चीनी कर्ज के सहारे पूरा हो रहा है। वो पूरी तरह चीन पर निर्भर चल रहा है और भारत उस पर भरोसा ना पहले कर सकता था और ना आज। ऐसे में वर्तमान में श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान चार ऐसे पड़ोसी मुल्कर बनकर सामने खड़े हैं जो भारत से ज्यादा चीन को आस भरी नजरों से देख रहे हैं।
भारत विरोधी रहा है दिसानायके की पार्टी जेवीपी का रुख, चीन के करीब जाएगा श्रीलंका?
श्रीलंका और चीन के रिश्ते डीकोड
अब श्रीलंका का चीन प्रेम किसी देश से ज्यादा वहां के पॉलिटिकल नेताओं और परिवारों के साथ रहा है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि चीन ने श्रीलंका में भारी निवेश करने का काम किया है, उसने खूब पैसा वहां पर लगाया है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए उसी चीन ने श्रीलंका को सबसे खराब डेप्ट ट्रैप में फंसाने का काम भी किया है। वर्तमान में भी श्रीलंका के ऊपर इतना ज्यादा चीनी कर्ज चल रहा है कि उसे चुकाना उसके लिए चुनौती साबित हो रहा है।
अब चीन, श्रीलंका को इतना पैसा इसलिए दे रहा है क्योंकि उसे वहां पर अपनी उपस्थिति मजबूत करनी है। यह बात समझना जरूरी हो जाती है कि श्रीलंका हिंद महासागर में स्थित है, यहां से पूरी दुनिया में व्यापार को विस्तार दिया जाता है। भारत हो या चीन, इस रूट के जरिए दुनिया के साथ व्यापार किया जा रहा है। लेकिन पिछले कुछ समय में चीन ने इसी क्षेत्र में अपने दबदबे को बढ़ाने का काम किया है। हंबनटोटा पोर्ट पर जिस तरह से उसने खुद को बसा लिया है, भारत इसे एक बड़ी चुनौती मानता है।
अब श्रीलंका को वैसे तो भारत भी काफी कुछ देता है, लेकिन उसकी नीति नेबर फर्स्ट वाली, वो पड़ोसी धर्म निभाते हुए मदद करता है। 2022 के अस्थिता वाले दौर के दौरान भी जिस तरह से भारत से अनाज गया था, हर जरूरी सामान उपलब्ध करवाया गया, उसने भारत की नीति समझा दी थी। लेकिन श्रीलंका में ‘लालची’ नेताओं का एक जाल बिछा हुआ है, जो भारत से ज्यादा चीन से दोस्ती आगे बढ़ाने की कोशिश करते हैं। ऐसे में जरूरतें भारत पूरी करे, लेकिन भारी निवेश चीन से करवाया जाता है। इसी वजह से अब जब श्रीलंका में अनुरा कुमारा दिसानायके राष्ट्रपति बन चुके हैं, भारत स्थिति को बहुत ज्यादा सुधरा हुआ नहीं मानता है।
भारत के लिए चिंता का सबब यह भी है कि राष्ट्रपति की पार्टी जेवीबी सबसे ज्यादा अपने भारत विरोधी बयानों के लिए ही जानी जाती है। पहले तो विचारधारा ही मेल नहीं खाती है, इसके ऊपर इतिहास बताता है कि जेवीबी भारत को लेकर कभी भी बहुत ज्यादा सहज नहीं दिखी है। 1987 में जब गृहयुद्ध से श्रीलंका जूझ रहा था, तब भारतीय सेना की मदद को भी इस पार्टी बाहरी हस्तक्षेप के रूप में देखा था और जमकर बवाल काटा था। ऐसे में राष्ट्रपति किस तरह से संतुलन साधते हैं, कैसे भारत-चीन को साथ लेकर चलते हैं, यह देखना दिलचस्प रहेगा।
चीन के साथ नेपाल के रिश्ते
इसे भारत की बदकिस्मती ही कहा जाएगा कि नेपाल में एक बार फिर उन केपी ओली का राज है जो खुलकर चीन का समर्थन भी करते हैं और भारत के खिलाफ बयानबाजी भी कर चुके हैं। जानकार मानते हैं कि नेपाल में क्योंकि अब कम्युनिस्ट सरकार का शासन है, उस वजह से चीन की तरफ से हस्तक्षेप बढ़ता चला गया है। BRI प्रोजेक्ट में नेपाल को शामिल करना इसका प्रमाण है। इसके ऊपर नेपाल ने पोखरण एयरपोर्ट बनाने के लिए चीन से जो 16 अरब रुपये का कर्ज लिया था, वो उसे अब अनुदान में बदलना चाहता है, उसकी इतनी क्षमता ही नहीं कि वो उसे चुका सके। ऐसे में श्रीलंका की तरह नेपाल भी चीन के कर्ज जाल में बुरी तरह फंसा हुआ है।
इसके ऊपर वहां पर क्योंकि केपी ओली की सरकार है, भारत के लिए चीन के प्रभाव को कम करना और ज्यादा मुश्किल साबित होने वाला है। यह भूलना नहीं चाहिए केपी ओली के पीएम रहते हुए ही नेपाल बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट का हिस्सा बना था। इसके ऊपर 2019 में भारत के लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा को नेपाल का हिस्सा भी केपी ओली की सरकार ने ही बताया था। ऐसे में नेपाल के साथ भारत के रिश्ते उतार-चढ़ाव वाले चल रहे हैं जहां पर भारत तो मुश्किल समय में पड़ोसी धर्म निभा रहा है, लेकिन नेपाल जरूरत के हिसाब से चीन से नजदीकियां बढ़ाता दिख रहा है।
चीन के बांग्लादेश के साथ रिश्ते
बांग्लादेश से तो हाल ही में शेख हसीना की विदाई हुई है, उनका जाना भारत के लिए एक बड़ा झटका रहा है। वर्तमान में बांग्लादेश में एक अंतरिम सरकार का गठन हुआ है, लेकिन माना जा रहा है कि बाहर से भी उन दलों का समर्थन है जो चीन का खुला समर्थन करते हैं। इसमें बीएनपी से लेकर जमान ए इस्लामी जैसे दल शामिल हैं। यह नहीं भूलना चाहिए शेख हसीना ने खुद पीएम रहते हुए चीन के प्रभाव को बांग्लादेश में बहुत ज्यादा बढ़ने नहीं दिया था। उनकी तरफ से तो तीस्ता प्रोजेक्ट को कंप्लीट करने के लिए भी चीन की जगह भारत से कहा गया था।
लेकिन अब बांग्लादेश में चीन की दखलअंदाजी काफी ज्यादा बढ़ चुकी है। इसके रुझान भी कुछ साल पहले ही मिलने शुरू हो चुके थे। हाल ही में एक पनडुब्बी बेस, 5 अरब डॉलर की सहायता, भारत के सिलीगुड़ी गलियारे के करीब बुनियादी ढांचा परियोजनाएं शुरू कर चीन ने बता दिया है कि बांग्लादेश पर उसकी नजर भी चल रही है। इसके ऊपर बांग्लादेश को भी डेप्ट ट्रैप में फंसाने की उसकी रणनीति पुरानी है जो अब और ज्यादा रंग दिखा सकती है। ऐसे में बांग्लादेश भी खुलकर भारत का समर्थन करेगा, ऐसा मुश्किल लगता है।
इसके ऊपर अफगानिस्तान, पाकिस्तान और म्यांमार में राजनीतिक तौर से अस्थिरता का दौर जारी है और अस्थिरता का असर भारत की कूटनीति पर पड़ना लाजिमी है। ऐसे में श्रीलंका में भी वामपंथी नेता का सत्ता में आना भारत के लिए बहुत अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता।