अगर यूरोप के सबसे अक्खड़ नेताओं की लिस्ट बनाई जाए तो हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान टॉप 3 में जरूर आएंगे। वह यूरोपीय संघ के नेताओं से टकराने का कोई मौका नहीं गंवाते। कभी कभी तो लगता है कि वह इसी टकराव को अपनी लोकप्रियता बढ़ाने का जरिया समझने लगे हैं. बेशक, वह लोकप्रिय हैं। बीते आठ साल से सत्ता में हैं और हंगरी की सियासत में फिलहाल उनके कद का कोई नेता नजर नहीं आता।लेकिन क्या इससे उन्हें देश को मनमाने तरीके से चलाने की खुली छूट मिल जाती है? सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए उन्होंने हर वह कदम उठाया जो वह उठा सकते हैं। मीडिया पर अंकुश लगाने के साथ साथ उन्होंने चर्च को भी अपनी मर्जी से चलाने के कानून बना दिए। लेकिन अकसर राजनेता भौतिकी का साधारण नियम भूल जाते हैं. किसी क्रिया की प्रतिक्रिया उसी के बराबर और उल्टी होती है। यही आजकल हंगरी में हो रहा है। जनता प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान के खिलाफ सड़कों पर उतर आई है। सरकार को लेकर लोगों में नाराजगी इस कदर है कि बरसों से पस्त पड़े विपक्ष को अपने लिए उम्मीद दिखने लगी है।
हंगरी में विरोध प्रदर्शनों की शुरुआत पिछले दिनों उस वक्त हुई जब सरकार ने नए श्रम कानून को मंजूरी दी. सरकार इस कानून को ‘श्रम सुधार’ का नाम दे रही है लेकिन आलोचकों की नजर में यह ‘गुलामी का कानून’ है। इसके मुताबिक, किसी कर्मचारी को नौकरी देने वाली कंपनी या संस्था उससे एक साल में 250 से 400 घंटे का ओवरटाइम करने को कह सकती है। प्रधानमंत्री ओरबान की दलील है कि इस ओवरटाइम का कर्मचारी को पैसा मिलेगा। उनके मुताबिक, यह तो अच्छा कानून है जो ज्यादा पैसा कमाने वालों को ज्यादा काम करने की आजादी देता है। लेकिन कानून कहता है कि एम्पलॉयर यानी नियोक्ता ओवरटाइम के पैसे का भुगतान करने में तीन साल तक की देरी कर सकता है।
हंगरी की संसद ने 12 दिसंबर को जब से यह कानून पास किया है, तब से इसके खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं, जिसमें ट्रेड यूनियनों के साथ विपक्षी पार्टियां भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं। एक सर्वे के मुताबिक हंगरी के दो तिहाई से ज्यादा लोग ओवरटाइम कानून के खिलाफ हैं और इसे लेकर हो रहे प्रदर्शनों को वे सही मानते हैं। सर्वे के मुताबिक लोग समझते हैं कि नए कानून से कर्मचारियों के हितों को नुकसान होगा। यही नाराजगी आजकल हंगरी की सड़कों पर दिख रही है और बीते आठ साल में शायद पहली बार प्रधानमंत्री ओरबान को घरेलू मोर्चे पर इतना विरोध झेलना पड़ रहा है।
जिस तरह से ओरबान हंगरी को कई सालों से चला रहे हैं, उससे समाज के एक बड़े तबके में रोष रहा है. नए कानून ने बस इसे चिंगारी दी है। इसीलिए प्रदर्शनकारी ओवरटाइम कानून को खत्म करने के अलावा न्यायपालिका और मीडिया की आजादी की मांग भी कर रहे हैं। वैसे उद्योगों से लेकर कला और खेल तक, ऐसा कोई क्षेत्र नहीं दिखता जिस पर ओरबान की सरकार ने शिकंजा ना कसा हो। ओरबान की सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लग रहे हैं। अब तक ओरबान के खिलाफ जो भी थोड़ी बहुत आवाजें थीं, उन्हें दबाने का पूरा प्रबंध ओरबान और उनकी सरकार ने किया हुआ था। लेकिन अब लगता है कि हंगरी की सियासत में भौतिकी का नियम काम कर रहा है।
ओरबान सियासत के पक्के खिलाड़ी हैं। इतनी आसानी से वह अपने पैरों तले जमीन नहीं खिसकने देंगे। पहली बार उन्होंने 1998 में प्रधानमंत्री पद संभाला और लगभग चार साल तक सत्ता में रहे। 2002 के चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें जीतने के बावजूद सत्ता उनके हाथ से फिसल गई और फिर वह आठ साल तक विपक्ष में ही रहे। 2010 में हुए चुनाव के बाद उन्होंने सत्ता में वापसी की और अब तक कायम हैं। इसी साल अप्रैल में उन्होंने लगातार तीसरा आम चुनाव जीता है। इससे मतदाताओं पर उनकी पकड़ का पता चलता है।
विरोध प्रदर्शनों से ओरबान किस तरह निपटेंगे, यह आने वाले दिन बताएंगे. फिलहाल तो वह झुकने के मूड में नहीं दिखते। हंगरी की राजधानी में आजकल तापमान शून्य से नीचे जा रहा है, लेकिन सियासत का पारा लगातार चढ़ रहा है. बीते सोमवार को उस वक्त अजीब नजारा देखने को मिला जब विपक्षी सांसदों को सरकारी टीवी स्टेशन से उठाकर बाहर फेंक दिया गया। वे चाहते थे कि उन्हें अपनी मांगें ऑनएयर पढ़ने दी जाएं, जिसकी इजाजत देना तो दूर, अधिकारियों ने उनके साथ बदलसूकी की। विपक्षी सांसदों को ओवरटाइम कानून पर अपनी आपत्तियां संसद में होने वाली बहस में भी व्यक्त करने नहीं दी गई। ये सारी बातें ओरबान के आलोचकों की नजर में उन्हें एक ऐसा नेता बनाती हैं जो निरंकुश तानाशाह बनने की तरफ बढ़ रहा है।
हंगरी के पूरे घटनाक्रम पर यूरोपीय संघ के साथ साथ दुनिया भर की नजरें भी टिकी हैं। प्रदर्शनकारियों का गुस्सा बताता है कि वे अपने मांगें पूरी होने तक कदम पीछे नहीं हटाएंगे। लेकिन ओरबान के लिए ऐसे किसी भी कदम का मतलब होगा अपने अहम से समझौता करना जो उनके जैसे नेता के लिए आसान नहीं दिखता। लेकिन उन्हें बीच का रास्ता तलाशना ही होगा, वरना ये एक ताकतवर नेता के अंत की शुरुआत भी हो सकती है।