पेरिस में वैश्विक वित्तीय प्रणाली पर हुए सम्मेलन ने दुनिया भर नेताओं और अहम संस्थानों को एक मंच पर मिलने का मौका दिया। यहां से अंतरराष्ट्रीय वित्त को लेकर सोच में बड़े बदलाव के कयास लगाए जा रहे हैं। ‘समिट फार अ न्यू ग्लोबल फाइनेंशियल पैक्ट’ को ‘काप’ के अलावा जलवायु से जुड़ा एक और अंतरराष्ट्रीय मंच बनाया जा सकता है। इसका स्वरूप वैसे ही रखने की कोशिश है, जैसे जी7 या जी20 सम्मेलन हैं।

दो दिनों तक चले पेरिस सम्मेलन में लगभग 1,500 प्रतिभागी जुटे। इनमें 40 देशों के राष्ट्र प्रमुख भी शामिल थे। सम्मेलन में इतनी भीड़ थी कि ज्यादातर पत्रकारों को इंटरनेट पर सीधे प्रसारण (आनलाइन लाइवस्ट्रीम) के सहारे रहना पड़ा। फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल मैंक्रों ने सम्मेलन के समाप्त होने की घोषणा करते हुए मीडियाकर्मियों से कहा कि यह निर्णायक लम्हा है।

मैंक्रों ने कहा, ‘इन दो दिनों ने हमें मौका दिया है कि हम धरती के लिए एक नई सहमति बना सकें। हम एक ऐसे दस्तावेज के साथ आए हैं जो अंतरराष्ट्रीय वित्तीय तंत्र और शासन में सुधार के ढांचे का एक साझा राजनीतिक नजरिया विस्तार से सामने रखता है।’ फ्रांसीसी राष्ट्रपति ने यह भी कहा, ‘हम दोहरी चुनौतियों से जूझ रहे हैं, यह सम्मेलन अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सदस्यों के बीच एकता बढ़ाने के लिए आयोजित किया गया है। असमानता से जंग और जलवायु परिवर्तन- ये दो प्रमुख चुनौतियां हैं।’

समापन बयान के मुताबिक, विकसित देश अपना लक्ष्य पूरा कर चुके हैं। इसके तहत विकसित देशों को विशेष निकासी अधिकार (स्पेशल ड्राइंग राइट्स या एसडीआर) के तहत विकासशील देशों को 100 अरब डालर देने थे। सम्मेलन में हिस्सा लेने वालों का कहना था कि 2015 में यह तय किया गया था कि 2020 में जलवायु कदमों के लिए 100 अरब डालर दिए जाएंगे। यह लक्ष्य शायद इस साल पूरा हो सकेगा।

अगले 10 साल के लिए 200 अरब डालर के अतिरिक्त कर्ज का वादा भी किया गया। जांबिया में डूबे 6.3 अरब डालर के कर्ज को भी इसी में गिना जाएगा। हिस्सेदार देशों ने एक नया जैव विविधता कोष भी स्थापित करने पर सहमति जताई। पेरिस स्थित क्लाइमेट इकोनामिक्स चेयर में सह-शोधार्थी एवं लोरेंन यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर आलिवर दमेत समेत कई विशेषज्ञों को लगता है कि ‘यह जुटान निर्णायक साबित हो सकती है।

आलिवर दमेत का कहना है, दुनिया कई तरह के संकट झेल रही है। बीते कुछ बरसों में कोविड-19 महामारी की वजह से गरीबी और सार्वजनिक ऋण आसमान तक पहुंच चुके हैं। ज्यादा से ज्यादा विकासशील देश दिवालिया होने के कगार पर हैं। जलवायु परिवर्तन अपना असर और ज्यादा दिखा रहा है और राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के प्रति भरोसा टूटा है।’

पेरिस के सम्मेलन को लेकर दमेत का कहना है, ‘पहली बार, नेता इन अलग अलग किस्म की चुनौतियों पर बात करने के लिए साथ आए – पहले के सम्मेलन तो विषयों को अलग अलग रखते थे।’ उनके मुताबिक, मौजूदा अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान, इस तरह कि परिस्थिति से निपटने में सक्षम नहीं हैं। दमेत व अन्य अर्थशास्त्रियों को लगता है कि पेरिस में हुए इस सम्मेलन के नतीजे दिखा रहे हैं कि अमीर देशों को बात समझ आ रही है।

वे विकासशील देशों को साथ लेकर चलने की अहमियत समझ रहे हैं। कोयले के बदले स्वच्छ ऊर्जा मिलेगी, लेकिन लाखों लोगों की आजीविका का क्या होगा। पेरिस स्थित थिंक टैंक, इंस्टीट्यूट फार क्लाइमेट इकोनामिक्स में प्रोजेक्ट मैनेजर हैं क्लेयर एशलिए। सम्मेलन की तैयारी के लिए फ्रांस सरकार ने इसी थिंक टैंक से सलाह मशविरा लिया।

क्लेयर मानती हैं कि नीचे से ऊपर की तरफ बढ़ने वाली प्रणाली ज्यादा तार्किक है। उनके मुताबिक, ‘अतीत में ज्यादातर पैसा खास परियोजनाओं में गया जबकि वह ऐसी जगह जाना चाहिए था जहां प्रणालीगत तरीके से बड़ा असर होता।’

विश्व बैंक और आइएमएफ

वर्ष 1944 में ब्रेटन वुड्स समझौते के बाद विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) बनाए गए। दोनों अमेरिका में स्थित हैं। इनकी अगुवाई भी अमेरिका और जी7 करते हैं। दमेत के मुताबिक ये संस्थान ऊपर से नीचे, निर्देश पारित करने वाली एक प्रणाली की तरह काम करते हैं। उनका कहना है कि लेकिन गरीब देशों को भी फैसले करने वाली प्रक्रिया का हिस्सा होना चाहिए- वे उस जलवायु परिवर्तन से क्यों लड़ें जो ज्यादातर अमीर देशों की वजह से हो रहा है। विकास कर रहे देशों को लगता है कि उनकी प्राथमिकता तो गरीबी से लड़ाई होनी चाहिए।