ब्रिटेन के पूर्व पीएम और मिडल ईस्ट में राजनयिक रह चुके टोनी ब्लेयर ने हाल ही में एक चौंकाने वाला बयान दिया। 2003 में इराक में अमेरिका और ब्रिटिश सरकार की दखल के इतने सालों बाद उन्होंने कहा कि आज का इराक सद्दाम हुसैन के शासन के मुकाबले बेहतर है। ब्लेयर को लगता है कि इराक में पश्चिमी हमले के बाद मारे गए हजारों आम नागरिक, 4000 के करीब अमेरिकी और ब्रिटिश सैनिकों की मौत, पश्चिम एशिया में शिया और सुन्नियों के बीच बढ़ा तनाव के हालात सद्दाम के शासन के मुकाबले बेहतर है। उन ढाई लाख सीरियाई आम नागरिकों का क्या जो वहां जारी गृहयुद्ध की भेंट चढ़ गए। वो गृहयुद्ध जो इस्लामिक स्टेट के उदय और शिया-सुन्नी संघर्ष का नतीजा हैं। असल में क्या ये सब इराक में अमेरिकी हमले का नतीजा नहीं है?
आज के हालात में इन तथ्यों को दोबारा से याद करना जरूरी है। सीरिया और इराक के वे हालात, जिसकी वजह से पश्चिम एशिया की सीमा के बाहर भी शांति और सद्भाव बिगड़ने का खतरा पैदा हो गया है। 13 नवंबर को फ्रांस में हुए आतंकी हमले को लेकर दुनिया की हमदर्दी है। पेरिस वाले उस दर्द से उबर रहे हैं, ठीक उसी तरह से जिस तरह से मुंबई वाले 26/11 के आतंकी हमले के बाद उबरे थे। फ्रांस और बेल्जियम की सिक्युरिटी एजेंसियां इन हमलों के मास्टरमाइंड की तलाश कर रही हैं और रिकॉर्ड वक्त में उनमें से कम से कम एक को खत्म करने में कामयाबी भी हासिल की है। वैसे हर मास्टरमाइंड के पीछे एक दूसरा मास्टरमाइंड होता है। मसलन-फ्रेंच हमले के मास्टरमाइंड अब्देलहामिद अबाउद के पीछे भी एक मास्टरमाइंड है। लेकिन असली मास्टरमाइंड कौन है? इसका जवाब जानने के लिए आपको 2003 में इराक पर हुए हमले की घटना के बारे में जानना होगा।
2003 में इराक में घुसने की योजना तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बुश और ब्लेयर की थी, लेकिन वे इसके मास्टरमाइंड नहीं थे। कोई एक इकलौता मास्टरमाइंड या छिपा हुआ ग्रुप नहीं है। इस दखल के मास्टरमाइंड संयुक्त तौर पर अमेरिका के नियो कंजरवेटिव्स माने जाते हैं। वे लोग जो लोग यहूदी लॉबी द्वारा प्रेरित या उकसाए गए। वो यहूदी लॉबी जो इजराइल के आदेश पर काम कर रही थी। 1991 में पहले खाड़ी युद्ध के दौरान सद्दाम हुसैन ने तेल अवीव और इस्राइल के दूसरे हिस्सों को मिसाइलों से निशाना बनाया था। इससे इजराइल के लोगों में डर के हालात थे और उनमें से बहुतों ने किसी रासायनिक हमले के डर के मद्देनजर मास्क तक पहना। सद्दाम से निजात पाने के लिए इजराइल के पास वाजिब वजहें थीं। 2003 में वो नियो कंजरवेटिव्स के माध्यम से ऐसा कर पाने में कामयाब रही।
सीरिया का गृहयुद्ध भी किसी एक मास्टरमाइंड के साजिश का नतीजा नहीं है। कट्टरपंथ ने इस देश को इस खूनखराबे में ढकेला। दमिश्क में शिया अल्पसंख्यकों का शासन जो अग्रणी सुन्नी ताकतों को सम्मान देने के पक्ष में नहीं था। 2010-11 में हुए अरब स्प्रिंग ने सुन्नियों ने तख्ता पलट का मौका दिया। सीरिया में शुरुआती प्रदर्शन बदलाव के नाम पर हुए, लेकिन बाद में पूरा आंदोलन ब्रदरगुड और कुछ दूसरे कट्टरपंथी तत्वों ने हाईजैक कर लिया। इजराइल और सऊदी अरब उनके समर्थक बन गए। सभी के अपने एजेंडे थे। सुरक्षा के कारणों से इजराइल असद से आजादी चाहता था, जबकि सऊदी अरब के सांप्रदायिक कारण थे। सीरिया में क्षेत्रीय ताकतों की वजह से बाहरी दखल हुई। यहां सुन्नी गठबंधन शिया गठबंधन से लड़ रहा है। हर गठबंधन को गैर इलाकाई शक्तियां समर्थन दे रही हैं।
र्इरान से न्यूक्लियर डील को लेकर अपने दो सबसे करीबी देशों की नाराजगी झेल रहे अमेरिका को असद के खिलाफ और ठोस कदम उठाए जाने की मांग पर जवाब देना था। अमेरिका का सिर्फ असद को हटाने को अपना मकसद बनाना एक बड़ी गलती साबित हुई। इस नीति की वजह से सिर्फ गृहयुद्ध को बढ़ावा मिला और कट्टरपंथी मजबूत होते गए। असद की ओर से इस जंग में रूस के कूदने का फैसला अमेरिका को अपनी पॉलिसी दुरुस्त करने में मदद करता नजर आ रहा है। अमेरिका ने इस मामले का राजनीतिक निवारण पर दिमाग लगाना शुरू कर दिया है। वहीं, असद को लेकर रूस और र्इरान के नजरिए में फर्क है। अगर असद सत्ता से हटते हैं तो शायद रूस को ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन इरान अपने सांप्रदायिक रुख की वजह से ऐसा नहीं चाहेगा। र्इरान रूस से भी आगे बढ़कर असद को बचाने की कोशिश करेगा।
वियना में जिन अंतरिम उपायों पर मंजूरी बनी है, यूएस सेक्रेटरी ऑफ स्टेट जॉन कैरी अपने खाड़ी के सहयोगियों को उन पर रजामंद करने के लिए कोशिश कर रहे हैं। असद को कुछ और महीने तक बने रहता देखना सऊदी अरब के लिए मुश्किल होगा। हो सकता है कि असद सालों तक रहें। फ्रांस पर हुए आतंकी हमले के बाद आतंकी संगठन आईएसआईएस को खत्म करने की मुहिम को काफी रफ्तार मिली है। यह विपक्षी गठबंधन ताकतों का एक दूसरे के सामने आने का नतीजा है। इसका फायदा असद को होगा। क्या आईएसआईएस को हमेशा के लिए खत्म किया जा सकता है, इस बात पर बहस मुमकिन है क्योंकि किसी मिलिट्री हमले से इसकी विचारधारा को कुचलना मुमकिन नहीं है। पूरे विवाद की जड़ माने जाने वाले शिया सुन्नी तनाव तभी कम हो सकता है, जब इससे जुड़े दो पक्ष इरान और सऊदी अरब के नेता इस पर विचार करें। वर्तमान हालत में ऐसा होने की न के बराबर संभावना है।
(लेखक पूर्व राजनयिक हैं। वे भारत की ओर से मिडल ईस्ट में विशेष दूत रहे हैं।)