सोमवार (28 अगस्त) को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई में रोजगार मेले में 51,000 नव-नियुक्तों को अप्वाइंटमेंट लेटर सौंपा गया। सरकार रोजगार मेले का आयोजन 2024 के आम चुनाव से पहले 10 लाख रिक्तियों को भरने के लिए कर रही है।अब रोजगार मेले के इर्द-गिर्द कुछ सवाल उठ रहे हैं, जैसे- क्या ये रोजगार मेले भारत के बेरोजगार संकट का समाधान कर पाएंगे? बेरोजगारी पुरानी समस्या है या नया संकट? और आखिर सवाल यह कि भारत की बेरोजगारी समस्या का क्या समाधान है?
क्या ये रोजगार मेले भारत के बेरोजगारी संकट का समाधान कर पाएंगे?
एक शब्द में इस सवाल का जवाब है- नहीं। ऐसा कहने के पीछे क्या कारण है, ये समझ लेते हैं। पहला कारण तो यही है कि सरकार रोजगार मेले के जरिए जितनी नौकरी देना चाहती है, वह समुद्र में बूंद के समान है। अगर सरकार अपने वादे के मुताबिक, 10 लाख रिक्तियों को भर भी देती है, तो वह उसकी तुलना में कुछ भी नहीं है, जितनी नौकरी भारत में क्रिएट करने की जरूरत है। इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस (ICRIER) की सीनियर विजिटिंग फेलो राधिका कपूर के अनुसार, भारत को 20 मिलियन (2 करोड़) से 200 मिलियन (20 करोड़) के बीच नई नौकरियां पैदा करने की जरूरत है।
दूसरा कारण यह है कि रोजगार मेले में जिन नौकरियों के नियुक्ति पत्र बांटे जा रहे हैं, उनके जरिए पहले से खाली पद भरे जा रहे हैं। वे नई सृजित नौकरियों के लिए नहीं हैं।
तीसरा कारण यह भी है कि भारत में सरकारी नौकरियों की संख्या पहले से काफी कम रही है। शिक्षाविद सीपी चंद्रशेखर और जयति घोष की 2019 की कैलकुलेशन के मुताबिक, भारत में प्रति 1000 जनसंख्या पर 16 सरकारी नौकरी है। चीन में यह संख्या 57, संयुक्त राज्य अमेरिका में 87, ब्राजील में 111, नॉर्वे में 159 और स्वीडन में 138 है।

बेरोजगारी पुरानी समस्या है या नया संकट?
कुछ लोगों का तर्क है कि भारत में हमेशा बड़े पैमाने पर बेरोजगारी रही है। दूसरा वर्ग मानता है कि बेरोजगारी इतनी अधिक कभी नहीं थी और मौजूदा संकट पिछले एक दशक में बना है। तो सच क्या है और झूठ क्या? इस मुद्दे को समझने के लिए दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के केएन राज के उस प्रसिद्ध पेपर पर नजर डालने की जरूरत है, जो 1959 में छपा था। पेपर का नाम है- Employment and Unemployment in the Indian Economy: Problems of Classification, Measurement, and Policy
केएन राज लिखते हैं, “भारत में बेरोजगारी की समस्या अपने स्वरूप और कॉन्टेंट दोनों में जटिल है। मौटे तौर पर यहां बेरोजगारी की समस्या को तीन भागों में बांटा जा सकता है।”
पहला है, आंशिक बेरोजगारी। यानी ऐसे लोग जो जीवनयापन के लिए कुछ न कुछ करते रहते हैं। उनके पास किसी दिन काम होता है, किसी दिन नहीं। इसे अल्प रोजगार भी कहा जा सकता है।
दूसरी श्रेणी है ‘छिपी बेरोजगारी’ वालों की। इसमें वो लोग शामिल हैं, जिन्हें लगता है कि उनके पास काम है। लेकिन असल में वो इस तरह के काम में लगे होते हैं, जिसमें प्रोडक्टिविटी बहुत कम होती है। यदि इनके कुल योगदान को सोशल आउटपुट की कसौटी पर आंका जाए, तो वे वास्तव में बेरोजगार नजर आएंगे। इसे ही अर्थव्यवस्था में छिपी बेरोजगारी के रूप में जाना जाता है।
तीसरा है,उपलब्ध कार्यबल (available working force) के एक हिस्से में पूरी तरह बेरोजगारी। इस प्रकार की बेरोजगारी वैसी ही है जिसे विकसित और औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं में बेरोजगारी माना जाता है।
अब, यदि कोई तीसरी श्रेणी यानी पूर्ण बेरोजगारी को देखता है, तो यह सच है कि भारत में पहले कभी भी बेरोजगारी की इतनी बुरी स्थिति नहीं थी। पिछले साल द एक्सप्रेस इकोनॉमिस्ट के एक एपिसोड में, राधिका कपूर ने बताया था कि ऐतिहासिक रूप से भारत में केवल 2% से 3% की पूर्ण बेरोजगारी दर थी। 2017-18 में यह दर 6.1% पर पहुंच गई।
पिछले साल बताया गया कि बेरोजगारी दर 2% है। लेकिन इस डेटा को पढ़ते हुए सावधानी बरतनी चाहिए क्योंकि 1970 के दशक से चली आ रही पूर्ण बेरोजगारी दरों में पहले दो प्रकार की बेरोजगारी (अल्प-रोजगार और छिपी हुई बेरोजगारी) को शामिल नहीं किया गया था।
कपूर ने कहा, “हमारे जैसे विकासशील देशों में जहां कोई सिक्योरिटी नेट नहीं है, लोग बेरोजगार होने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं। इस तरह, वे अक्सर अल्प-रोजगार होते हैं या कम उत्पादकता वाले काम में खुद को लगाए रहते हैं।” 2% या 3% की बेरोजगारी दर – जो कि विकसित देशों में दिखने वाली बेरोजगारी दर के समान है – उस प्रवृत्ति को छिपाती है जहां आबादी का बड़ा हिस्सा “स्वरोजगार” या “आकस्मिक (दिहाड़ी मजदूरी)” काम में लगा हुआ है।
यही कारण है कि स्वरोजगार में हालिया वृद्धि चिंताजनक है। अब हमारे यहां न केवल खुली बेरोजगारी दर बढ़ी है, बल्कि स्व-रोजगार भी बढ़ रहा है। युवा बेरोजगारी बदतर हो रही है। शिक्षा के स्तर के साथ बढ़ती बेरोजगारी भी इसमें शामिल है और इन सबका एक नकारात्मक लैंगिक पहलू (जैसे महिलाओं की संख्या वर्कफोर्स में लगातार कम हो रही है) भी है।
पिछले एक या दो दशकों में भारत में बेरोजगारी दर इसलिए भी बढ़ती दिख रही है क्योंकि भारत में युवा आबादी में तेजी से वृद्धि हुई है। ये वह समूह है जो सबसे अधिक बेरोजगारी का सामना करता है। भारत के कुल बेरोजगारों में 80% यही युवा हैं।
भारत की बेरोजगारी की समस्या का समाधान क्या है?
भारत में जितने बड़े पैमाने पर नई नौकरियों की आवश्यकता है कि वह किसी भी सरकार के लिए सीधे उपलब्ध कराना संभव नहीं है। इसके अलावा, नौकरी देना सरकार का काम नहीं है। सरकार का काम सक्षम वातावरण बनाना है ताकि अर्थव्यवस्था स्वयं अधिक नौकरियां पैदा कर सके।
साथ ही जीडीपी के आंकड़ों पर ध्यान देने की जरूरत है। उससे पता चलेगा कि हमारी जीडीपी किन क्षेत्रों में विकास की वजह से बढ़ रही है। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि भारत को अपने मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को बढ़ावा देने की जरूरत है।

29 अगस्त को एक्सप्रेस अड्डा में शामिल हुए रुचिर शर्मा ने बेरोजगारी संकट पर बात करते हुए कहा, “मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में तेजी आनी चाहिए। सर्विस सेक्टर कभी भी इतना अधिक जॉब क्रिएट नहीं कर सकता। यह नुस्खा मेरा नहीं है बल्कि यह पूर्वी एशियाई अनुभव से आया है।”

कुछ लोग कह सकते हैं कि सरकार पहले से ही मेक इन इंडिया और पीएलआई (प्रोडक्शन-लिंक्ड इंसेंटिव) योजना के माध्यम से ऐसा कर रही है। लेकिन कपूर और कई अन्य अर्थशास्त्री जो लंबे समय से रोजगार के मुद्दों पर नजर रखते हैं, उनका तर्क है कि सरकार को लेबर इनिशिएटिव मैन्युफैक्चरिंग के साथ-साथ छोटे और मध्यम उद्यमों पर भी ध्यान देने की जरूरत है। यह बताया गया है कि अक्सर पीएलआई ने कैपिटल इनिशिएटिव मैन्युफैक्चरिंग पर अधिक ध्यान दिया है।
