अर्जुन सेनगुप्ता

राम प्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून, 1897 को संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) के शाहजहांपुर जिले के एक गांव में हुआ था। आज वह भारत के सबसे सम्मानित स्वतंत्रता सेनानियों में से एक हैं। अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए वह 1918 की मैनपुरी साजिश और 1925 की प्रसिद्ध काकोरी ट्रेन कांड में शामिल थे।

वह हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (बाद में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन) के संस्थापक सदस्यों में भी थे। उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए उन्हें साल 1927 में फांसी दे दी गई थी। राम प्रसाद बिस्मिल को क्रांतिकारी कार्रवाइयों के अलावा अपनी काव्यात्मक गहराई के लिए भी जाना जाता है। उनके शब्दों ने भारत की कई पीढ़ियों को प्रेरित किया है।

प्रारंभिक जीवन और आर्य समाज कनेक्शन

एक राजपूत तोमर परिवार में जन्मे राम प्रसाद बिस्मिल ने अपने पिता से हिंदी और पास में रहने वाले एक मौलवी से उर्दू सीखी। वह शाहजहांपुर के एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल में भी गए। कई भाषाओं पर उनकी पकड़ ने उन्हें एक लेखक और कवि के रूप में बढ़ने में मदद की।

राम प्रसाद बिस्मिल के बचपन में आर्य समाज उत्तर भारत में पैर फैला रहा था और लगातार एक प्रभावशाली संगठन के रूप में उभर रहा था। बिस्मिल भी आर्य समाज में शामिल हो गए। वह एक लेखक और कवि के रूप में पहचान बनाने लगे। उन्होंने हिंदी और उर्दू में ‘अज्ञात’, ‘राम’ जैसे उपनामों से देशभक्ति के छंद लिखे। उनका सबसे प्रसिद्ध उपनाम ‘बिस्मिल’ था। बिस्मिल का अर्थ घायल या बेचैन होता है। केवल 18 साल की उम्र में उन्होंने आर्य समाज मिशनरी ‘भाई परमानंद’ को दी गई मौत की सजा पर अपना गुस्सा निकालते हुए ‘मेरा जन्म’ शीर्षक से कविता लिखी थी।

मैनपुरी षड्यंत्र

स्कूल तक की पढ़ाई खत्म करने के बाद बिस्मिल राजनीति में शामिल हो गए। हालांकि, जल्द ही उनका कांग्रेस पार्टी के तथाकथित उदारवादी धड़े से मोहभंग हो गया। बिस्मिल अपने देश की आज़ादी के लिए “बातचीत” या “भीख” के लिए तैयार नहीं थे। वह आज़ादी को बलपूर्वक लेने को तैयार थे, जैसा कि उनकी सबसे प्रसिद्ध कविताओं में से एक ‘गुलामी मिटा दो’ में नज़र आता है-

“दुनिया से गुलामी का मैं नाम मिटा दूंगा
एक बार जमाने को आजाद बना दूंगा।”

अपने मुकाम को हासिल करने के लिए उन्होंने ‘मातृवेदी’ नाम से एक क्रांतिकारी संगठन बनाया। इसके बाद बिस्मिल ने अपने साथी क्रांतिकारी गेंदालाल दीक्षित के साथ मिलकर सेना बनाई। दीक्षित राज्य के डकैतों से अच्छी तरह जुड़े हुए थे और अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष में उनका इस्तेमाल करना चाहते थे।

1918 में बिस्मिल ने अपनी सबसे प्रसिद्ध कविता ‘मैनपुरी की प्रतिज्ञा लिखी ‘, जिसे पैम्फलेट में संयुक्त प्रांत में वितरित किया गया। उनकी कविता की राष्ट्रवादी लोगों ने प्रशंसा की। बिस्मिल के नए बने संगठन को धन की आवश्यकता थी। इसके लिए उन्होंने साल 1918 में मैनपुरी जिले के सरकारी कार्यालयों में लूटपाट की कम से कम तीन घटनाओं को अंजाम दिया।

बड़े पैमाने पर तलाशी शुरू की गई और बिस्मिल का पता लगा लिया गया। इसके बाद जो हुआ वह एक नाटकीय गोलीबारी थी जिसके अंत में बिस्मिल यमुना नदी में कूद गए और बचने के लिए पानी के नीचे तैरते हुए भाग निकले।

हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) की स्थापना

इसके बाद बिस्मिल अगले कुछ वर्षों तक भूमिगत रहे। वह लिखते रहे लेकिन कोई बड़ी क्रांतिकारी गतिविधि नहीं की। इस दौरान उन्होंने मन की लहर नामक कविताओं का एक संग्रह जारी किया और बोल्शेविकों की करतूत (बंगाली से हिंदी में अनुवाद) जैसी रचनाओं का अनुवाद भी किया।

फरवरी 1920 में जब मणिपुरी षड़यंत्र मामले के सभी कैदियों को रिहा कर दिया गया, तो बिस्मिल अपने घर शाहजहांपुर लौट आए। वहां उन्होंने शुरू में कांग्रेस के नेतृत्व वाले असहयोग आंदोलन के लिए समर्थन जुटाने का काम किया। लेकिन गांधी द्वारा 1922 में चौरी चौरा की घटना के बाद असहयोग आंदोलन वापस लेने फैसले से नाखुश बिस्मिल ने अपनी खुद की पार्टी शुरू करने का फैसला किया।

इस प्रकार बिस्मिल, अशफाकउल्ला खां, शचीन्द्रनाथ बख्शी और जोगेश चंद्र चटर्जी जैसे संस्थापक सदस्यों ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन किया। इसके बाद चंद्रशेखर आजाद और बाद में भगत सिंह भी एचआरए में शामिल हुए। उनका घोषणा पत्र मुख्य रूप से बिस्मिल ने लिखा था। आधिकारिक तौर पर घोषणा पत्र 1 जनवरी, 1925 को जारी किया गया, जिसका शीर्षक था- क्रांतिकारी।

काकोरी ट्रेन कांड

अगस्त 1925 में काकोरी में ट्रेन डकैती HRA की पहली बड़ी कार्रवाई थी। क्रांतिकारियों ने शाहजहांपुर और लखनऊ के बीच ट्रेन को लूटने की योजना बनाई। ट्रेन अक्सर लखनऊ में ब्रिटिश राजकोष में जमा किए जाने वाले ट्रेजरी बैग ले जाती थी। क्रांतिकारियों का मानना था कि पैसा वैसे भी भारतीयों का है। अगर वह इस कार्रवाई को अंजाम देते हैं तो न सिर्फ उनके संगठन के पास पैसा आएगा बल्कि साथ में एचआरए का प्रचार भी हो जाएगा।

9 अगस्त, 1925 को जब ट्रेन लखनऊ से लगभग 15 किमी दूर काकोरी स्टेशन से गुजर रही थी, एचआरए के एक सदस्य राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, जो पहले से ही अंदर बैठे थे, उन्होंने ट्रेन की चेन खींच दी और ट्रेन को रोक दिया। इसके बाद राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाकउल्लाह खां सहित लगभग दस क्रांतिकारी ट्रेन में घुसे और गार्ड को काबू किया। फिर लूट शुरू हुई। क्रांतिकारियों ने ट्रेजरी बैग (लगभग 4,600 रुपये) लूटा और लखनऊ भाग गए।

इस डकैती से अंग्रेज बहुत भड़के और भारतीय जनता को परेशान किया। लूटपाट के दौरान मिसफायरिंग से एक यात्री (अहमद अली नाम का एक वकील) की मौत हो गई। इसके बाद काकोरी ट्रेन एक्शन में शामिल लगभग सभी के साथ हिंसक कार्रवाई हुई। पुलिस ने बिस्मिल को अक्टूबर में गिरफ्तार किया।

मृत्यु और विरासत

अठारह महीने की लंबी जांच के बाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला और राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को मौत की सजा सुनाई गई। 19 दिसंबर, 1927 को फांसी हुई। फांसी के वक्त राम प्रसाद बिस्मिल की उम्र महज 30 साल थी। हालांकि उनकी विरासत मुख्य रूप से उनकी कविता के माध्यम से जीवित है। उनकी कविताएं न केवल साथी भारतीयों को स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए प्रेरित करने के लिए थीं, बल्कि वे समाज में समानता और मानव गरिमा के सार्वभौमिक सिद्धांतों के लिए एक गहरी चिंता को भी दर्शाती थीं। ‘गुलामी मिटा दो’ में बिस्मिल लिखते हैं:

“जो लोग गैरों पर करते हैं सितम नाहक
गर दम है मेरा कयाम, गिन-गिन के सजा दूंगा।”

साथी क्रांतिकारी कवि अशफाकउल्ला खां से घनिष्ठ मित्रता के कारण आज राम प्रसाद बिस्मिल साम्प्रदायिक सद्भाव के प्रतीक भी बन गए हैं। अपनी फांसी से ठीक पहले लिखे गए अपने अंतिम पत्र में, बिस्मिल ने राष्ट्र की सेवा में हिंदू-मुस्लिम एकता का आह्वान किया था।

उन्होंने लिखा:

“यदि अशफाक जैसा समर्पित मुसलमान क्रांतिकारी आंदोलन में राम प्रसाद जैसे आर्य समाज का दाहिना हाथ हो सकता है, तो अन्य हिंदू और मुसलमान अपने तुच्छ स्वार्थों को भूल कर एक क्यों नहीं हो सकते? …अब देशवासियों से मेरा एक ही निवेदन है कि अगर उन्हें हमारे मरने का रत्ती भर भी दुख है, तो वे किसी भी तरह से हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करें; यही हमारी अंतिम इच्छा है और वही हमारा स्मारक हो सकता है।”