दुर्गा पूजा को अब हिंदू धर्मावलंबी एक प्रमुख त्योहार के रूप में मनाते हैं। इसके आरंभ की कई कहानियां मशहूर हैं। कुछ अप्रमाणित किवदंतियां हैं, कुछ दस्तावेजी इतिहास हैं। समय के साथ दुर्गा पूजा का स्वरूप भी बदलता गया है। कभी यह कुछ जमींदार परिवारों के शक्ति प्रदर्शन का माध्यम था, बाद में यह बरतानिया हुकूमत के खिलाफ लामबंदी का मंच बना। 2021 में यूनेस्को ने दुर्गा पूजा को Public Art Festival मानते हुए सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में जगह दिया। यूनेस्को इस त्योहार को धर्म और कला के सार्वजनिक प्रदर्शन का शानदार उदाहरण मानता है।

कभी पारिवारिक समारोह था दुर्गा पूजा!

दुर्गा पूजा के आरंभ को लेकर एक अप्रमाणित किस्सा है, जिसके मुताबिक, बंगाल में पहली बार दुर्गा पूजा का आयोजन ताहिरपुर के एक जमींदार ने पंडित के कहने पर कराया था। तब दुर्गा पूजा एक पारिवारिक समारोह भर था।  

हाल के वर्षों में दुर्गा की गैर-वैदिक जड़ों की व्याख्या भी हुई है। इस विषय पर इतिहासकार कुणाल चक्रवर्ती का काम महत्वपूर्ण है। वह बताते हैं कि दुर्गा का ब्राह्मणवादी देवी के रूप में विकास 16वीं शताब्दी से देखने को मिलता है। दुर्गा पूजा को सार्वजनिक उत्सव के रूप में मनाए जाने की शुरुआत 18वीं शताब्दी से होती है।

अंग्रेजों की जीत और दुर्गा पूजा की शुरुआत

17वीं और 18वीं शताब्दी के बीच बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने मुगलों से नाता तोड़ लिया। सिराजुद्दौला बंगाल के अंतिम स्वतंत्र नवाब थे। नवाब के मुगल शासकों से अलग होने के बाद उस क्षेत्र में हिंदू जमींदारों का एक वर्ग पैदा हो गया। इस तरह हिंदू जमींदार अपने आप में छोटे-छोटे राजा बन गए। वह अपने क्षेत्र और प्रजा पर कड़ा नियंत्रण रखते थे। हालांकि स्थानीय सत्ता को उस वक्त भी पर्याप्त राजनीतिक शक्ति प्राप्त नहीं थी। वह अभी भी नवाब के हाथों में ही थी।

वर्ष 1690 के दशक में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी वाणिज्यिक उपनिवेश की स्थापना कर चुका था। अंग्रेजों ने बंगाल में व्यापार करने के लिए मुगलों से विशेष समझौता किया था। ब्रिटिश कंपनी को प्राप्त विशेषाधिकारों से नवाबों के प्रांतीय राजकोष भारी नुकसान हो रहा था। यह टकराव 1757 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और नवाब सिराजुद्दौला के बीच प्लासी के युद्ध का कारण बना।

ब्रिटिश सैनिकों ने यह युद्ध रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में लड़ा। उन्हें मद्रास से विशेष रूप से इस युद्ध के लिए भेजा गया था। नवाब सिराजुद्दौला की बुरी हार हुई। यह युद्ध बंगाल में अंग्रेजों की राजनीतिक और सैन्य सर्वोच्चता को स्थापित करने वाला साबित हुआ।

नवाब की हार के बाद जमींदारों की राजनीतिक संबद्धता में बदलाव आया है। अब उन्हें शासितों पर राजनीतिक अधिकार, वित्तीय स्थिरता और प्रशासनिक नियंत्रण को प्रदर्शित करने की आवश्यकता महसूस हुई। बंगाल के भारी राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन के उस युग में जमींदारों ने अपना प्रभाव स्थापित करने के लिए दुर्गा पूजा के उत्सव को माध्यम बनाया। वह इसके जरिए राजनीतिक प्रभाव के साथ-साथ धार्मिक मान्यता प्राप्त करने की भी कोशिश कर रहे थे। अद्रिजा रॉय चौधरी ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखे अपने एक आर्टिकल में इतिहासकार तिथि भट्टाचार्य के हवाले से इस घटनाक्रम को रेखांकित किया है।

बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी के उदय के साथ कलकत्ता शहर में एक संपन्न व्यापारिक वर्ग का उदय हो रहा था। देशी व्यापारियों ने अंग्रेजों के साथ मिलकर काम करना शुरू कर दिया क्योंकि वे नए शहर में खुद को स्थापित करना चाहते थे। दुर्गा पूजा उत्सव एक आदर्श साधन बन गया जिसके जरिए नवगठित व्यापारिक वर्ग ने न केवल मूल निवासियों पर, बल्कि ब्रिटिश और अन्य यूरोपीय लोगों पर भी अपना वित्तीय प्रभाव डाला। अंग्रेजों और बंगाली व्यापारी वर्ग के बीच घनिष्ठ सहयोग इस तथ्य से भी स्पष्ट होता है कि अंग्रेजों ने न सिर्फ पूजा समारोहों का भरपूर आनंद उठाया बल्कि उन्हें संरक्षण भी दिया।

उस दौर व्यापारियों के बीच इस बात को लेकर प्रतिस्पर्धा थी कि कौन दुर्गा पूजा उत्सव में कितना धन खर्च कर सकता है। शोभा बाजार में नवकृष्ण देब के स्वामित्व वाले महलनुमा घर में दुर्गा पूजा उत्सव की आज भी चर्चा होती है। इस तरह दुर्गा पूजा एक वार्षिक कार्यक्रम बना गया। 18वीं और 19वीं शताब्दी के वृत्तांतों से पता चलता है कि बंगाल के दुर्गा पूजा उत्सव में मुर्शिदाबाद और लखनऊ से नृत्य करने वाली लड़कियों को बुलाया जाता था।

दुर्गा पूजा के आरंभ का एक किस्सा राजा नवकृष्ण देब से भी जुड़ा है। बताया जाता है कि प्लासी के युद्ध में कंपनी की जीत के बाद अंग्रेजों के हिमायती राजा नवकृष्ण देब ने ही रॉबर्ट क्लाइव के सामने दुर्गा पूजा आयोजित करने का प्रस्ताव रखा था। इस तरह 1757 में पहली बार कोलकाता में दुर्गा पूजा का भव्य आयोजन हुआ।

अंग्रेजों की विदाई का मंच बना दुर्गा पूजा

19वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी की शुरुआत में दुर्गा पूजा उत्सव के चरित्र में बदलाव आना शुरू हुआ। यह वह समय था जब राष्ट्रवादी नारों से पूरा बंगाल गूंज रहा था। इसी दौरान दुर्गा पूजा को अंग्रेजों के खिलाफ राष्ट्रवादी आंदोलन से जोड़ा जाने लगा। बंगाल में आजादी के दिवाने दुर्गा को एक ऐसी शक्ति का प्रतीक मानने लगे, जो देश को कठिन समय बचाने के लिए शक्ति दे रही थीं। दूसरी तरफ कुछ लोगों ने दुर्गा को राष्ट्र का ही अवतार बना दिया, जिन्हें बचाना अब उनकी संतानों की जिम्मेदारी थी। आज भी चित्र के लिए ‘दुर्गा माता’ और ‘भारत माता’ की कल्पना शेर बैठे हुए ही की जाती है।

राष्ट्र और देवी के बीच संबंध के पहले उदाहरणों में से एक बंकिम चंद्र चटर्जी का प्रसिद्ध उपन्यास आनंदमठ है। 1882 में लिखे आनंदमठ में ही ‘वंदे मातरम’ गीत था, जो राष्ट्रवादी आंदोलन का सबसे लोकप्रिय नारा बना। 1905 में बंगाल विभाजन के बाद दुर्गा पूजा के उत्सव में सबसे आक्रामक बदला हुआ। बंगाल विभाजन के बाद दुर्गा पूजा उत्सव स्वदेशी अभियान का मंच बन गया।

1920 के दशक में गांधी के आह्वान पर कई बंगाली हिंदू नेताओं ने दुर्गा पूजा को जाति और वर्ग का भेद मिटाकर मनाना शुरू किया। इसी कड़ी में 1926 में सार्वभौमिक पूजा की अवधारणा पैदा हुई। इस तरह की पहली पूजा को “कांग्रेस पूजा” कहा जाता था और इसका आयोजन उत्तरी कोलकाता के मानिकतला में किया गया था।

राष्ट्रवादियों के दुर्गा पूजा का जमकर प्रतीकात्मकता इस्तेमाल किया। जेल में रहते हुए कई स्वतंत्रता सेनानियों ने दुर्गा पूजा करने के अधिकार की मांग कर देशभक्ति व्यक्त की थी। इसका एक बेहतरीन उदाहरण सशस्त्र क्रांति के हिमायती सुभाष चंद्र बोस भी हैं। उन्होंने सितंबर 1925 में मांडले जेल में दुर्गा पूजा मनाई थी।