15 जुलाई को स्वतंत्रता सेनानी और राजनीतिज्ञ कुमारस्वामी कामराज की 120वीं जयंती थी। उन्हें अपनी सादगी और ईमानदारी के साथ-साथ अपने चतुर राजनीतिक बुद्धि के लिए भी याद किया जाता है।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में कामराज ने जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद कठिन समय में पार्टी का नेतृत्व किया। हालांकि वह स्वयं कभी प्रधानमंत्री नहीं बने, लेकिन उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी दोनों को को पीएम पद तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

दो बार बने मद्रास के CM

एक नेता और मुख्यमंत्री के रूप में कामराज ने मद्रास (वर्तमान में तमिलनाडु) के भीतर शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने इन दोनों क्षेत्रों में इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट के लिए भारी निवेश करने का श्रेय दिया जाता है। कामराज के कार्यकाल में मद्रास भारत के सबसे अधिक औद्योगिकीकृत राज्यों में से एक बन गया था। इस कार्य के लिए उन्हें स्वयं जवाहरलाल नेहरू का सम्मान और स्नेह मिला। साल 1976 में के. कामराज को मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया था। उनके जन्मदिन को पूरे तमिलनाडु के स्कूलों में ‘एजुकेशन डेवलपमेंट डे’ के रूप में मनाया जाता है।

11 साल की उम्र में दुकान पर काम करने लगे थे

कामराज एक स्व-निर्मित नेता और जनता के हितैषी व्यक्ति थे। उनका जन्म एक गरीब नादर (पिछड़ी जाति) परिवार में हुआ था। उनकी स्कूली पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई थी। उन्होंने मात्र 11 साल की उम्र में मदुरै के पास अपने चाचा की किराने की दुकान में काम करना शुरू कर दिया था। इसी दौरान उनके भीतर राजनीति और स्वतंत्रता संग्राम में गहरी रुचि जागी।

अपनी पीढ़ी के कई लोगों की तरह कामराज के लिए भी जलियांवाला बाग नरसंहार एक ट्रिगर प्वाइंट था। उस घटना ने युवा कामराज को राष्ट्र की भलाई के लिए अपना जीवन समर्पित करने की प्रेरणा दी। कांग्रेस पार्टी के लिए एक स्वयंसेवक के रूप में शुरुआत करते हुए, कामराज 1940 में पार्टी की राज्य इकाई के प्रमुख बने। वह 1954 तक अपने पद पर बने रहे। इसके बाद पार्टी ने उन्हें मद्रास राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया। उनके नेतृत्व में ही कांग्रेस को राज्य में संगठनात्मक मजबूती मिली।

स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए कामराज को ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा छह बार कैद किया गया था, और उन्होंने 3,000 से अधिक दिन जेल में बिताए थे।

एक स्कूल ड्रॉपआउट ने जगाई शिक्षा की अलख

अनुभवी कांग्रेस नेता और समर्पित गांधीवादी सी राजगोपालाचारी 1952 में मद्रास राज्य के मुख्यमंत्री बने। हालांकि 1954 तक तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के साथ उनके मतभेद हो गए और पार्टी ने अनुभवी नेता की जगह युवा नेता (कामराज) को लाने का फैसला किया, जो जमीन से अधिक जुड़ा था।

ऐसे समय में जब देश की टॉप लीडरशिप पोजीशन अभिजात वर्ग के लिए आरक्षित था, कामराज शायद भारत के पहले गैर-अंग्रेजी भाषी मुख्यमंत्री थे। उनमें औपचारिक शिक्षा में जो कमी थी, उसे उन्होंने ज्ञान से पूरा किया। उन्होंने 1953 में राजाजी (सी. राजगोपालाचारी) द्वारा शुरू की गई प्राथमिक शिक्षा की जाति आधारित संशोधित योजना को हटा दिया और 6,000 स्कूलों को फिर से खोल दिया जो ‘वित्तीय कारणों’ का हवाला देकर राज्य में बंद कर दिए गए थे। उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान 12,000 से अधिक स्कूल बनवाए और 11वीं कक्षा तक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की शुरुआत की।

बड़े पैमाने पर नामांकन अभियान के बाद, 1962 तक राज्य की 85 प्रतिशत आबादी मुफ्त शिक्षा प्राप्त कर रही थी। कामराज की पहल से राज्य के कुछ सबसे गरीब, सबसे हाशिए पर रहने वाले समुदायों के बीच भी स्कूल खोले गए।

दिलचस्प बात यह है कि आज की बेहद लोकप्रिय “मध्याह्न भोजन योजना” कामराज के दिमाग की उपज मानी जाती है। अपने एक दौरे के दौरान उनकी मुलाकात एक युवा लड़के से हुई जो मवेशी पाल रहा था। जब उन्होंने बच्चे से पूछा कि वह स्कूल क्यों नहीं आया, तो बच्चे ने जवाब दिया, “अगर मैं स्कूल जाऊंगा, तो क्या आप मुझे खाने के लिए खाना देंगे?” इसके चलते कामराज ने स्कूलों में दोपहर का भोजन कार्यक्रम शुरू किया।

कामराज योजना

राष्ट्रीय स्तर पर कामराज को शायद सबसे अनुभवी कांग्रेसी के रूप में पहचाना जाता है, जिन्होंने नेहरू की मृत्यु के बाद पार्टी को “बचाया”।
1963 में नेहरू बीमार थे और कांग्रेस को एक के बाद एक संकट का सामना करना पड़ रहा था। पार्टी की उपचुनावों में हार हो रही थी। 1962 में चीन से मिली शर्मनाक हार का बोझ भी कांग्रेस पर ही था। एक दशक तक सत्ता में रहने के बाद कांग्रेस पदाधिकारियों और कैडर में थकान आ गई थी। सवाल उठने लगा था- ‘नेहरू के बाद कौन?’

तभी कामराज पार्टी को फिर से सक्रिय करने और सरकार को मजबूत करने की योजना लेकर आए। उन्होंने प्रस्ताव दिया कि सरकार में मौजूद नेताओं को अपने मंत्री पद छोड़ देना चाहिए और संगठनात्मक कार्य करना चाहिए, जबकि संगठन में रहने वालों को सरकार में शामिल होना चाहिए। विशेष रूप से वह खुद द्रमुक के उभार को देखते हुए मुख्यमंत्री पद छोड़ पार्टी के लिए काम करना चाहते थे।

10 अगस्त, 1963 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के एक रेजोल्यूशन में कामराज योजना स्वीकार कर लिया गया। सभी केंद्रीय मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों ने नेहरू को अपने कागजात सौंपे। तब छह केंद्रीय मंत्रियों – मोरारजी देसाई, एसके पाटिल, लाल बहादुर शास्त्री, जगजीवन राम, केएल श्रीमाली और बी गोपाल रेड्डी का इस्तीफी स्वीकार कर लिया गया। साथ ही मद्रास, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और कश्मीर के मुख्यमंत्री को भी पद छोड़ना पड़ा।

नेहरू के बाद…

27 मई, 1964 को नेहरू का निधन हो गया। चतुर कामराज जानते थे कि नेहरू जैसा कोई और नहीं हो सकता। पार्टी को सत्ता और महत्वाकांक्षी नेताओं दोनों को प्रबंधित करने के लिए एक नए नेतृत्व मॉडल की आवश्यकता थी। उनका पहला काम प्रधानमंत्री कार्यालय में एक सुचारु परिवर्तन सुनिश्चित करना था, वह प्रधानमंत्री के पद पर गैर-विवादास्पद लाल बहादुर शास्त्री को बैठाना चाहते थे।

उनका अगला कदम पार्टी और सरकार में जोश भरना था। उन्होंने पार्टी को संघीय नेतृत्व प्रणाली की ओर ले जाने की कोशिश की और अतुल्य घोष, एन संजीव रेड्डी, निजलिंगप्पा और एसके पाटिल जैसे शक्तिशाली राज्य क्षत्रपों का विश्वास जीता। कामराज के सामूहिक नेतृत्व पर जोर देने से कांग्रेस को उस कठिन समय से निकलने में मदद मिली जब उसने जल्दी ही नेहरू और शास्त्री को खो दिया। दो युद्धों और सूखे ने अर्थव्यवस्था की हालत ख़राब कर दी थी।

बाएं से- कामराज और इंदिरा गांधी (Express archive photo)

कामाज के हाथ से निकल गई कांग्रेस

कामराज ने कांग्रेस में अधिक अनुभवी मोरारजी देसाई के बजाय इंदिरा गांधी को शास्त्री के उत्तराधिकारी के रूप में चुनने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। हालांकि इंदिरा गांधी को पद मिलते ही कांग्रेस कामराज के सामूहिक नेतृत्व और सर्वसम्मति-निर्माण के दृष्टिकोण से दूर और नेता-केंद्रित आलाकमान की ओर चली गई।

इंदिरा का अपना व्यक्तित्व धीरे-धीरे पार्टी संगठन पर हावी होने लगा, जिससे इंदिरा के समर्थकों और ओल्ड गार्ड या सिंडिकेट के बीच मनमुटाव पैदा हो गया, जिसके परिणामस्वरूप अंततः 1969 में पार्टी का विभाजन हो गया।

तब तक कामराज का प्रभाव कम हो गया था। 1967 के विधानसभा चुनावों में डीएमके ने मद्रास राज्य में कांग्रेस को हरा दिया था और कामराज खुद हार गए थे। मुख्यमंत्री के रूप में कामराज के मार्गदर्शन के बिना, मद्रास की कांग्रेस सरकार 1965 में राज्य को हिला देने वाले हिंदी विरोधी आंदोलन और 1965-66 की भोजन की कमी को संभालने में विफल रही।

कामराज तमिलनाडु में कांग्रेस (ओ) पार्टी के नेता बने, लेकिन चुनावी सफलता नहीं मिली। 1971 में इंदिरा को हराने की उम्मीद पालने वाली पार्टी ने निराशाजनक प्रदर्शन किया। इंदिरा की कांग्रेस (रिक्विजिशन) ने कांग्रेस (ओ) को बुरी तरह हरा दिया। कामराज का 1975 में 72 वर्ष की आयु में निधन हो गया।