सन 1930-31 में लखनऊ के रॉयल सिनेमा में कोई मूक फिल्म चल रही थी। वहां हारमोनियम पर उस्ताद लड्ढन, तबले पर उस्ताद कल्लन और क्लारनेट बजाने के लिए बाबूलाल बैठे थे। ये सभी परदे पर रोमांटिक और मारामारी के सीन आने पर संगीत बजाते थे ताकि रसहीन मूक फिल्मों को दिलचस्प बना सकें। इसका अभ्यास वे फिल्म देख कर कर लेते थे। यह एक तरह से पार्श्वसंगीत के आने से पहले उसकी जमीन तैयार करने जैसा था। दर्शकों में 10-11 साल के नौशाद थे जिनके सिर पर राजा इंदर सवार थे। उनकी हालत ‘अगरचे हुस्नपरस्ती लिखी थी किस्मत में, मेरा मिजाज लड़कपन से आशिकाना था’ किस्म की थी। वह संगीत की महफिल, सिनेमा, नौटंकी हो या कोई जलसा जाए बिना नहीं मानते थे। घरवाले परेशान थे। नौशाद संगीत वाद्यों की दुकान भोंदू एंड संस के मालिक गुरबतअली की मेहरबानी से दुकान में सफाई करने और लोबान सुलगाने, अगरबत्ती लगाने का काम करने लगे और सुबह आकर दुकान के वाद्यों पर उन बंदिशों का रियाज करते थे जो उस्ताद लोग रॉयल सिनेमा में बजाते थे। एक दिन गुरबत ने उन्हें पकड़ लिया और सजा के तौर पर वह बाजा दे दिया, जिसे नौशाद बजा रहे थे। यही नहीं, उन्होंने लड्ढन साब को बुलाकर नौशाद जो बजाते थे वह सुनवाया। उन्हें उस्ताद बब्बन के पास भेज दिया जिनसे नौशाद ने भूपाली, देस, तिलक कामोद जैसे राग सीखे। गुरबत मेहरबान हुए तो नौशाद को अपने छोटे भाई सितारनवाज यूसुफ अली का चेला बनवा दिया। यूसुफ साब मशहूर सितारवादक विलायत अली खान के अब्बा इनायत खान के साथी थे और दोनों की अक्सर जुगलबंदी चर्चा का विषय बनती थी।

सन 1937 में लखनऊ से फिल्मों में किस्मत आजमाने नौशाद मुंबई आ गए थे। कहते हैं कि अगर एक दशक में मुंबई में आपकी किस्मत नहीं खुलती तो फिर विरले ही होते हैं जिनकी किस्मत खुलती है। छिटपुट फिल्मों के बाद 1944 में नौशाद के संगीत से सजी फिल्म ‘रतन’ (करण दीवान, स्वर्णलता, निर्देशक एम सादिक) ने सिनेमा की दुनिया में धूम मचा दी। ‘मिल के बिछड़ गई अंखियां…’, ‘अंखिया मिला के जिया भरमा के…’, ‘जब तुम ही चले परदेस…’ जैसे गाने लोगों की जुबान पर चढ़े थे। कहा जाता है कि इस फिल्म से होने वाली कमाई बैलगाड़ियों में लाद कर लाई जाती थी। नौशाद मशहूर हो गए थे। उन्हें नामी निर्माताओं की फिल्में मिल रही थी, जिनमें चोटी के सितारे हुआ करते थे।
अपने एक करीबी के इंतकाल में मातमपुरसी के लिए नौशाद लखनऊ आए। अब वह गुमनाम नहीं थे। उनसे कहा कि देवा शरीफ में हजरत वारासली साहब का उर्स है, वहां आप एक संगीत प्रतियोगिता के जज भी हैं। कलेक्टर साहब के साथ नौशाद प्रतियोगिता में पहुंचे। वहां घोषणा हो रही थी। अब जनाब यूसुफ अली साहब ्नराग यमन कल्याण सुनाएंगे। अली साब मंच पर आए।और जैसे ही नौशाद ने उनकी ओर देखा, पसीना-पसीना हो गए। यह वही यूसुफ अली थे, जो उनके गुरु थे। आज अपने ही गुरु की प्रतिभा को परखने के लिए उनका चेला निर्णायक बना हुआ था। उस्ताद ने जैसे ही आलाप खत्म किया। सन्नाटा हुआ और घबराए नौशाद धीरे से कुर्सी पर से उठे और तंबू की कनात उठाकर भाग खड़े हुए और सीधे लखनऊ पहुंच कर ही दम लिया।