निर्देशक -अनीज बजमी
कलाकार- नाना पाटेकर, अनिल कपूर, जॉन अब्राहम, श्रुति हासन, अंकिता श्रीवास्तव, डिंपल कापड़िया, नसीरुद्दीन शाह।
एक ही तरह के चुटुकुले आपको कितना हंसा सकते हैं? इसका जवाब अगर आपके पास है तो ‘वेलकम बैक’ देखने में और उसका मजा लेने में सहूलियत होगी। अगर आप एक ही तरह के चुटकुले पर लगातार ठहाके लगा सकते हैं तो यह फिल्म अच्छी लगेगी और नहीं लगा सकते तो फिर यह फिल्म काम चलाऊ कॉमेडी लगेगी।
जिन लोगों ने ‘वेलकम’ (जिसमें अक्षय कुमार और कैटरीना कैफ की जोड़ी मुख्य भूमिका में थी) देखी होगी उनके लिए इस सीक्वल में हंसी का डोज पर्याप्त नहीं है क्योंकि जॉन अब्राहम और श्रुति हासन उतनी दमदार नहीं है। जॉन अब्राहम अगर कॉमेडी के लिए किसी कोचिंग सेंटर में दाखिला ले लें तो उन्हें बहुत फायदा होगा। और अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो जिस फिल्म में वे कॉमेडी वाले रोल में होंगे उसके निर्माता को नुकसान होगा। ‘वेलकम बैक’ में ऐसा ही होगा, कम से कम ऐसी आशंका है।
पर ‘वेलकम’ के दो बड़े अभिनेता यहां हैं- अनिल कपूर और नाना पाटेकर। नाना पाटेकर ने पहले की तरह ही उदय शेट्टी की भूमिका निभाई और अनिल कपूर ने मजनू भाई की। पर ये दोनों अब भाईगिरी नहीं करते और शरीफ व्यवसायी हो गए हैं। फिर भी कुछ पुरानी आदतें गई नहीं हैं। दोनों एक ही लड़की चांदनी (अंकिता श्रीवास्तव) पर लट्टू हो गए हैं। पर उदय शेट्टी इस लट्टूगीरी को आगे बढ़ाने की स्थिति में नहीं है क्योंकि उनके पिता (नाना का डबल रोल) ने उनके सामने एक सौतेली बहन रंजना (श्रुति हासन) को अचानक ला खड़ा किया और कहा कि इसकी अच्छे खानदान में शादी करो।
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डॉक्टर घुंघरू (परेश रावल जो इस भूमिका में ‘वेलकम’ में थे) का भी एक सौतला बेटा अज्जू ( जॉन अब्राहम) है, जिस पर उदय शेट्टी की निगाह टिकती है। बाद में मालूम होता कि अज्जू का शराफत से कोई लेना-देना नहीं है और वह भी भाईगीरी में उस्ताद है और मुंबई का डॉन है। फिर कहानी में एक दृष्टिहीन पर वांटेड भाई (नसीरुद्दीन शाह) की एंट्री होती है, जिसका एक चरसी बेटा (शाइनी आहूजा) है।
इस नशेड़ी का दिल भी रंजना पर आ गया है। एक हसीना और दो दीवाने का मामला बनने लगता है और फिर इसी बात पर पूरी फिल्म की कहानी आगे बढ़ती है कि दूल्हा अज्जू भाई बनेगा या चरसी भाई। जिन लोगों ने पहली वाली ‘वेलकम’ देखी है उन्हें समझ में आ गया होगा कि जैसी भूमिका उसमें फिरोज खान ने निभाई थी वैसी यहां नसीरुद्दीन शाह ने निभाई है। फर्क यही है कि नसीर यहां दृष्टिहीन डॉन बने हैं।
मध्यांतर के पहले तक फिल्म में धार है लेकिन उसके बाद फिल्म बिखर जाती है और संवाद भी बासी लगने लगते हैं। अनिल कपूर ने मीडिया से कहा है कि इस फिल्म को लोग जरूर देखें वरना एक अच्छे निर्देशक (उनका आशय अनीज बजमी से है) के फिल्मी कैरियर का अंत हो जाएगा। क्या लोग इस बयान को गंभीरता से लेंगे? बजमी के पास कुछ पिटे-पिटाए फार्मूले हैं और अच्छे कॉमिक सीन की रचना वे कर नहीं पाते।
फिल्म में एक्शन भी है पर एक्शन और कॉमेडी का ठीक से मेल नहीं हो पाया है। नाना पाटेकर और अनिल कपूर ने फिल्म में जान डालने की कोशिश की है और उनके कुछ दृश्य बड़े असरदार हैं। पर अंकिता श्रीवास्तव को इस भूमिका में लाने का क्या मतलब है? डिंपल कापड़िया उनकी मां बनी हैं और वे भी सामान्य ही लगी हैं। फिल्म में कोई ढंग का गाना भी नहीं है। फिर भी निर्माता मेहरबान तो निर्देशक बजमी पहलवान हो गए। सुनते हैं कि यह सौ करोड़ में बनी फिल्म है। कुछ अभिनेताओं को मुंहमांगा पारिश्रमिक दिया गया है। सबकी अपनी-अपनी किस्मत होती है।