राजीव सक्सेना

ओटीटी मंच की सार्थकता में कथा-पटकथा लेखकों के योगदान को रेखांकित करने का समय आ गया है। घिसी-पिटी अपराध कथाओं से अलग देश की तरक्की में अवरोध बने बाहरी आतंकवाद, अस्त-व्यस्त अर्थव्यवस्था और आम जन को छद्म अध्यात्म के बहाने मानसिक तौर पर दिवालिया बनाने के प्रयास भी अब वेब शृंखलाओं के जरिये परत दर परत खुलते नजर आ रहे हैं…

अवरोध-2
सोनी लिव पर अवरोध के दूसरे भाग की प्रतीक्षा इसके प्रदर्शन के साथ खत्म हो गई। पहले भाग में, पड़ोसी दुश्मन देश की खुफिया एजंसी आइएसआइ की आतंकी घुसपैठ का, भारतीय सेना द्वारा लक्षित हमलों के माध्यम से खात्मा किए जाने का घटनाक्रम खूबसूरती से प्रस्तुत किया गया। दूसरा भाग इसी की अगली कड़ी बतौर आतंकियों की एक और बड़ी साजिश को सफाई से नाकामयाब करने की कहानी बयां करता है।

अवरोध-2 में आइएसआइ और जैश-ए-मोहम्मद की, भारत के तमाम शहरों में जाली करेंसी के व्यापक वितरण, सौ किलो से ज्यादा आरडीएक्स के जरिये 25 हवाई जहाजों में विस्फोट सरीखी बदनीयती की कार्रवाई को अंजाम देने से पहले पदार्फाश करने की भारतीय सेना की सफलता से जुड़ी कहानी पटकथा में पिरोई गई है। सीरीज के पहले भाग की तरह ही दूसरे भाग में भी एक बड़ी टीम के साथ, निर्देशकीय कौशल उल्लेखनीय और काबिल-ए-तारीफ माना जाएगा। रक्षा मंत्रालय के सहयोग से, घटनाक्रम से जुड़ी कुछ असल स्थानों को भी शूटिंग स्थलों के तौर पर इस्तेमाल किया गया है।

कहानी के मुताबिक स्वयं प्रधानमंत्री, रक्षा सलाहकार और तीनों सेनानायकों के साथ पूरी कार्रवाई का संचालन और नियमित समीक्षा करते हैं। देश की अर्थव्यबस्था को तहस-नहस करने की दुश्मन देश की बदनीयत को भांपते हुए एक उत्साही सैन्य अधिकारी प्रदीप भट्टाचार्य को मुंबई के आयकर भवन में उसी विभाग के अधिकारी बतौर नियुक्त किया जाता है।

देश-विदेश के तमाम कल्याणार्थ संगठनों के खाते खंगालते हुए उनकी निगाह में कई चौँकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। इनकी तह तक पहुंचकर, गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु और कर्नाटक से जुड़े इनके तारों के सहारे खुफिया एजंसी की प्रतिनिधि करिश्मा सहाय उर्फ परवीना शेख को गिरफ्त में लेते हुए सफल अंजाम की कहानी दिलचस्प है।

राज आचार्य के निर्देशन में वरिष्ठ अभिनेता मोहन आगशे के अलावा अरविन्द कावी, अहाना कुमरा, जयशंकर त्रिपाठी जैसे कलाकारों ने अवरोध -2 में, अपनी-अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है। वेब शृंखलाओं के माध्यम से देशभक्ति की भावनाओं को जागृत करने और सावधान रहने के मद्देनजर ये प्रयास वाकई प्रशंसनीय है।

आश्रम-3

देश को आगे बढ़ने में, बाहरी आतंक से भी कहीं अधिक नुकसान भीतरी लोग लगातार पहुंचाते रहे हैं। छद्म अध्यात्म से जुड़े तथाकथित संत और उनके डेरों की संदिग्ध गतिविधियों ने, धर्मभीरू जनमानस को खोखला करने में कसर नहीं छोड़ी है। देश के महापुरुषों, महान संतों की तुलना में दिन दूने रात चौगुने अचानक पैदा होने वाले ढोंगी संतों की आपराधिक प्रवृत्ति ने एक बड़े बौद्धिक वर्ग का अध्यात्म से मोहभंग भी किया है। वेब शृंखला ‘आश्रम’ ने इसी मुद्दे को मनोरंजन के साथ लपेटकर रोचक स्वरूप दिया है।

सार्थक सिनेमा आंदोलन के दौर में बिहार की प्राकृतिक आपदा को ‘दामुल’ के जरिये बड़े पर्दे पर पेश कर, संजीदा फिल्मकारों की जमात में प्रवेश लेने वाले प्रकाश झा, दूरदर्शन पर मुंगेरीलाल के हसीन सपनों से दर्शकों को रू-ब-रू कराते हुए गंगाजल, अपहरण और मृत्युदंड तक कब एक सफल व्यावसायिक फिल्म निर्माता में तब्दील हो गए पता ही न चला।

बिहार से मुंबई होते हुए मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में राजनीति, सत्याग्रह, चक्रव्यूह और जय गंगाजल सरीखी लगातार छह से अधिक मुख्यधारा की फिल्मों के निर्माण के बाद अब ओटीटी के छोटे पर्दे पर भी कामयाबी के झंडे गाड़ रहे हैं। ‘आश्रम’ के प्रथम दोनों भागों की एमएक्स प्लेयर पर उम्दा टीआरपी का नतीजा ‘आश्रम-3’ का प्रचार -प्रसार के साथ प्रदर्शित होना और पसंद किया जाना है।

पहले भाग का फिल्मांकन अयोध्या राजपरिवार की एक हवेली को नया आकार देकर किया गया था, जबकि दूसरे और तीसरे भाग का स्थल भोपाल और जयपुर की रखा गया। कई जगह प्रकाश झा के सोच से प्रेरित हुई लगती है, जिसमें राजनीति से जुड़े कितने ही तथ्य, सच की कसौटी पर कहीं खरे नहीं उतरते। खासकर किसी बाबा के आश्रम से प्रदेश की राजनीति का संचालन किया जाना.. बाबाजी की कौनसी ताकत नेताओं को उनकी शरण में जाने को मजबूर करती है, तीनों भाग देखने पर भी समझ नहीं आया।