शुरुआत तो इसी सवाल से कि क्या ये फिल्म व्यवसाय को लेकर चिंतित बॉलीवुड के संकट से निकाल पायेगी? इसका जवाब हां में नहीं है, हालांकि इसमें वो सारे मसाले हैं जो फिल्म को हिट बनाते हैं। इसमें जबदस्त एक्शन है, शानदार सिनेमेटोग्राफी है, सिनेमाई भव्यता है, दिग्गज सितारे हैं। लेकिन कमी कहां रह गई?

कमी ये है कि इसमें जो कहानी है वो दिल को नहीं छूती। वैसे ये इतिहास पर आधारित होने का छलावा पेश करती है लेकिन है कोरी कल्पना। पृष्ठभूमि में उन्नीसवीं सदी का भारत है, जब भारत अंग्रेजो का गुलाम था। परिस्थितियों की वजह से अपने मूल स्थान से भाग कर काजा नामक जगह में शरण लेने वाली खमेरन जाति के लोगों को वहां भी सम्मान नहीं मिलता। ऐसे में उनका सरदार शमशेरा (रणवीर कपूर) लूटपाट करने लगता है और उसके लोग भी।

तब की अंग्रेज सरकार उसे कुचलने के लिए पुलिस अधिकारी शुद्ध सिंह (संजय दत्त) को लगाती है। हालात ऐसे बनते हैं कि शमशेरा फंस जाता है और मारा जाता है। पच्चीस साल बाद उसका बेटा बल्ली अपने पिता की मौत का बदला लेने का संकल्प लेता है। क्या ऐसा हो सकेगा? निर्देशक करण मल्होत्रा ने इसमें आधुनिकतम तकनीक का इस्तेमाल किया है जिसकी वजह से ये फिल्म ग्लैमर से भरपूर हो गई है। पर ऐसा ग्लेमर किस काम का जब मूल बात कहीं छिप जाए।

वाणी कपूर, जो बल्ली की प्रेमिका बनी हैं ने ऐसे कपड़े पहने हैं जो उस जमाने में चलन में ही नहीं थे। दर्शक को निरा बेवकूफ समझा है क्या? ये माना कि रणवीर कपूर अपनी दोनों भूमिकाओं में जमें हैं लेकिन फिल्म का जज्बाती पहलू तो गायब हो गया है। शमशेरा और बल्ली दोनों की लड़ाई अंग्रेजों से है या शुद्ध सिंह से? बेशक इस पुलिस अधिकारी की भूमिका में संजय दत्त दुर्दांत लगे हैं लेकिन इसी कारण भारत की अंग्रेजों से लड़ाई तो नेपथ्य में चली गई न!

ये ठीक है कि ब्रितानी सरकार से लड़ाई वाला पहलू भी यहां है और उसके लिए कुछ विदेशी कलाकार भी इसमें रखे गए हैं। पर फिल्म में आजादी की लड़ाई को लेकर एक बड़ा असंतुलन भी है। फिल्म जाति प्रथा पर भी चोट करने की कोशिश करती है पर इंटरवल के पहले तक। उसके बाद ये मामला गायब हो गया है। संगीत वाला पक्ष भी कमजोर है। कुल मिलकर ये फिल्म नाम बड़े और दर्शन छोटे वाली है।