श्रीशचंद्र मिश्र

फिल्मों का मिजाज हर दौर में बदलता रहा है, लेकिन गीतों की महत्ता आज भी कम नहीं हुई है। बकौल विधु विनोद चोपड़ा, गीत-संगीत को ज्यादा प्रधानता देने की वजह से हिंदी फिल्में हॉलीवुड में उपहास की वजह हैं। लेकिन वे खुद हिंदी में बनाई गई अपनी किसी भी फिल्म में गीत न रखने का साहस नहीं जुटा पाए। उनकी एक फिल्म ‘1942-ए लव स्टोरी’ भले ही हिट न हो पाई हो पर उसके गीत ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ या ‘कुछ ना कहो’ आज भी याद किए जाते हैं। गुलजार शुरू में मानते थे कि गीत फिल्म के लिए गैरजरूरी है। निर्देशन की बागडोर संभालने के बाद उन्होंने गीतरहित फिल्म ‘अचानक’ बनाई भी, लेकिन उसके अलावा बाकी सभी फिल्मों में उन्होंने गीतों को प्रधानता दी। यहां तक कि गूंगे-बहरे नायक-नायिका वाली फिल्म ‘कोशिश’ में भी उन्होंने एक गीत ‘रोज अकेली आए, रोज अकेली जाए, चांद कटोरा लिया भिखारन रात’ इस्तेमाल किया। गुलजार की ‘आंधी’ व ‘मौसम’ जैसी फिल्में अपने मार्मिक विषय की वजह से सराही गर्इं। लेकिन ‘तुम आ गए हो, नूर आ गया है’, ‘तेरे बिना जिंदगी भी कोई जिंदगी नहीं’ जैसे गीतों का ‘आंधी’ को मजबूत सहारा मिला। ‘मौसम’ के पात्रों का दर्द ‘दिल ढूंढ़ता है फिर वही फुरसत के रात-दिन’ व ‘रुके-रुके से कदम रुक के बार-बार चले’ जैसे गीतों से ज्यादा मजबूती से उभरा।

गीत हिंदी फिल्मों का ऐसा अभिन्न हिस्सा हो गए हैं कि उनके बिना फिल्म की कल्पना ही नहीं की जा सकती। 1931 में फिल्मों को आवाज मिलने के बाद से मुश्किल से बीस फिल्में ही गीतरहित बनीं हैं। इनमें बीआर चोपड़ा की ‘कानून’ व ‘इत्तफाक’, वीआर इशारा की ‘चरित्र’, ओपी रल्हन की ‘हलचल’, राम गोपाल वर्मा की ‘कौन’, बासु चटर्जी की ‘सारा आकाश’, श्याम बेनेगल की ‘अंकुर’, ख्वाजा अहमद अब्बास की ‘मुन्ना’ और प्रेम प्रकाश की ‘चोर-चोर’ में से हिट कोई भी नहीं हो पाई। इससे उलट कई फिल्में ऐसी बनीं जिनमें गीतों की भरमार रही। 1932 में बनी ‘इंद्र सभा’ में तो 71 गीत थे। उसी साल ‘चतरा बकावली’ में 49, ‘शादी की रात’ में 35 और ‘मुफलिस आशिक’ में 32 गीत इस्तेमाल किए गए। 1970 में चेतन आनंद ने फिल्म ‘हीर रांझा’ में सभी संवाद पद्य शैली में बुलवा कर अनूठा प्रयोग किया।

बाद के सालों में फिल्मों में गीतों का अनुपात नियंत्रित जरूर किया गया लेकिन उनकी अनिवार्यता बनी रही। पचास-साठ का दशक तो फिल्मी गीत-संगीत का स्वर्णयुग कहा जाता है। हर रंग, हर मौसम, हर विषय, हर मिजाज और हर मौके के लिए गीत लिखे गए। आसानी से कल्पना की जा सकती है कि फिल्मी गीत नहीं होते तो सामाजिक, धार्मिक या पारिवारिक आयोजनों का रंग कैसे जम पाता? सैकड़ों फिल्में अपने गीतों की वजह से हिट हुर्इं। कई तो कमजोर कथानक के बावजूद गीतों के जरिए गाड़ी खींच ले गर्इं। कई फिल्में बाक्स आफिस पर लुढ़क गर्इं लेकिन उनके गीत अमर हो गए। ‘हमारी याद आएगी’ का गीत ‘कभी तन्हाई में यूं हमारी याद आएगी’ आज भी पसंद किया जाता है। सैकड़ों फिल्मों के नाम तो गीत के आधार पर रखे गए। विजय भट्ट ने ‘हरियाली और रास्ता’ के हर गीत में हरियाली व रास्ते का सप्रयास इस्तेमाल करवाया। यह प्रयोग बाद में ‘साजन’ व ‘धड़कन’ जैसी कई फिल्मों में हुआ।

गीतों की लोकप्रियता कभी भी फिल्म के छोटे या बड़े स्तर की होने से तय नहीं हुई। बड़े बजट की कई फिल्मों के गीत बिसरा दिए गए जबकि बी और सी क्लास की कई फिल्मों के गीत अमर हो गए। ‘हंसता हुआ नूरानी चेहरा’ व ‘वो जब याद आए बहुत याद आए’ जैसे गीत आज भी पसंद किए जाते हैं, लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि ये गीत सामान्य फंतासी फिल्म ‘पारसमणि’ के थे और उन्हीं के दम पर लक्ष्मीकांत प्यारेलाल की प्रतिभा पहचानी गई थी। ‘सारंगा तेरी याद में’ (सारंगा), ‘मेरे महबूब कयामत होगी’ (मिस्टर एक्स इन बांबे), ‘जहां डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा’ (सिकंदर-ए-आजम) जैसे असंख्य गीत हैं जो आज भी याद किए जाते हैं, भले ही उन फिल्मों पर इतिहास की धूल जम गई हो।
कुछ साल पहले तक फिल्मों में औसतन आठ-दस गीतों का होना आम बात थी। इसका एक मकसद तो फिल्म को सहारा देना था ही। असली नजर फिल्म के संगीत अधिकार बेचने से होने वाली आय पर टिकी होती थी। इस दौर में दजर्नों फिल्में ऐसी बनीं जो गीत-संगीत की प्रधानता लिए हुए थीं। इनमें ‘बैजू बावरा’, ‘शबाब’, ‘झनक-झनक पायल बाजे’, ‘नवरंग’, ‘बसंत बहार’, ‘गूंज उठी शहनाई’, ‘संगीत सम्राट तानसेन’, ‘गीत गाया पत्थरों ने’, ‘आलाप’, ‘सरगम’, ‘साजन’ व ‘आजा नच ले’ प्रमुख रहीं। राज कपूर, विमल राय, गुरुदत्त व सुभाष घई जैसे कई फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों में गीतों का इस्तेमाल बेहद कलात्मक अंदाज में किया और उन्हें पात्रों के मनोभाव व कहानी के उतार-चढ़ाव से जोड़ा। ‘आवारा’, ‘नागिन’ व ‘गाइड’ जैसी फिल्मों में तो एक के बाद एक दो गीतों को इस्तेमाल करने का प्रयोग किया गया।

स्थिति आज भी नहीं बदली है। गीतों की संख्या कम हुई है लेकिन उनकी अहमियत बनी हुई है। गीतों का व्यापक व भव्य फिल्मांकन होने लगा है। कई फिल्में तो ऐसी बनी हैं जिनमें गीत की कोई सिचुएशन न बन पाने पर पृष्ठभूमि में गीत का इस्तेमाल किया गया या फिल्म के प्रचार के लिए प्रोमो गीत तैयार करवा कर फिल्म के अंत में उसे दिखाया गया। इस तरह के गीतों ने अमूमन फिल्म के लिए लोगों में खासी उत्सुकता जगाई और वे फिल्म की सफलता का आधार भी बने। ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ में रोहित शेट्टी ने एक नया अंदाज अपना कर ‘लुंगी डांस’ को रजनीकांत को समर्पित किया।

पिछले एक दशक में फिल्मी गीतों पर कई तरह के आरोप लगते रहे हैं। मसलन संगीत में पहले जैसा माधुर्य न रह कर शोर-शराबा ज्यादा हो गया है। शब्दों में फूहड़ता बढ़ गई है और उसमें बेहूदी तुकबंदी को जगह दी जा रही है। फिल्मी गीतों को लेकर इस तरह की आलोचना हमेशा होती रही है। हर दौर में हर मिजाज के गीत लिखे गए हैं। बाजारू शब्दों का इस्तेमाल पहले भी होता था। ऐसे कुछेक गीत लोगों की जुबान पर चढ़ भी जाते थे। लेकिन अमर वही गीत हो पाए जिन्होंने सुनने वालों के दिल को छुआ। फड़कते गीतों का जीवनकाल पहले भी कम था, आज तो और कम हो गया है। साल दो साल में उनकी चमक खुरच जाती है।