निर्देशक: केतन मेहता

कलाकार: रणदीप हुड्डा, नंदना सेन, परेश रावल, आशीष विद्यार्थी

 

राजा रवि वर्मा आधुनिक भारतीय कला के बड़े व्यक्तित्व हैं। वे अकेले ऐसे कलाकार हैं जिनकी कलाकृतियों को करोड़ों भारतीय अपने घर में रखते हैं। उनकी पूजा करते हैं। बिना ये जाने कि ये किसकी बनाई कलाकृति है क्योंकि वे कला की नहीं भगवान की पूजा करते हैं। जी हां, भारतीय घरों में लक्ष्मी से लेकर सरस्वती जैसे देवी देवताओं के जो कैलेंडर टंगे रहते हैं वे सब राजा रवि वर्मा की बनाई कलाकृतियों के प्रिंट हैं। राजा रवि वर्मा केरल के थे लेकिन उनका कार्यक्षेत्र मुख्य रूप से वड़ोदरा (तब बड़ौदा) और मुंबई (तब बंबई) रहा। उन्होंने सिर्फ देवी देवताओं की मूर्तियां ही नहीं बनाई बल्कि मेनका-विश्वामित्र और शकुंतला के साथ निर्वसन (न्यूड) नारी चित्र भी बनाए। राजा रवि वर्मा ने दादा साहब फाल्के को प्रोत्साहित किया, जो हमारी फिल्मों के पुरोधा हैं। रंगरसिया उन्हीं राजा रवि वर्मा पर बनी फिल्म है।

पर केतन मेहता की ये फिल्म सिर्फ जीवनी परक नहीं है। शायद विवादों से बचने के लिए (हालांकि इसके बावजूद इस फिल्म पर विवाद हो रहे हैं) निर्देशक ने घोषणा कर दी है कि ये रणजीत देसाई के उपन्यास पर आधारित है। साथ ही ये एक पीरियड फिल्म यानी खास समय पर आधारित फिल्म भी है। इसमें आप उन्नीसवीं सदी के भारत की झलक भी पा सकते है। ये सामाजिक विषयों को भी छूती है। विशेषकर इस पहलू को कि राजा रवि वर्मा ने दलितों को, जिनको मंदिर में प्रवेश की इजाजत नहीं थी, पूजा का माध्यम दिया। लोग तस्वीरों की पूजा करने लगे। लेकिन मुख्य रूप से ये अभिव्यक्ति की आजादी पर बनी फिल्म है और निर्देशक की मंशा यही है। राजा रवि वर्मा को अपने समय में धार्मिक दकियानूसों से दो चार होना पड़ा। उन पर आरोप लगे कि जो देवी देवता पहले मंदिर में थे उनकोकैलेंडरों के माध्यम से घर घर पहुंचाना पाप है और इसी पाप की वजह से तत्कालीन मुंबई में प्लेग की बीमारी फैल रही है। फिल्म ये दिखाती है कि राजा रवि वर्मा पर लोगों ने पथराव किए और मुकदमा भी चला। मुकदमा अश्लीलता के आरोप में चला। पूरी फिल्म एक मुकदमे के ताने बाने में बनी है।

राजा रवि वर्मा की कला से तो हर भारतीय परिचित है लेकिन उनके जीवन के बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी है। इस फिल्म से उनके के बारे मे कुछ जानकारियां मिलती हैं लेकिन सारी नहीं। उनकी कला की प्रेरणा – सुगंधा – जो उनकी प्रेरणा भी बनीं और सिटर (जिसको बैठाकर कलाकार चित्र बनाता है) भी उनसे किस तरह रागात्मक रूप से जुड़ गईं, ये भी फिल्म में इसमें दिखाया गया है। फिल्म की सबसे खास बात ये है कि पूरी फिल्म कई तरह की पेंटिगों की दृश्यावली लगती है। कई फ्रेम तो इतने शानदार हैं कि उनको देखने के लिए हॉल में बार बार जाने की इच्छा हो सकती है। खासकर वो दृश्य जिसमें राजा रवि वर्मा और सुगंधा एक दूसरे से प्रेम करते हैं, लाजबाब है। और वो आखिरी दृश्य भी जिसमें सुगंधा फांसी लगाकर आत्महत्या कर लेती है एक पेंटिंग की तरह बन गया है।

राजा रवि वर्मा की भूमिका में रणदीप हुड्डा ने एक कलाकार के अंतर्मन और आत्मसंघर्ष को भी दिखाया है और उसकी निस्संगता को भी। इसकी नायिका नंदना सेन नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन और लेखिका नवनीता देवसेन की बेटी हैं। उन्होंने सुगंधा की मांसलता के साथ साथ उसके आत्मोत्सर्ग को भी दिखाया है। रंगरसिया पांच साल पहले ही बनके तैयार हो गई थी लेकिन इसे रिलीज होने में इतने साल लग गए। ये भी हमारी फिल्म वितरण प्रणाली पर एक टिप्पणी है। खैर एक अच्छी कलाकृति की प्रासंगिकता कभी खत्म नहीं होती। वक्त की धूल उसकी चमक को धूमिल नहीं होने देती। रंगरसिया इसका भी एक उदाहरण है।