आरती सक्सेना

बड़ी फिल्मों की बाक्स आफिस पर विफलता ने हर किसी को हिला दिया है। लिहाजा सिनेमाघर मालिकों से लेकर फिल्म वालों तक हर कोई अपने-अपने तरीके से उनकी विफलता की वजह ढूंढ़ने में व्यस्त है। निर्माता निर्देशक रोहित शेट्टी इस दौर को फिल्म उद्योग का सबसे बुरा दौर मानते हैं, जिसमें बड़ी-बड़ी फिल्में जो सालों से बन रही थीं, वे बुरी तरह नाकाम रहीं। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि अगर करोड़ों की फिल्में बन रही हैं तो दर्शकों की पसंद को लेकर चौकन्ना रहना जरूरी है। दो सालों में ओटीटी की अच्छी विषय सामग्री और दक्षिण की बेहतरीन फिल्मों ने बालीवुड के लिए कड़ी स्पर्धा खड़ी कर दी है। एक निगाह…

कोरोना काल और उसके बाद कई तरह की चुनौतियों से बालीवुड उस तरह नहीं लड़ पा रहा है जैसा कि दक्षिण का फिल्म उद्योग लड़ रहा है। लिहाजा अपनी फिल्मों को लेकर बालीवुड को दक्षिण के अनुभव से सीखकर और चौकन्ना होना पड़ेगा। रोहित शेट्टी का कहना है कि वे खुद अपनी फिल्म की रिलीज को लेकर पूरी तरह चौकन्ने हैं, ताकि उनकी मेहनत बेकार न जाए। एक बात तो सोलह आने सच है कि अगर फिल्म अच्छी है तो उसको सफल होने से कोई नहीं रोक सकता।

वहीं, दूसरी तरफ एक विलन रिटर्न के अभिनेता अर्जुन कपूर फिल्मों के नाकाम होने की वजह फिल्म निर्माताओं का डब और साउथ की रीमेक फिल्में बनाना मानते हैं। अर्जुन के अनुसार सारे फिल्म निर्माता ताजा कहानियों पर फिल्में बनाना ही नहीं चाहते। वे बस दक्षिण और हालीवुड की फिल्मों की कहानी दुहराने में ही व्यस्त हैं। दर्शक पहले ही यूट्यूब पर इन फिल्मों को देख चुके होते हैं। तो भला ऐसे में वही फिल्म फिर से थिएटर में देखने क्यों आएंगे।

दूसरी तरफ छोटे बजट की नई कहानी वाली फिल्में अच्छा कारोबार कर रही हैं। महामारी के बाद दर्शकों की पसंद में भारी बदलाव आया है। इसे हिंदी फिल्म उद्योग को समझना होगा। तभी वह उबर पाएगा। अर्जुन कपूर की तरह तापसी पन्नू भी फिल्मों की लगातार विफलता को लेकर चिंतित है। फिल्मों की नाकामी की वजह तापसी ओटीटी प्लेटफार्म को मानती हैं। तापसी के अनुसार दर्शकों की अब सिनेमाघरों तक आने की आदत काफी हद तक छूट गई है, क्योंकि उनको वही विषय सामग्री ओटीटी पर मिल जाती है।

फिल्म देखने के लिए दर्शकों को ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती जबकि सिनेमाघर में आकर फिल्म देखने के लिए काफी समय और पैसा खर्च करना पड़ता है। आज के समय में दर्शक ओटीटी पर फिल्म देखना ज्यादा अच्छा समझते हैं। ऐसे में अगर दर्शकों को थिएटर तक खींच कर लाना है तो कुछ ऐसा बनाना पड़ेगा जो उनको ओटीटी में देखने को नहीं मिलता है। कहने का मतलब यह है अब हमें फिल्म निर्माण को लेकर अपना स्तर और ऊंचा करना पड़ेगा क्योंकि अब चीजें इतनी आसान नहीं हैं, जितनी कि पहले होती थीं।

तापसी की तरह रकुल प्रीत भी इस बात से सहमत हैं कि अब दर्शकों को रिझाना आसान नहीं है। बाक्स आफिस के हिसाब से फिल्म उद्योग के लिए यह साल अच्छा नहीं है। चूंकि अब ट्रेंड बदल गया है तो हमें भी फिल्म निर्माण में नए-नए प्रयोग करने होंगे। कुछ ऐसा पेश करना होगा जो पहले कभी नहीं हुआ। अलग तरह की कहानी, बेहतरीन अभिनय और अच्छा निर्माण ही फिल्म उद्योग को नुकसान से बचा पाएगा।

फिल्म समीक्षक भावना शर्मा के अनुसार फिल्मों की नाकामी के पीछे एक खास वजह टिकट के दाम ज्यादा होना भी है। महामारी के बाद वैसे ही आम लोगों की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। ऐसे में अगर 200 या 400 के टिकट होंगे तो दर्शक फिल्म भी वैसी ही देखना चाहेंगे… इसके विपरीत जब इतना पैसा डाल कर थिएटर में आने के बाद दर्शकों को फिल्म में कुछ नया नहीं दिखता तो वे फिल्में थिएटर में देखना बंद कर देते हैं। एक बात पक्की है अगर फिल्म अच्छी होगी तो दर्शक फिल्म देखने के बारे में सोचेंगे जरूर। फिर भले उनको ज्यादा पैसा भी क्यों न देना पड़े।

जैसे कि गंगूबाई काठियावाड़ी, केजीएफ 2 आरआरआर, भूल भुलैया 2 आज के दौर में ही रिलीज हुई है और इन फिल्मों ने 100 से 200 करोड़ तक का कारोबार तो किया ही है। लेकिन आज के समय में फिल्मों के नाम पर सिर्फ दिखावा चल रहा है। कोई ऐसी बात नहीं है जो दर्शकों को थिएटर तक खींच कर लाए और उस पर फिल्म के टिकट के भाव इतनी ज्यादा हैं कि दर्शक सिनेमाघरों में आना पसंद नहीं कर रहे। इसी बात को मद्देनजर रखते हुए दक्षिण में फिल्मों के टिकट के दाम कम किए गए हैं। अगर बालीवुड में भी फिल्मों के टिकट के दाम कम किए जाएं तो हो सकता है कुछ औसत फिल्में चल निकलें।