सुनहरे मौके जीवन में बार-बार नहीं मिलते। वक्त किसी के लिए नहीं रुकता। उस गुजराती नूर मोहम्मद के लिए भी नहीं रुका, जो मुंबई में छाता सुधारने का काम करते-करते देश का पहला कॉमेडी सुपर स्टार बना और देसी चार्ली चैप्लिन कहलाया। जिसके नाम पर फिल्में उठती थीं। वितरक रुपयों से भरी थैली खोल देते थे। उसके गाए गाने देश गुनगुनाता था। जिसके अभिनय की नकल बाद की पीढ़ी के जॉनी वाकर से लेकर महमूद तक ने की और अपार सफलता पाई। नूर मूक फिल्मों से लेकर सवाक फिल्मों के शुरुआती दौर के नामी हास्य अभिनेता थे। मगर 1947 के विभाजन के बाद उन्होंने पाकिस्तान जाने का निर्णय लिया और यहीं से उनकी लोकप्रियता को ग्रहण लग गया। नूर पाकिस्तान गए भी। कुछेक फिल्में कीं। मगर वहां उन्हें भारत जैसी लोकप्रियता नहीं मिली। लिहाजा, वापस मुंबई लौटे मगर तब तक हालात बदल चुके थे। यहां ‘अकेली मत जइयो’ (1963) जैसी दो-तीन फिल्मों में उन्हें काम मिला, मगर तब तक शोहरत मुट्ठी में रेत की तरह फिसल गई थी। वक्त और हालात पहले जैसे नहीं थे और फिल्मी दुनिया में जॉनी वाकर और महमूद जैसे हास्य कलाकार जम गए थे।

वीजा कारणों से चार्ली भारत छोड़ वापस पाकिस्तान गए और एक दिन खामोशी से दुनिया को अलविदा कह दिया। पोरबंदर के पास एक गांव में पैदा हुए नूर मोहम्मद का पढ़ाई से ज्यादा सिनेमा में ध्यान था। लिहाजा मेमन परिवार में पैदा नूर मुंबई आकर एक दुकान पर छात्रा सुधारने लगे। मगर दिमाग में सिनेमा का कीड़ा ऐसा घुसा था कि एक दिन आर्देशीर ईरानी की कंपनी इंपीरियल में पहुंच गए। कहा कि सिनेमा में काम करना है। पूछा कि क्या कर सकते हो। जवाब मिला कि सब कुछ। घोड़ा दौड़ाने से लेकर घूंसा चलाने तक। तैरने से लेकर डूबने तक, हर काम। सो, 40 रुपए महीने में एक्टिंग की नौकरी तुरत-फुरत मिल गई। यह 1925 के आसपास की बात है, तब फिल्मों में काम करने वाले जल्दी मिलते नहीं थे। नूर ने नौ-दस मूक फिल्मों में काम किया। 1933 में ‘इंडियन चार्ली’ नामक उनकी फिल्म को कामयाबी मिली, तो नूर मोहम्मद ने अपने नाम के साथ चार्ली जोड़ लिया और चार्ली चैप्लिन की ही तरह हिटलर कट छोटी-सी मूंछ भी स्थाई तौर पर रख ली।

चार्ली ने इंपीरियल, सागर, रंजीत जैसी कंपनियों में काम किया। उस दौर में जब दूसरे कलाकार कंपनियों में महीने की तनख्वाह पर काम कर रहे थे, चार्ली अपनी पसंद के निर्माताओं के साथ अपनी शर्तों पर काम कर रहे थे। स्टूडियो सिस्टम ढहने लगा तो ‘फ्री लांसिंग’ का यही काम 40 के दशक में पृथ्वीराज कपूर और दुर्गा खोटे जैसे मशहूर कलाकारों ने किया था।
एक वक्त ऐसा भी था, जब चार्ली का नाम बिकता था और वह पहले हास्य अभिनेता थे, जिन्हें हीरो के बराबर मेहनताना मिलता था। ‘ढंढोरा’ नामक फिल्म में चार्ली ने लेखन, निर्देशन, अभिनय, गायन किया। इसका गाना ‘पलट तेरा ध्यान किधर है…’ इतना लोकप्रिय हुआ था कि लड़के इस गाने के जरिए लड़कियों को छेड़ते थे। 1945 की ‘गजल’ में वह लीला चिटनिस के हीरो थे।

विभाजन के बाद चार्ली पाकिस्तान चले गए। वहां कुछ पंजाबी, सिंधी, उर्दू फिल्में की। मगर कामयाबी नहीं मिली, तो अपने छह बेटों और छह बेटियों में एक के पास इंग्लैंड चले गए। पत्नी का निधन हुआ तो पाकिस्तान आए और कुछ समय बाद उनका भी इंतकाल हो गया। मगर हिंदुस्तान में कॉमेडी किंग कहलाने वाले, लोगों को हंसाने वाले, महमूद और जॉनी वाकर के प्रेरणास्त्रोत रहे चार्ली गुमनामी में मरे। पाकिस्तानी फिल्म इंडस्ट्री का कोई नामी कलाकार उनके जनाजे को कंधा देने नहीं आया। माना जाता है कि अगर चार्ली भारत में ही रहते तो चोटी के हास्य कलाकारों में गिने जाते और लंबे समय तक फिल्मों में उनकी धूम रहती।