निर्देशक : दिबाकर बनर्जी, कलाकार : सुशांत सिंह राजपूत, नीरज कबी, स्वस्तिका मुखर्जी, आनंद तिवारी, दिव्या मेनन।
निर्देशक दिबाकर बनर्जी ने बांग्ला कथाकार शरदिंदु बंदोपाध्याय के चरित्र और रचना के आधार पर ब्योमकेश बक्शी का जो किरदार रचा है वो जेम्सबांड, शरलक होम्स या हरकूल पायरो जैसा जासूस नहीं है कि जिसके अपने निजी अंदाज हैं। ये ब्योमकेश बक्शी धोती कुरता पहनने वाला सामान्य इंसान है। वो एक आम बंगाली बाबू भी नहीं दिखता। आखिर कैसे दिखे? वो बिहार के मुंगेर में पैदा हुआ है इसलिए बंगाली बाबू की छवि के दायरे के बाहर है। लेकिन उत्तर भारतीय दिखनेवाला ये बंगाली जासूस दिमाग का तेज है और आसपास घट रही घटनाओं और लोगों पर तीखी निगाह रखता है और किसी असामान्य चीज को खट से पकड़ लेता है। ब्योमकेश अपनी विश्लेषण बुद्धि से अपराध और अपराधी की पहचान कर लेता है।
पर फिल्म सिर्फ जासूसी की कहानी है। इसमें दूसरे विश्वयुद्ध के समय कोलकोता (तब कलकत्ता) का वातावरण है। तब ये आशंका थी कि जापान यहां हमला कर सकता है। दिबाकर बनर्जी की इस फिल्म में उस समय की गंध भी है। साथ ही अफीम और हीरोइन की तस्करी की पृष्ठभूमि भी। ब्योमकेश एक साधारण आदमी भुवन बाबू के गायब होने की तहकीकात शुरू करता है और इस दौरान उसे मालूम होता है कि जिसे वो एक अपराध समझता था उसमें कई तरह के पेंच हैं। भुवन बाबू की लाश मिलती है और फिर के सिलसिला शुरू होता है जिसमें एक के बाद एक कई हत्याएं हो जाती हैं। एक गुत्थी सुलझने के पहले दूसरी गुत्थी की तरफ ले जाती है और नए नए किरदार आते हैं फिल्म को एक जटिल पहेली में बदल देते हैं। इन किरदारों में नेता भी हैं, हीरोइन भी, चीनी और जापानी मूल के तस्कर भी हैं और डॉक्टर भी। और जब ब्योमकेश बक्शी मामले की तह तक पहुंचता है तो एक छोटा अपराध एक बड़े षडयंत्र के अंश के रूप में उभरता है।
पर इस पेचीदेपन के बावजूद फिल्म अपनी मूल धूरी पर कायम रहती है और जासूस ब्योमकेश हर चक्रव्यूह से निकलता जाता है। सुशांत सिंह राजपूत ने ब्योमकेश के जिस किरदार को जिस ढंग से निभाया उसे लेकर बहसें होंगी और कुछ लोग कहेंगे ये आदमी तो को कहीं से जासूस नहीं लगता। अक्सर हमारे दिमाग में जासूस की एक छवि होती है कि वो अपने डीलडौल या वेशभूषा से आम आदमी से कुछ अलग दिखता है। पर यही बिंदु हैं जहां दिबाकर बनर्जी अलग प्रकार के निर्देशक दिखते हैं। वे पूरी फिल्म को, या मुख्य किरदार को, किसी चकाचौंध की तरह पेश नहीं करते बल्कि एक साधारणता में असाधारणा को दिखाते हैं। उनकी इस फिल्म में कई जगहों पर प्रकाश और छाया का ऐसा इस्तेमाल है मानों आप किसी पेंटिंग को देख रहे हों। और हां दर्शक को हमेशा चुस्त और चौकन्ना होकर बैठना पड़ेगा। एक भी संवाद आपके जेहन से निकला कि अगली कड़ी आपकी समझ के बाहर होगी।
फिल्म में सबसे नाटकीय चरित्र है डॉ गुहा का जिसे नीरज कबी ने निभाया है। गुहा एक लॉज चलाता है और नौजवानों की मदद करता है। लेकिन वो जैसा ऊपर से दिखता है वैसा है नहीं। वह एक बड़े अभियान का सूत्रधार है। आखिर में उसका चरित्र जिस अतियोक्तिपूर्ण रूप से दिखाया गया है उसकी आवश्यकता नहीं थी फिर भी अपने अभिनय से नीरज कबी ने इस चरित्र को धमाकेदार बना दिया है। ब्योमकेश से ठीक उलट स्वस्तिका मुखर्जी ने इसमें अंगूरी देवी नाम की एक हीरोइन का चरित्र निभाया और उनका किरदार भी रहस्यमय लगता है। अंत में पता चलता है कि अंगूरी के दिल में एक प्रेम की दीवानी बैठी है जो जान दे सकती है पर ले नहीं सकती। लेकिन फिल्म में दिव्या मेनन को सत्यवती नाम के जिस चरित्र के रूप में दिखाया है उसकी कोई खास प्रासंगिता नहीं है। आखिर के दृश्य में सत्यवती और ब्योमकेश के बीच प्रेम दिखाना बेतुका लगता है। निर्देशक शायद ये दिखाना चाहता है कि उसका जासूस भी रोमांटिक मिजाज का है।