Mahabharat 30th April Episode online Updates: सूर्य पुत्र कर्ण का का एक नाम दानवीर कर्ण भी था। कर्ण को दानवीर यूंही नहीं कहा जाता था। वो अपने दान के लिए तीनों लोकों में चर्चित था। भगवान सूर्य की चेतावनी के बाद भी कर्ण ने अपने कवच और कुंडल इंद्र देव को दान कर दिए क्योंकि वो किसी को दान देने से मना नहीं कर सकता था। कुंती को रात में शयनकक्ष में अपने पुत्र कर्ण की याद आती है। कुंती इस बात को लेकर परेशान है कि उसके दोनों पुत्र कर्ण और अर्जुन आमने सामने होंगे। कुंती, कर्ण के बारे में सोचकर दुखी हो जाती है।
कर्ण सूर्य की पूजा कर रहे होता है कुंती उससे जाकर मिलती है। कुंती को देखकर कर्ण उन्हें प्रणाम करता है और कहता है कि यह अधिरथ पुत्र राधेय आपकी क्या सेवा कर सकता है? तब वह कहती है कि मैं तुमसे कुछ मांगने आई हूं। तब कर्ण कहता है कि मांगने से पहले क्या आप अपना परिचय देंगी? कुंती कहती हैं कि मैं वो अभागी हूं जिसे अपना पहला पुत्र त्यागना पड़ा था। कर्ण को इस बात का अंदेशा हो जाता है कि कुंती निश्चित ही किसी स्वार्थवश उसके पास आई है। जब कुंती, कर्ण को पुत्र कहती है तो कर्ण कहता है पुत्र कहकर ना मांगे। राजामाता बनकर मांगें।
कर्ण कहता है कि आप निश्चित ही मुझसे अर्जुन का जीवदान मांगने आई हैं। कर्ण कहता है यह करना मेरे वश में नहीं है। मित्र दुर्योधन का मुझ पर कर्ज है मैं उसे नही छोड़ सकता। कर्ण कहते हैं कि आपने जो मांगा है वह तो मैं दे नहीं सकता लेकिन मैं वचन देता हूं कि आपके पांचों के पांचों पुत्र जीवित रहेंगे। यदि अर्जुन वीरगति को प्राप्त हुआ तो मैं बचूंगा और मैं प्राप्त हुआ तो वह बचेगा। वहीं दूसरी ओर श्रीकृष्ण दूत के माध्यम से कौरवों को संदेश भिजवाते हैं कि तुम दुर्योधन से जाकर कहना कि तुम क्षत्रिय के भांति जी तो नहीं सके किंतु क्षत्रिय के भांति वीरगति को प्राप्त हो सकते हो। वहीं दुर्योधन को अपनी जीत पर पूरा भरोसा होता है और वो अपनी माता से आशीर्वाद मांगने जाता है।
श्रीकृष्ण दूत के माध्यम से कौरवों को संदेश भिजवाते हैं। संदेश के माध्यम से कृष्ण कहलवाते हैं कि तुम दुर्योधन से जाकर कहना कि तुम क्षत्रिय के भांति जी तो नहीं सके किंतु क्षत्रिय के भांति वीरगति को प्राप्त होने का उसके पास मौका है। वहीं दुर्योधन अपनी माता से आशीर्वाद मांगने जाता है।
दुर्योधन, शकुनि, दु:शासन, कर्ण और गांधार नरेश उलूक के बीच युद्ध को लेकर चर्चा होती है। शकुनि की सलाह पर पांडवों के पास उलूक को दूत बनाकर भेजा जाता है। दूत दुर्योधन का संदेश सुनाता है और कहता है कि युद्ध में मायावी नहीं बाहुबल काम आता है। वह कहता है कि तुम लोग नपुंसक हो नपुंसक। वह संदेश सुनाते हुए कहता है कि अज्ञातवास भंग होने पर तुम लोगों को फिर से वनवास चले जाना चाहिए।
धृतराष्ट्र, ऋषिवर से युद्ध का परिणाम पूछते हैं तब वेदव्यासजी कहते हैं कि जो वृक्ष छाया नहीं देते हैं उनका कट जाना ही उचित है। तब धृतराष्ट्र पूछते हैं कि कटेगा कौन? यह सुनकर वेद व्यासजी कहते हैं कि इस प्रश्न का उत्तर तुन्हें संजय देंगे। ऐसा कहकर वेदव्यासजी चले जाते हैं।
धृतराष्ट्र ऋषिवर से कहते हैं कि मैं क्या करूं मेरे पुत्र मेरे वश में नहीं है। तब ऋषि कहते हैं कि तो ठीक है मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि देते हूं जिससे तुम स्वयं सर्वनाश देख सको। धृतराष्ट्र ऐसा करने से उन्हें रोक देते हैं और कहते हैं कि संजय को यह दिव्य दृष्टि प्रदान कीजिए। ताकि मैं इनसे सुन सकूं कि कौन वीरगति को प्राप्त हुआ है। तब ऋषि वेदव्यास संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान कर देते हैं।
भीष्म और महर्षि वेदव्यास के बीच युद्ध और विवशता को लेकर संवाद होता है। भीष्म महर्षि से कहते हैं कि वो विवश हैं। भीष्म कहते हैं कि वो इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि युद्ध में वो जिस पक्ष से लड़ रहे हैं उनकी हार सुनिश्चत है लेकिन चाहकर भी वो कुछ नही कर सकते हैं। फिर वेदव्यासजी संजय और धृतराष्ट्र से संवाद करते हैं। महर्षि वेदव्यास कहते हैं कि मैं तुम्हें सलाह देने आया हूं कि द्वार पर खड़े इस महायुद्ध को भीतर आने की आज्ञा न दें।
गांधारी कहती है कि इस युद्ध को ना होने दे आर्य पुत्र। धृतराष्ट्र कहते हैं कि मेरा पुत्र दुर्योधन नहीं मानेंगे। मैं विवश हूं। गांधारी कहती हैं कि युद्ध रोकने का केवल एक विकल्प है कि अगर आप संजय के साथ जाकर देवकीनंदन से कहें कि युद्ध न होने दिया जाए। वहीं धृतराष्ट्र इस बात से परेशान दिखता है कि कुंती अपने पुत्रों के पास रहने क्यों नही जा रही है।
द्रौपदी को वो सारे पल याद आ रहे हैं जब दुर्योधन के कहने पर उसके बाल पकड़कर उसे जबरन राजसभा में लाया गया था। द्रौपदी पुरानी बातों को याद कर काफी ज्यादा भावुक हो जाती है और कौरवों के प्रति उसके गुस्से की आग को और ज्वाला मिलती है।
भीम के क्रोध करने पर कृष्ण उनसे कहते हैं कि अभी ये क्रोध करने का समय नही है आप सेनापति हैं तो सेनापति जैसा व्यवहार करें। आप ये सोचिए की दुर्योधन की सेना आपकी सेना से काफी बड़ी हैऔर आपको ये सोचकर तो थोड़ा और गंभीर हो जाना चाहिए कि उनकी सेना का मार्गदर्शन गंगापुत्र भीष्म कर रहे हैं।
श्रीकृष्ण, द्रौपदी और पांडवों के बीच संवाद से होता है। कृष्ण कहते हैं पांडवों से, अब निर्णय लेना है। द्रौपदी कहती है कि ये क्या निर्णय लेंगे। इन्हें तो मेरे खुले कैश दिखाई नहीं देते। निर्णय तो मैं लूंगी। ऐसा कहकर द्रौपदी युद्ध का शंख बजाती है।
कुंती कहती है कि यह जान लेने के बाद कि तुम अपने अनुजों के ज्येष्ठ पुत्र तो तुम्हारे लिए अपने अनुजों से युद्ध करना उचित नहीं है पुत्र। मैं तुम्हें लेने आई हूं तुम्हारे अनुज तुम्हें सर आंखों पर बिठाएंगे। ये तुम्हारा अधिकार है