यह एक संगीत प्रधान फिल्म है। इसके निर्देशक भले विश्वेश कृष्णमूर्ति हों पर सोच और निर्माण के स्तर पर यह पूरी तरह संगीत निर्देशक एआर रहमान की फिल्म है जो इसके निर्माता भी हैं और कहानीकार भी। इसका मूल विचार यह है कि कोई गाना दुनिया को बदल सकता है। या ये कहें कि संगीत हमारे समाज और आसपास के जीवन को बदल सकता है। दूसरे शब्दों में कहें तो ये संगीत की ताकत का एहसास कराने वाली फिल्म है।

फिल्म की कहानी जय (एहान भट्ट) नाम के एक युवा के इर्दगिर्द घूमती है जो संगीत का दीवाना है। खुद संगीतकार भी है। हालांकि उसके पिता संगीत विरोधी है। जय को सोफी सिंघानिया नाम की लड़की से इश्क हो जाता है जो एक कलाकार है पर मूक है। लेकिन उसके पिता संगीतकारों को दो कौड़ी का समझते हैं। इसलिए जब जय उनके पास सोफी से शादी करने का प्रस्ताव लेकर जाता है तो वे उसके सामने एक चुनौती रखते हैं कि बेटा पहले एक सौ गाने बना कर दिखाओ फिर मेरी बेटी का हाथ मांगने आना। इसके बाद जय शिलांग चला जाता है जहां उसका दोस्त पोलो (तेनजिन डाल्हा) और उसका बड़ा परिवार उसकी मदद करता है। फिर भी उसकी राह आसान नहीं रह जाती और वह मनोवैज्ञानिक रूप से अस्वस्थ हो जाता है।

क्या होगा अब जय का? फिल्म में हीरो की भूमिका निभाने वाले एहान भट्ट वैसे तो मूल रूप से कश्मीर के रहने वाले हैं, पर अमेरिका में अभिनय सीख चुके हैं। इस फिल्म में उनकी एक सशक्त उपस्थिति है।

सोफी की भूमिका निभाने वाली एडिल्सी वर्गास के पास बोलने के लिए कोई संवाद नहीं है। जो भी कहना है वो आंखों या अपने हावभाव से कहना है। पर यहां भी उनकी प्रतिभा झलकती है। पर दिक्कत ये है कि संगीत की केंद्रीयता होने के बावजूद फिल्म की कहानी में जज्बाती गहराई नहीं है। फिल्म की कहानी का ढांचा तो पुराना है लेकिन उसमें दृश्यों को जिस तरह बनाया गया है वो भावना की गहराई नहीं पैदा कर पातीं। फ्लैशबैक की तकनीक भी अवरोध बन जाती है।

जहां तक गानों का सवाल है, वे अच्छे तो हैं लेकिन उनमें वे क्षमता नहीं है कि दर्शकों और फिल्म प्रेमियों के दिल में हमेशा के लिए बस जाएं। यह फिल्म हिंदी के साथ साथ तमिल और तेलुगु में भी बनाई गई है। उनके गाने कैसे हैं यह तो दर्शक ही बता सकते हैं।